भाजपा को ये चमत्कार करने में लग गए चार दशक, अब है इस पार्टी का स्वर्णिम काल
सोच संकल्प परिश्रम और रणनीति के मोर्चे पर पिछले पांच साल में भाजपा में जो बदलाव आया है वही दो से दोबारा का आधार है।
नई दिल्ली [आशुतोष झा]। केंद्र में लगातार दूसरी बार बड़े बहुमत के साथ सत्ता में आई भारतीय जनता पार्टी के प्रदर्शन से हर कोई चकित है। यह अनुसंधान का विषय बन सकता है कि आखिर देश के सारे परंपरागत समीकरणों को तोड़ते हुए भाजपा ने क्या चमत्कार किया। यह सवाल भी पूछा जाने लगा है कि क्या मान लिया जाए कि अब भारतीय राजनीति में जाति का महत्व कम हो गया है? क्या काम के दम पर चुनाव जीते जा सकते हैं? और क्या अब यह मान लेना चाहिए कि दो-ढाई दशक से हावी गठबंधन राजनीति उतार पर है? इन सारे विषयों पर लंबी चर्चा चलेगी। पर इसके साथ ही यह बहस भी छिड़ गई है कि महज 40 साल पुरानी भाजपा में ‘दो से दोबारा’ बहुमत के साथ सत्ता की पार्टी बनने की क्षमता क्या विपक्षी दलों की कमजोरी के कारण आई या फिर अपने शौर्य के बल पर? इसमें शक नहीं कि देश की सबसे पुरानी पार्टी भाजपा को चुनौती देने की स्थिति में नहीं है, लेकिन भाजपा की राजनीतिक यात्रा बताती है कि जो पड़ाव हासिल हुआ है उसमें उसके अपने शौर्य का बड़ा हाथ है। सोच, संकल्प, परिश्रम और रणनीति के मोर्चे पर पिछले पांच साल में भाजपा में जो बदलाव आया है, वही दो से दोबारा का आधार है।
हार गए थे वाजपेयी भी:
वर्ष 1980 में जन्मी भाजपा को 1984 के चुनाव में ही इंदिरा गांधी की हत्या के बाद कांग्रेस के पक्ष में उभरी भारी जनभावना का सामना करना पड़ा था और पार्टी दो के अंक पर सिमट गई थी। पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी को भी हार का मुंह देखना पड़ा था, लेकिन अगले पांच साल के अंदर भाजपा ने मुख्यत: हिंदुत्व और राष्ट्रवाद को केंद्रित कर उत्थान की जो गति पकड़ी वह फिर कम नहीं हुई। लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राममंदिर के लिए रथयात्रा और फिर बाद में मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एकता यात्रा ने पार्टी में हर चुनाव के कुछ पहले संपर्क के लिए यात्राओं की शुरुआत कर दी थी। यह सच है कि 1990 में रथयात्रा ने जो करिश्मा दिखाया वह फिर कभी नहीं हो पाया, लेकिन पार्टी ने रफ्तार पकड़ ली। अटल बिहारी वाजपेयी के काल में दो अल्पकालीन और तीसरी बार गठबंधन की बैसाखी पर पूर्णकालिक सरकार बनी, लेकिन सच्चाई यह है कि कहीं न कहीं पार्टी में शिथिलता स्पष्ट तौर पर आ गई थी। यही कारण है कि सुशासन के कुछ मानकों पर खरा उतरने के बावजूद तत्कालीन भाजपा को दूसरा जनादेश नहीं मिला।
दरअसल 2004 पहला वक्त था जब लगातार बढ़ती रही भाजपा की शक्ति घटने लगी थी। 182 तक पहुंची भाजपा 2009 तक घटकर 116 तक उतर गई थी। दस साल का यह हिस्सा भाजपा के लिए सही मायने में निराशा का काल था जब संगठन के स्तर पर अंदरूनी खींचतान थी और प्रधानमंत्री उम्मीदवार को लेकर ऐसे चेहरे का अभाव था जो उत्साह जगा पाए। ऐसा चेहरा ढूंढे नहीं दिख रहा था जो संगठन और जनता दोनों के बीच लोकप्रिय हो। इस बीच राज्यों में जरूर भाजपा ने अपने पैर पसारे और छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, बिहार, राजस्थान में विस्तार किया। गुजरात में भाजपा ने शक्ति को संगठित किया, लेकिन दक्षिण और उत्तर पूर्व को लेकर शिथिलता हावी रही।
स्वर्णिम काल:
भाजपा का स्वर्णिम काल 2014 से शुरू होता है जब पार्टी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह जैसे ऐसे नेताओं का प्रभाव बढ़ा जिनके शब्दकोष में शिथिलता नहीं है। एक-डेढ़ साल के काल में ही भाजपा ढाई करोड़ से बढ़कर 11 करोड़ सदस्यों की पार्टी बन गई। लगभग डेढ़ दर्जन राज्यों में भाजपा पचास फीसद से ज्यादा वोट पाने वाली पार्टी बन गई।
मुख्यतया मध्य वर्ग और अगड़ी जातियों की पार्टी मानी जाने वाली भाजपा सर्वजाति पार्टी के रूप में स्थापित हो गई। भाजपा ने एक बार बंगारू लक्ष्मण को संगठन की कमान देकर दलित वर्ग को साथ जोड़ने की कवायद दिखाई थी, लेकिन वह खुद जिस तरह विवादों के बाद बाहर हुए उसने रणनीति पर पानी फेर दिया था। बाद में एम वेंकैया नायडू को स्थापित कर दक्षिण को संदेश देने की कोशिश हुई थी, लेकिन जमीनी स्तर पर इसका प्रभाव नहीं दिखा। अब एक तरफ जहां दक्षिण के राज्यों में भी स्थानीय स्तर पर नेताओं को उभारा गया है, विकास, राष्ट्रवाद के जरिये जनता को साधा गया है, वहीं केंद्रीय स्तर पर ओबीसी से खुद प्रधानमंत्री के होने के कारण विस्तार की संभावनाएं बढ़ गई हैं।
सत्ता और संगठन, दोनों के स्तर पर भाजपा ने नूतनता दिखाई। मोदी और शाह अपने फैसलों से चौंकाते रहे, यह भरोसा पैदा करते रहे कि यह बदलाव अच्छे दिनों के लिए है। जनोन्मुखी योजनाओं के जरिये उत्तर की न रहकर विस्तार पूरे देश में हो गया और सही मायने में भाजपा राष्ट्रीय पार्टी बन गई। तीन दशक के रिकार्ड को तोड़ते हुए भाजपा न सिर्फ एक बार, बल्कि दूसरी बार भी बहुमत के आंकड़े के साथ सत्ता में आ गई। यह भी गौरतलब है कि वोट फीसद के मामले में भाजपा 2019 में लगभग वहीं खड़ी है जहां 1984 में कांग्रेस खड़ी थी। उस वक्त जनभावना के कारण कांग्रेस सवा चार सौ सीट जीत गई थी।
जनता की नब्ज पहचानी:
सवाल लाजिमी है कि आखिर यह सब कैसे हुआ? नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी तो सामने है ही, भाजपा ने राष्ट्रवाद और सुशासन के तार को ही ज्यादा कसा है। 2014 में सत्ता में आने के साथ ही प्रधानमंत्री ने गरीबों को लेकर अपनी प्राथमिकताएं स्पष्ट कर दी थीं। लगातार पांच साल जोर इतना रहा कि पहली बार अगड़ी जाति के गरीबों के लिए आरक्षण का प्रावधान कर दिया गया।
भाजपा ने जनता की नब्ज भी पहचानी और राम मंदिर को लेकर शोर जरूर कम हुआ, लेकिन राष्ट्रवाद का उफान तेज हुआ। दरअसल, पहली बार राष्ट्रवाद नारों से निकलकर काम में दिखने लगा। कश्मीर में अनुच्छेद 370 और 35 ए को के मुद्दे जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर अब तक विरोध होता रहा है, लेकिन अब बार-बार भाजपा नेतृत्व की ओर से इस पर स्पष्ट राय रखी जा रही है। अटल सरकार ने पाकिस्तान सीमा में घुसकर वार करने पर रोक लगा दी थी, लेकिन मोदी सरकार ने और बल दिखाया और बालाकोट में घुसकर तबाह किया। अफस्पा और देशद्रोह कानून पर विपक्षी दलों के रुख ने भाजपा के राष्ट्रवाद को और ताकतवर बना दिया। राम मंदिर पर आक्रामकता कम दिख सकती है और इसका एक कारण यह भी है कि संघ, जो अटल बिहारी वाजपेयी काल में ज्यादा आक्रामक था, अब वह भी प्रखर राष्ट्रवाद पर बढ़ते कदम से संतुष्ट है।
इन वर्षों में भाजपा ने यह मिथक भी तोड़ा है कि भाजपा अल्पंसख्यक क्षेत्रों में अपनी पैठ नहीं बना सकती है। उत्तर-पूर्व में जिस तरह सभी राज्यों में भाजपा खुद या सहयोगियों के साथ काबिज है वह अलग तस्वीर पेश करता है। कश्मीर में पीडीपी जैसी विरोधी पार्टी के साथ भी गठजोड़ बनाकर भाजपा ने यह भी साबित किया कि वह विपरीत परिस्थिति में भी सामंजस्य बना सकती है। एक तरफ जहां विपक्ष पर शिथिलता भारी है, नई सोच और कवायद का अभाव है वहीं दूसरी ओर भाजपा का अथक परिश्रम, नूतनता और फैसले लेने की क्षमता और साहस ने फिलहाल लड़ाई एकतरफा कर दी है। भाजपा नए जमाने की नई पार्टी बनकर उभरी है, जिसमें युवाओं को उत्साह दिखता है, महिलाओं को समानता और एक बड़े वर्ग को अवसर।
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