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    ईमानदारी की विरासत में विवादों का भी साया, परमाणु समझौते में विजेता बनकर उभरे; मगर अन्ना आंदोलन ने खिलाफ में बनाई थी हवा

    अपनी आर्थिक नीतियों से देश की तस्वीर बदलने वाले मनमोहन सिंह के निधन से पूरे देश में शोक की लहर है। नई दिल्ली स्थित एम्स में गुरुवार को उन्होंने आखिरी सांस ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने साथ मनमोहन सिंह की कई तस्वीरों को साझा किया और निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया। राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने कहा कि देश ने आज अपने महानतम सपूत को खो दिया है।

    By Jagran News Edited By: Ajay Kumar Updated: Fri, 27 Dec 2024 02:00 AM (IST)
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    पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी। ( फाइल फोटो- पीटीआई)

    मनीष तिवारी, नई दिल्ली। प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने जब यह कहने का साहस दिखाया था कि इतिहास उनके प्रति नरमी दिखाएगा तब उन्हें मालूम था कि राजनीतिक रूप से तमाम सवालों से घिरे होने के बावजूद उनके साथ उनकी अपनी बेदाग छवि है। मनमोहन सिंह ने ब्यूरोक्रेट से लेकर पीएम तक का अपना सफर बिना किसी व्यक्तिगत विवाद के ही पूरा किया, लेकिन अपनी सबसे बड़ी जिम्मेदारी निभाते हुए वह अपने आसपास के विवादों को नहीं रोक सके।

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    कभी संदेह के दायरे में नहीं रही व्यक्तिगत ईमानदारी

    उन पर सबसे कमजोर प्रधानमंत्री होने के आरोप लगे, घपले-घोटालों के अभूतपूर्व मामले सामने आए और मीडिया सलाहकार संजय बारू जैसे कुछ लोगों ने उन्हें लाचार बताने में कसर नहीं छोड़ी जो उनके सबसे अधिक करीब थे।

    दो लगातार संप्रग सरकारों (2004 से 2014 तक) का नेतृत्व करते हुए प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह के कार्यकाल ने ही देश की राजनीति की दिशा-दशा मोड़ी, खासकर नीतिगत निष्क्रियता, निर्णय लेने में देरी और घोटाले के तीन-चार बड़े मामलों के साथ ही अन्ना हजारे के जन आंदोलन ने पूरे देश में एक ऐसे माहौल का निर्माण किया जिसमें गहरी निराशा थी। यह एक ऐसे व्यक्ति के लिए विचित्र और हैरान कर देने वाली स्थिति थी जिसकी व्यक्तिगत ईमानदारी कभी संदेह के दायरे में नहीं रही।

    परमाणु समझौते में विजेता बनकर उभरे

    पीएम के रूप में मनमोहन सिंह के पहले कार्यकाल में किसी बड़े विवाद की झलक नहीं मिली, सिवाय इसके कि गठबंधन की मजबूरियों के चलते उन्हें राजद के तस्लीमुद्दीन सरीखे कुछ ऐसे मंत्री बनाने पड़े जिन्हें दागी कहा जाता था। पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में अमेरिका के साथ परमाणु समझौते पर सहयोगी दलों ने ही सवाल उठाए, लेकिन इसे अंजाम तक पहुंचाने में मनमोहन सिंह ने अपनी पूरी राजनीतिक पूंजी झोंक दी और वह विजेता बनकर उभरे।

    पांच बड़े घोटालों ने बढ़ाई थी बेचैनी

    2009 के आम चुनाव में अप्रत्याशित, लेकिन आखिरकार आसान जीत के बाद दोबारा पीएम बने मनमोहन सिंह के लिए दूसरा कार्यकाल उतना ही कठिन साबित हुआ जब लगभग पूरे पांच साल वह घपले-घोटालों के नए-नए मामलों या उनमें हो रहे रहस्योद्घाटनों से परेशान और बेचैन रहे। पांच बड़े घोटालों की संयुक्त धनराशि चार लाख करोड़ रुपये तक बताई गई। इसी ने तत्कालीन विपक्ष यानी भाजपा को यह कहने का मौका दिया कि मनमोहन सिंह के राज में अभूतपूर्व धांधली हुई है।

    अपनों ने भी बनाई दूरी

    2जी, कोयला घोटाला, राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में गड़बड़ी, आदर्श हाउसिंग सोसाइटी, एंट्रिक्स धांधली कुछ प्रमुख प्रकरण हैं, जिनमें हजारों-लाखों करोड़ रुपये के घोटालों की बातें हुईं। इसी दौरान लोकपाल की मांग को लेकर अन्ना हजारे के आंदोलन-धरने ने जैसे मनमोहन सिंह की बतौर पीएम छवि ही नष्ट कर दी। जैसे-जैसे माहौल उनके खिलाफ होता गया, वैसे-वैसे उनके अपने उनके खिलाफ होते गए।

    जब राहुल गांधी ने फाड़ दिया था अध्यादेश

    28 सितंबर 2013 को दागी-सजायाफ्ता नेताओं को राहत देने के लिए लाए गए संप्रग सरकार के अध्यादेश को भरी प्रेस कॉन्फ्रेंस में फाड़कर तत्कालीन कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने पीएम के रूप में मनमोहन सिंह के प्रभाव और सम्मान को जाने-अनजाने और सीमित कर दिया।

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