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कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में जीत के अलावा भी है एक सबसे बड़ी चुनौती, जानें क्‍या

यूपी में सपा-बसपा गठबंधन के बाद अब कांग्रेस के सामने लोकसभा की सर्वाधिक सीट वाले इस राज्‍य में सबसे बड़ी चुनौती अपना जनाधार बढ़ाने को लेकर है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 14 Jan 2019 12:02 PM (IST)Updated: Mon, 14 Jan 2019 12:02 PM (IST)
कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में जीत के अलावा भी है एक सबसे बड़ी चुनौती, जानें क्‍या

नई दिल्‍ली [जागरण स्‍पेशल]। कांग्रेस यूपी की  सभी 80 सीटों पर चुनाव के लिए तैयार है। फरवरी के पहले सप्ताह से यहां राहुल गांधी के दौरे शुरू हो जाएंगे। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं कि बसपा सुप्रीमो मायावती व सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव लोकसभा चुनाव लड़ेंगे या नहीं। लेकिन जहां तक कांग्रेस के कार्यकर्ताओं की बात है तो वह अखिलेश और मायावती को राहत देने के पक्ष में नहीं हैं। अधिकतर का कहना है कि कांग्रेस को राजस्थान व अन्य राज्यों में हुए चुनावों से सबक लेते हुए सपा-बसपा को सही जवाब देना चाहिए। लखनऊ को रविवार को पार्टी मुख्यालय में कार्यकर्ताओं की बैठक में अकेले चुनाव लड़ने के निर्णय को सराहा गया। वाराणसी से आए सुरेश सिंह पटेल का कहना था कि पार्टी को यह फैसला छह माह पूर्व लेकर तैयारी में जुट जाना चाहिए था। सपा-बसपा के बेमेल गठजोड़ का भविष्य नहीं है। लेकिन चुनावी मझधार में अकेले अपनी नैया को पार लगाने की सोच रही कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाने की है। 1984 में एकतरफा जीत के बाद यह जनाधार लगातार कम होता गया है। 

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1984 में मिली थी जबरदस्‍त जीत
1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को भारी बहुमत मिला था। उस वक्त 85 सीटों पर लड़ने वाली देश की इस सबसे पुरानी पार्टी को 83 सीटें मिली थीं। तब कांग्रेस को सबसे ज्यादा लोकसभा सीट वाले इस राज्य में 51.03 फीसद वोट मिले थे। 1984 के बाद उत्तर प्रदेश में लगातार कांग्रेस का जनाधार गिरा है। पिछले लोकसभा चुनावों में इसका वोट प्रतिशत सात रह गया है। पिछले तीन दशकों में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार नहीं बन पाई। 

बड़ी चुनौती
राहुल गांधी के सामने सबसे बड़ी चुनौती पार्टी को उत्तर प्रदेश में खोई हुई साख वापस लौटाने की है। माना जाता है कि केंद्र का रास्ता यहीं से होकर जाता है। कई जिलों में कोई कमेटी नहीं होने से पार्टी तंत्र खस्ताहाल है। मतदाताओं-कार्यकर्ताओं पर समान रूप से पार्टी की पकड़ ढीली है। पार्टी को पुनर्जीवित करने वाले किसी बड़े चेहरे की कमी भी एक वजहों में से एक है। 

किला ढहने की शुरुआत
एक समय था जब उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की पकड़ बहुत मजबूत थी। लेकिन राम मनोहर लोहिया आंदोलन, मंडल आयोग और भाजपा की हिंदुत्‍व नीति ने राज्य में इस पार्टी का जनाधार खत्म कर दिया। 

पुराना रहा है नाता
यूपी ने भारत और कांग्रेस को जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के रूप में प्रधानमंत्री दिए। यूपी का फूलपुर वही इलाका है जहां से 1952, 1957 और 1962 में जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा चुनाव जीता था। नेहरू का 1964 में अपनी मृत्यु तक सीट पर कब्जा रहा। इसके बाद 1967 में उनकी बहन विजयलक्ष्मी पंडित इस सीट पर काबिज रहीं। वहीं रायबरेली सीट से इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी सांसद बने थे। और बाद में उनकी बहू और राजीव गांधी की पत्नी सोनिया गांधी ने 2004 में यह सीट जीती। 2009 और वर्तमान में 2014 के चुनावों के बाद भी यह सीट उन्हीं के पास है। अमेठी सीट भी नेहरू-गांधी परिवार के पास है। 1980 में जनता पार्टी के रवींद्र प्रताप सिंह को हराकर इंदिरा गांधी के छोटे बेटे संजय गांधी यहां से सांसद बने थे। बाद में उनकी मृत्यु के बाद उपचुनाव में इस सीट से जीत हासिल कर उनके बड़े भाई राजीव गांधी सांसद बने। 1991 में उनकी हत्या तक राजीव गांधी ने अमेठी का प्रतिनिधित्व किया। बाद में 2004 से अब तक उनके बेटे और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अमेठी के सांसद हैं।

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