जानिए कैसे कृत्रिम बारिश करवाकर दिलाई जाएगी गैस चैंबर बनते शहरों को निजात
कृत्रिम बारिश की मदद से हवा के जहरीले कणों की सघनता कम हो जाएगी जिससे यहां की हवा सांस लेने योग्य हो जाएगी। कृत्रिम बारिश के लिए इसरो एयरक्राफ्ट दे रहा है।
अभिषेक कुमार सिंह। दिल्ली एनसीआर में छाई जहरीली धुंध और वायु प्रदूषण ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। हवा इतनी जहरीली हो चुकी है कि उसमें सांस लेना कई गंभीर बीमारियों की वजह बन सकता है। विशेषज्ञ चेतावनी दे चुके हैं कि अगर हालात जल्द न सुधरे तो स्थिति भयावह हो सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने दीपावली पर सख्ती दिखाकर पटाखों से होने वाले प्रदूषण पर काबू पाने की कोशिश की, लेकिन ये उपाय नाकाफी साबित हुए। वायु प्रदूषण के जो हालात दिल्ली से लेकर लखनऊ और कानपुर तक में बने हैं, उनमें जरूरी हो गया है कि इस भयावहता पर नियंत्रण के लिए जो कुछ हो सकता है, वह सब कुछ किया जाए। वाहनों के सम-विषम फॉमरूले के अलावा दिल्ली-एनसीआर में निर्माण कार्यो पर बैन, सड़कों पर पानी का छिड़काव, कूड़ा जलाने पर पाबंदी और जेनरेटर सेट पर रोक जैसे उपाय भी किए जा रहे हैं। लेकिन प्रदूषण थमता हुआ न देख एक विचार कृत्रिम बारिश कराने का भी है।
कृत्रिम बारिश
दावा किया जा रहा है कि आइआइटी कानपुर की मदद से दिल्ली में कृत्रिम बारिश कराई जाएगी। इसके लिए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के प्रोजेक्ट पर आइआइटी ने तैयारी पूरी कर ली है। कृत्रिम बारिश की मदद से हवा के जहरीले कणों की सघनता कम हो जाएगी जिससे यहां की हवा सांस लेने योग्य हो जाएगी। कृत्रिम बारिश के लिए इसरो एयरक्राफ्ट दे रहा है। भारतीय मौसम विज्ञान केंद्र ने इसके लिए आइआइटी कानपुर को आंकड़ा उपलब्ध कराया है। अनुकूल बादल और हवा मिलते ही दिल्ली में कृत्रिम बारिश कराई जाएगी। कृत्रिम बारिश को विज्ञान की भाषा में क्लाउड सीडिंग कहा जाता है। ऐसी बारिश कराने के लिए छोटे आकार के रॉकेटनुमा यंत्र केमिकल भर कर आकाश में दागे जाते हैं। विमानों, हेलिकॉप्टर और ड्रोन से भी ऐसी बारिश कराने के प्रयोग सफल हुए हैं। केमिकल के रूप में सिल्वर आयोडाइड का इस्तेमाल किया जाता है। यह केमिकल आकाश में छितराए हुए बादलों से रासायनिक क्रिया कर बारिश करता है। इस तकनीक के तहत रॉकेट दागे जाने के 45 मिनट में करीब 20 किमी के दायरे में बारिश होती है।
पहले भी हुई है कृत्रिम बारिश
भारत में इस तकनीक से पहली बार 2003 में महाराष्ट्र की 22 तालुकाओं में बारिश कराई गई थी और इस पर सरकार ने करीब साढ़े पांच करोड़ रुपये खर्च किए थे। इसमें संदेह नहीं कि पिछले कुछ समय से दुनिया में कृत्रिम बारिश के लिए क्लाउड सीडिंग तकनीक में काफी दिलचस्पी ली जा रही है। खास तौर से जो देश पानी की कमी झेल रहे हैं वहां जलाशयों को भरने के लिए इस तकनीक को आजमाया जा रहा है। 1940 के दशक में अमेरिका में इस तकनीक को इस्तेमाल में लाना शुरू किया गया था और आज करीब 60 देशों में इससे बारिश कराने के छिटपुट प्रयोग हो रहे हैं। अमेरिकी कंपनी वेदर मॉडिफिकेशन एनकॉर्पोरेशन कई देशों में क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट चला रही है। कृत्रिम बारिश की एक नई तकनीक का प्रयोग 1990 के दशक में दक्षिण अफ्रीका में किया गया था। वहां हाइग्रोस्कोपिक क्लाउड सीडिंग का ईजाद किया गया जिसमें बादलों में सोडियम, मैग्नीशियम और पोटैशियम जैसे रसायनों का छिड़काव करके बारिश कराई जाती है। हाल के वर्षो में इसे लेकर चीन और भारत में काफी दिलचस्पी दिखाई गई है। बीजिंग ओलंपिक 2008 के दौरान चीन में जमा हुए बादलों से कृत्रिम बारिश करवाकर खेल आयोजन के वक्त आसमान साफ रखने का प्रयास किया गया था। फिलहाल चीन सालाना करीब डेढ़ करोड़ डॉलर कृत्रिम बारिश पर खर्च कर रहा है।
कृत्रिम बारिश कराने की अपनी मुश्किलें
असल में कृत्रिम बारिश कराने की अपनी मुश्किलें है। जरूरी नहीं कि इस तकनीक से कहीं भी कभी बारिश कराई जा सके। अलग-अलग इलाकों में बादलों की बनावट अलग होती है। उस खास इलाके के मौसम को समझकर ही कृत्रिम बारिश का फैसला लिया जाता है। सर्दी में बादलों के भीतर पानी की बूंदें बहुत कम होती हैं। ऐसी स्थिति में क्लाउड सीडिंग तकनीक से कृत्रिम बारिश की कोशिश नाकाम होने की आशंका अधिक रहती है। अति उत्साह में आकर दिल्ली-एनसीआर में कृत्रिम बारिश कराने की कोशिश के नुकसानदेह नतीजे भी आ सकते हैं। नमी और पानी से भरे बादलों में रसायनों का छिड़काव यहां के स्मॉग में मौजूद जहरीले तत्वों की बारिश करा सकता है जो वर्षा को एसिड रेन में बदल सकता है। यह तकनीक कुदरत के सामने तो कोई चुनौती पेश नहीं कर रही है, जैसी यह आशंका निराधार है कि इससे एक जगह का पानी दूसरी जगह बरस जाए और किसी स्थान पर सूखा पड़ जाए। लेकिन चीन में कृत्रिम बारिश कराने के तौर-तरीकों को लेकर इसीलिए सवाल उठते रहे हैं, क्योंकि इससे गैस चैंबर में बदल चुके शहरों में कोई बारिश सामान्य वर्षा न रहकर एसिड रेन में बदल जाती है जो ज्यादा नुकसानदेह साबित होती है।
प्राकृतिक बारिश
यह समझने वाली बात है कि प्रकृति ने बारिश करने की जो व्यवस्था बनाई है वह अमूमन जमीन और पूरे वातावरण को सेहतमंद बनाती है। इसके लिए जमीन पर हरियाली लाने के उपाय करना और वायु प्रदूषण पर अंकुश लगाने की पहल करना तो उचित है, लेकिन स्थान की प्रवृत्ति, हालात और जरूरत को समङो बिना कृत्रिम बारिश कराना जानलेवा भी साबित हो सकता है। खेतों में जलाई गई पराली, दीपावली पर जलाए गए पटाखों के रासायनिक धुएं, कारखानों से निकले वायु प्रदूषण और वाहनों से निकली जहरीली गैसों और तत्वों ने दिल्ली-एनसीआर की हवा को जहरीले कॉकटेल में बदल दिया है। इन हालात में कृत्रिम बारिश हमारी मुसीबतों को और बढ़ा सकती है। असल में सड़कें साफ करना, पेड़-पौधे लगाना और वाहनों से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम करना एक बात है, लेकिन कृत्रिम बारिश के सहारे वायु प्रदूषण पर लगाम लगाने के बारे में सोचना अलग पहल है जिसके फायदे कम, नुकसान ज्यादा नजर आते हैं।

सरकार की गंभीरता
इसी तरह अन्य जिन उपायों को अमल में लाने पर सरकार गंभीरता दिखा रही है, वे भी प्रदूषण का प्रबंधन करते ज्यादा नजर आ रहे हैं निदान नहीं। जैसे इस बार भी दिल्ली सरकार ने संकेत दिया है कि जीवाश्म ईंधन के जलने से होने वाले प्रदूषण की रोकथाम के लिए दिल्ली में एक बार फिर ऑड-ईवन सिस्टम लागू किया जा सकता है। इस योजना में कारों के साथ ही दोपहिया वाहनों को भी शामिल करने की योजना है यानी उन्हें भी सम-विषम नंबर के आधार पर दिल्ली में सम-विषम तिथियों को चलाने की इजाजत होगी। सम-विषम फॉमरूले के पिछले प्रयोगों ने साबित किया है कि इसके नतीजे उत्साहजनक नहीं रहे। बल्कि इसका नुकसान ही दिखा, क्योंकि लोगों ने अलग नंबर वाले दूसरे वाहन खरीद लिए।
अर्बन हीट
आबादी के बोझ से कराहते और सुविधाओं के नाम पर भयानक प्रदूषण झेलते हमारे देश के ज्यादातर बड़े शहरों को कुछ वर्षो में एक नई समस्या ने घेर लिया है। इस समस्या को वैज्ञानिकों ने ‘अर्बन हीट’ करार दिया है। यह अर्बन हीट महज गर्मियों में ही नहीं, बल्कि सर्दियों में भी समस्या बन रही है। इसने असल में शहरों को एक तरह से गर्माते हीट चैंबरों में बदलकर रख दिया है। इस अर्बन हीट पर एक नजर पिछले साल तब गई थी जब यूएस जर्नल प्रोसिडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज ने दुनिया के 44 शहरों में बढ़ते तापमान पर रिपोर्ट प्रकाशित की थी। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि वर्ष 1979 से 2005 के बीच दिल्ली, मुंबई और कोलकाता जैसे महानगरों की आबादी के सामने अर्बन हीट को झेलने का खतरा चार गुना बढ़ गया है। एक चेतावनी भी दी गई थी कि अब शहरियों को इस अर्बन हीट के साथ रहने और लगातार उसका खतरा सहन करना सीखना होगा।

अर्बन हीट का अहसास
अर्बन हीट का एक अहसास वर्ष 2018 की शुरुआत में सर्दियों के दौरान अमेरिकन जियोफिजिकल यूनियन के जियोफिजिकल रिसर्च लेटर जर्नल में प्रकाशिक एक रिसर्च पेपर ‘अर्बन हीट आइलैंड ओवर दिल्ली पंचेज होल्स इन वाइडस्प्रेड फॉग इन द इंडो-गैंगेटिक प्लेन्स’ से हो गया था। इसमें बताया गया था कि देश की राजधानी में पिछले 17 सालों के मुकाबले प्राकृतिक कोहरे का सबसे कम असर इसलिए हुआ, क्योंकि यहां पैदा हुए प्रदूषण और गर्मी ने कोहरे में छेद कर दिए थे। दिल्ली ही नहीं दुनिया के कई शहरों में प्रदूषण के कारण सर्दियों में कोहरे की सघनता में भारी कमी देखी गई। आइआइटी मुंबई और देहरादून स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ पेट्रोलियम एंड एनर्जी स्टडीज ने अमेरिकी स्पेस एजेंसी नासा के 17 सालों के उपग्रह डाटा का विश्लेषण कर कोहरा छंटने की प्रक्रिया को फॉग होल नाम देते हुए बताया था कि इस साल दिल्ली में जनवरी में 90 से ज्यादा फॉग होल हो गए थे। शोधकर्ताओं ने कहा था कि शहरों की गर्मी कोहरे को जला रही है जिससे ग्रामीण इलाके के मुकाबले शहरों का तापमान पांच डिग्री तक ज्यादा हो जाता है। इस शहरी लू के कारणों का भी पता लगाया गया। बताया गया कि शहरों में निर्माण कार्यो, हरित पट्टी में गिरावट और कंक्रीट से तैयार हो रही संरचनाओं के कारण जमीन के अंदर की गर्मी सतह के करीब फंसकर रह जाती है।
हीट-ट्रैपिंग ग्रीनहाउस यानी गैस चैंबरों
सच्चाई यही है कि दिल्ली-मुंबई समेत देश के 23 शहरों की करीब साढ़े 11 करोड़ आबादी की जरूरतों के मद्देनजर हुए शहरीकरण और उसकी जरूरतों ने शहरों को हीट-ट्रैपिंग ग्रीनहाउस यानी गैस चैंबरों में बदल डाला है। ये शहर क्यों ऐसे बन गए हैं इसकी कुछ स्पष्ट वजहें हैं। जैसे कम जगह में ऊंची इमारतों का अधिक संख्या में बनना और उन्हें ठंडा, जगमगाता व साफ-सुथरा रखने के लिए बिजली का अंधाधुंध इस्तेमाल करना। भवनों को मौसम से लड़ने के लिए वातानुकूलित बनाना और कारों आदि का बढ़ता इस्तेमाल। खाने-पीने की चीजों को ठंडा रखने वाले रेफ्रीजरेटर कितनी ज्यादा गर्मी अपने आसपास फेकते हैं इसका अंदाजा इनके पास खड़े रहने से हो जाता है।
शहरी लू से कैसे निपटे
शहरों की बदल अगर किसी शहर में एक वक्त में करोड़ों एसी-फ्रिज चल रहे हों पेट्रोल-डीजल से चलने वाली कारें ग्रीनहाउस धुएं के साथ गर्मी भी वातावरण में घोल रही हों तो शहरों में नकली रूप से पैदा होने वाली इस गर्मी की संहारक क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है। सवाल है कि इस शहरी लू से कैसे निपटा जाए। अभी तक सामान्य मौसमी बदलावों से मुकाबले के लिए जो साधन और उपाय आजमाए जा रहे हैं उनमें कोई फेरबदल लाए बगैर संभव नहीं है कि हम इसका मुकाबला कर पाएं। शहरीकरण की योजनाओं के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। पर अफसोस है कि अभी हमारे योजनाकार देश की आबादी की बढ़ती जरूरतों और गांवों से पलायन कर शहरों की ओर आती आबादी के मद्देनजर आवास समस्या का ही समाधान खोज रहे हैं, उनके सामने शहरों की आबोहवा को बिगाड़ने वाली चीजों का कोई खाका ही मौजूद नहीं है।
(लेखक एफआईएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)
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