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जानिये फिर क्‍या हुआ था जब 25 साल पहले मिले थे सपा और बसपा

25 साल पहले 1993 में समाजवादी पार्टी अध्‍यक्ष मुलायम सिंह यादव और बसपा अध्‍यक्ष कांशीराम ने समझौता किया और भाजपा को दोबारा सत्‍तारूढ़ होने से रोक दिया था।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 11 Jan 2019 06:07 PM (IST)Updated: Fri, 11 Jan 2019 06:07 PM (IST)
जानिये फिर क्‍या हुआ था जब 25 साल पहले मिले थे सपा और बसपा
जानिये फिर क्‍या हुआ था जब 25 साल पहले मिले थे सपा और बसपा

नई दिल्‍ली, जेएनएन। अब जब पूरे देश 2019 में चुनाव को लेकर शंखनाद हो चुका है, ऐसे में लोगों की निगाहें मुख्‍य रूप से उत्‍तर प्रदेश की ओर लगी है क्‍योंकि इस प्रदेश में सबसे ज्‍यादा 80 सीटें आती हैं और इस प्रदेश की केंद्र में सरकार गठन में मुख्‍य भूमिेका होती है। इसके मद्देनजर अब सपा-बसपा और रालोद का गठबंधन होने जा रहा है। ऐसे में 25 साल पहले 1993 में समाजवादी पार्टी अध्‍यक्ष मुलायम सिंह यादव और बसपा अध्‍यक्ष कांशीराम ने समझौता किया और भाजपा को दोबारा सत्‍तारूढ़ होने से रोक दिया था।

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जब मुलायम और कांशीराम ने किया था गठबंधन
1992 में अयोध्‍या में विवादास्‍पद ढांचा गिराये जाने के बाद तत्‍कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उत्‍तर प्रदेश चुनाव के मुहाने पर खड़ा था। भाजपा को पूरा भरोसा था कि राम लहर उसे आसानी से दोबारा सत्ता में पहुंचा देगी। उस समय बसपा सुप्रीमो कांशीराम और सपा के अध्‍यक्ष मुलायम सिंह यादव की नजदीकियां चर्चा का केंद्र बन रही थीं। दोनों पार्टियों ने पहली बार चुनावी गठबंधन किया और बीजेपी के सामने मैदान में उतरीं। इस दौरान एक नारा ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जयश्री राम’प्रदेश की राजनीति का केंद्र बन गया।

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सपा को 109 और बसपा को मिलीं 67 सीटें

1993 में उत्‍तर प्रदेश की 422 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे। इनमें बसपा और सपा ने गठबंधन करके चुनाव लड़ा था। बसपा ने 164 प्रत्याशी उतारे थे, जिनमें से 67 प्रत्याशी जीते थे। सपा ने इन चुनावों में अपने 256 प्रत्याशी उतारे थे। इनमें से उसके 109 जीते थे। बीजेपी जो 1991 में 221 सीटें जीती थी, वह 177 सीटों तक ही पहुंच सकी। मामला विधानसभा में संख्या बल की कुश्ती तक खिंचा तो यहां सपा और बसपा ने बीजेपी को हर तरफ से मात देते हुए जोड़तोड़ कर सरकार बना ली। मुलायम सिंह दूसरी बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हुए।

सपा-बसपा गठबंधन ने चार दिसंबर 1993 को सत्ता की बागडोर संभाल ली। बसपा इससे पहले यूपी में आठ से दस सीटें जीती थी। 1993 में सपा के साथ गठबंधन करने से बसपा ने 67 सीटों पर विजय प्राप्त की। कांशीराम ने पार्टी उपाध्यक्ष मायावती को उत्तर प्रदेश की प्रभारी क्या बनाया, वे पूरा शासन ही परोक्ष रूप से चलाने लगीं। मुलायम पर हुक्म चलाती थीं। मुलायम को यह स्वीकार नहीं था। उन्होंने पहले जनता दल, सीपीएम और सीपीआई के विधायकों को तोड़ा और फिर अपना खुद का बहुमत करने के लिए बसपा पर डोरे डाले।

गेस्‍टहाउस कांड के बाद दोनों पार्टियों में हो गईं दूरियां
लेकिन, आपसी मनमुटाव के चलते 2 जून, 1995 को बसपा ने सरकार से किनारा कर लिया और समर्थन वापसी की घोषणा कर दी। इस वजह से मुलायम सिंह की सरकार अल्पमत में आकर गिर गई। इसके बाद 3 जून, 1995 को मायावती ने बीजेपी के साथ मिलकर सत्ता की बागडोर संभाली। 2 जून 1995 को उत्‍तर प्रदेश की राजनीति में गेस्टहाउस कांड हुआ।

मायावती खुद कई बार कह चुकी हैं कि उस कांड को कभी वह नहीं भूल सकती हैं। कहा जाता है कि मायावती को 'डराने' के लिए दो जून, 1995 को स्टेट गेस्ट हाउस कांड करवाया गया। कथित तौर पर सपा के लोगों ने मायावती पर हमला किया और 12 बसपा विधायकों के जबरन उठा कर ले गए।

1991 से शुरू हुई थी मुलायम और कांशीराम की नजदीकियां
कहा जाता है कि 1991 के आम चुनाव में इटावा में जबरदस्त हिंसा के बाद पूरे जिले के चुनाव को दोबारा कराया गया था। तब बसपा सुप्रीमो कांशीराम मैदान में उतरे. मौके को भांपते हुए मुलायम सिंह यादव ने यहां कांशीराम की मदद की। इसके एवज मे कांशीराम ने बसपा से कोई प्रत्याशी मुलायम के खिलाफ जसवंतनगर विधानसभा से नहीं उतारा।

लोकसभा के उपचुनाव में हुई थी कांशीराम की जीत
1991 में हुए लोकसभा के उपचुनाव में बसपा प्रत्याशी कांशीराम को 1 लाख 44 हजार 290 मत मिले और उनके समकक्ष बीजेपी प्रत्याशी लाल सिंह वर्मा को 1 लाख 21 हजार 824 वोट ही मिले। वहीं मुलायम सिंह की अपनी जनता पार्टी से लड़े रामसिंह शाक्य को मात्र 82,624 मत ही मिले थे।

1991 में इटावा से जीत के दौरान मुलायम का कांशीराम के प्रति यह आदर अचानक उभर कर सामने आया था, जिसमें मुलायम ने अपने खास की कोई खास मदद नहीं की। इस हार के बाद रामसिंह शाक्य और मुलायम के बीच मनुमुटाव भी हुआ, लेकिन मामला फायदे और नुकसान के कारण शांत हो गया। कांशीराम की इस जीत के बाद उत्तर प्रदेश में मुलायम और कांशीराम की जो जुगलबंदी शुरू हुई, इसका लाभ यूपी में 1993 में मुलायम सिंह यादव की सरकार बनने के रूप में सामने आई।

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कांशीराम का सफरनामा (1934-2006)
बहुजनों के नायक माने जाने वाले कांशीराम का जन्‍म 1934 में पंजाब में हुआ था। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर के बाद कांशीराम को दलित आंदोलन का सबसे बड़ा नेता माना जाता है। 1957 में डीआरडीओ में असिस्‍टेंट साइंटिस्‍ट के रूप में करियर शुरू करने वाले कांशीराम ने सामाजिक सुधारक के रूप में सबसे पहले 1978 में बामसेफ और 1981 में दलित शोषित समाज संघर्ष समिति (DS-4) का गठन किया था। उसके बाद 1984 में राजनीतिक दल के रूप में बसपा का गठन किया।  यूपी में इस पार्टी को जबरदस्‍त सफलता मिली और मायावती चार बार यूपी की मुख्‍यमंत्री बनीं। कांशीराम ने 2001 में मायावती को सार्वजनिक रूप से अपना राजनीतिक उत्‍तराधिकारी घोषित कर दिया था। 

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मुलायम सिंह यादव का सफरनामा(1939-)  
सपा के संरक्षक और पूर्व अध्‍यक्ष मुलायम सिंह यादव ने अपनी जीवटता के बारे में जाने जाते हैं और उन्‍हें नेताजी के नाम से जाना जाता है। 22 नवंबर 1939 को इटावा जिले के सैफई में जन्मे मुलायम सिंह की पढ़ाई-लिखाई इटावा, फतेहाबाद और आगरा में हुई। मुलायम कुछ दिनों तक मैनपुरी के करहल स्थ‍ित जैन इंटर कॉलेज में प्राध्यापक भी रहे।

पांच भाई-बहनों में दूसरे नंबर पर मुलायम सिंह की दो शादियां हुईं। पहली पत्नी मालती देवी का निधन मई 2003 में हो गया था। यूपी के मौजूदा सीएम अखि‍लेश यादव मुलायम की पहली पत्नी के बेटे हैं। मुलायम की दूसरी पत्नी हैं साधना गुप्ता। फरवरी 2007 में सुप्रीम कोर्ट में मुलायम ने साधना गुप्ता से अपने रिश्ते कबूल किए तो लोगों को मुलायम सिंह की दूसरी पत्नी के बारे में पता चला। साधना गुप्ता से मुलायम के बेटे प्रतीक यादव हैं। मुलायम सिंह 1967 में 28 साल की उम्र में जसवंतनगर से पहली बार विधायक बने। जबकि उनके परिवार का कोई राजनीतिक बैकग्राउंड नहीं था।

मुलायम संघट सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर आरपीआई के उम्मीदवार को हराकर विजयी हुए थे। मुलायम को पहली बार मंत्री बनने के लिए 1977 तक इंतजार करना पड़ा, जब जनता सरकार बनी। मुलायम सिंह 1980 में उत्तर प्रदेश में लोक दल के अध्यक्ष बने, जो बाद में जनता दल का हिस्सा बन गया। मुलायम 1989 में पहली बार उत्तर प्रदेश के सीएम बने। नवंबर 1990 में केंद्र में वीपी सिंह की सरकार गिर गई तो मुलायम सिंह चंद्रशेखर की जनता दल (समाजवादी) में शामिल हो गए और कांग्रेस के समर्थन से सीएम की कुर्सी पर बने रहे। अप्रैल 1991 में कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया तो मुलायम सरकार गिर गई।

1991 में यूपी में मध्यावधि चुनाव हुए, जिसमें मुलायम सिंह की पार्टी हार गई और बीजेपी यूपी में सत्ता में आई। चार अक्टूबर, 1992 को लखनऊ के बेगम हजरत महल पार्क में मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बनाने की घोषणा की। नवंबर 1993 में यूपी में विधानसभा के चुनाव होने थे। सपा मुखिया ने बीजेपी को दोबारा सत्ता में आने से रोकने के लिए बहुजन समाज पार्टी से गठजोड़ किया। 

कांग्रेस और जनता दल के समर्थन से मुलायम सिंह फिर सत्ता में आए और सीएम बने। सपा को राष्ट्रीय पहचान दिलाने के लिए मुलायम ने केंद्र की राजनीति का रुख किया। 1996 में मुलायम सिंह 11वीं लोकसभा के लिए मैनपुरी सीट से चुने गए। उस समय केंद्र में संयुक्त मोर्चा की सरकार बनी तो उसमें मुलायम शामिल थे। मुलायम देश के रक्षामंत्री बने थे। हालांकि, यह सरकार बहुत लंबे समय तक चली नहीं। मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनाने की भी बात चली थी, लेकिन लालू यादव और अन्‍य ने उनके इस इरादे पर पानी फेर दिया। इसके बाद चुनाव हुए तो मुलायम सिंह संभल से लोकसभा में वापस लौटे। असल में वे कन्नौज भी जीते थे, लेकिन वहां से उन्होंने बेटे अखिलेश यादव को सांसद बनाया।

2003 के विधानसभा चुनाव में सपा को जीत हासिल हुई। 29 अगस्त 2003 को मुलायम सिंह यादव एक बार फिर यूपी के मुख्यमंत्री बने। यह सरकार चार साल ही रह पाई। 2007 में विधानसभा चुनाव में मुलायम सत्ता से बाहर हो गए। 2009 के लोकसभा चुनाव में सपा की हालत खराब हुई तो मुलायम सिंह ने बड़ा फैसला लिया। विधानसभा में नेता विपक्ष की कुर्सी पर छोटे भाई शिवपाल यादव को बिठा दिया और खुद दिल्ली की कमान संभाल ली।

2012 के चुनाव से पहले नेताजी ने अपने बेटे अखिलेश यादव को उत्तर प्रदेश सपा की कमान सौंपी। 2012 के विधानसभा चुनाव में सपा ने जीत हासिल  की। नेताजी ने बेटे अखि‍लेश यादव को सूबे के सीएम की कुर्सी सौंप दी। 2014 के लोकसभा चुनाव में मुलायम सिंह मैनपुरी और आजमगढ़ दोनों जगहों से जीत हासिल की। उन्‍होंने आजमगढ़ सीट अपने पास रखी। बाद में उनके पुत्र अखिलेश यादव ने मुलायम सिं‍ह को विधानसभा चुनावों से पहले सपा के अध्‍यक्ष पद से हटा कर खुद पार्टी की कमान संभाल ली। इसको लेकर उन्‍होंने अपने बेटे की आलोचना की।      


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