क्या संभव हो पाएगी भारत समेत दूसरे देशों में रह रहे तिब्बती शरणार्थियों की वतन वापसी
जो तिब्बती शरणार्थी भारत समेत कई देशों में बिखरे पड़े हैं, क्या उनकी कभी अपने देश वापसी होगी? इसका उत्तर साठ वर्षो के दौरान न चीन ने दिया, न ही तिब्बतियों की निर्वासित सरकार ने।
नई दिल्ली [पुष्परंजन]।साठ साल पहले दलाई लामा अपने अनुयायियों के साथ भारत पधारे थे। 31 मार्च, 2018 को इसकी स्मृति में एक बड़ा आयोजन धर्मशाला में हुआ। नाम दिया गया ‘थैंक यू इंडिया’। इस अवसर पर दुनिया के मुख्तलिफ हिस्सों से लोगों ने सवाल उठाए कि जो तिब्बती शरणार्थी भारत समेत कई देशों में बिखरे पड़े हैं, क्या उनकी कभी अपने देश वापसी होगी? यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है, जिसका उत्तर साठ साल में न चीन ने दिया, न ही तिब्बतियों की निर्वासित सरकार ने। सेंट्रल तिब्बतन एडमिनिस्ट्रेशन के ‘राष्ट्रपति’ लोबसांग सांगे ने यह जरूर कहा कि तिब्बत में हमारी विरासत को चीन बर्बाद कर रहा है, दलाई लामा की पोताला पैलेस में सम्मानित वापसी के लिए दुनियाभर के तिब्बतियों को एकजुट होना होगा। इस समारोह में केंद्र सरकार की ओर से पर्यटन मंत्री महेश शर्मा और भारतीय जनता पार्टी का प्रतिनिधित्व राम माधव कर रहे थे। दोनों महानुभावों ने दलाई लामा की शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक तरीके से तिब्बत वापसी की वकालत की। दिलचस्प है कि नए विदेश सचिव विजय केशव गोखले ने 22 फरवरी, 2018 को कैबिनेट सचिव पीके सिन्हा को एक एडवाइजरी भेजा था कि भारत स्थित तिब्बतियों के समारोह में सरकार के किसी वरिष्ठ नेता या अधिकारी को भाग नहीं लेना चाहिए।
विदेश सचिव विजय गोखले ने क्या यह सुझाव विदेश मंत्री को भरोसे में लेकर दिया था? मगर इस तरह की एडवाइजरी को यदि सरकार के मंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी के बड़े नेता नहीं मानते हैं तो कई सवाल उठेंगे। विदेश सचिव की मंशा चीन से किसी नए विवाद को टालने जैसी दिखती है। खैर! अतीत की ओर चलते हैं। 22 फरवरी, 1940 को जब ल्हासा में 14वें दलाई लामा तेंजिंग ग्यात्सो का राज्याभिषेक हुआ तब वे पांच साल के बालक थे। 17 नवंबर, 1950 को वे पंद्रह वर्ष के हो चुके थे, उस दिन उन्हें गेलुग शासन के राजनीतिक फैसले लेने का अधिकार मिल चुका था। तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के शासक की हैसियत से दलाई लामा के कई पत्र ‘पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना’ को भेजे जाते रहे। 27 सितंबर, 1954 को चीनी संसद ‘नेशनल पीपुल्स कांग्रेस’ की स्टैंडिंग कमेटी के ‘वॉइस चेयरमैन’ दलाई लामा बनाए गए।
यह दर्शाता है कि तत्कालीन चीनी सरकार दलाई लामा को तिब्बत में बहैसियत शासक की मान्यता दे रही थी, लेकिन च्यांगकाई शेक तिब्बत में प्रतिरूपी प्रशासक नहीं, प्रत्यक्ष चीनी आधिपत्य चाहते थे। 14वें दलाई लामा को तख्तापलट का अंदाजा हो चुका था। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू से इस वास्ते 1956 में मदद भी मांगी थी। दस्तावेज बताते हैं कि पंडित नेहरू ने 1954 में चीन से हुई संधि का हवाला देकर प्रत्यक्ष मदद देने से इन्कार कर दिया था। पंडित नेहरू नहीं चाहते थे कि इसे लेकर चीन से टकराव आरंभ हो जाए। इस बीच सीआइए के ‘स्पेशल एक्टिविटी डिवीजन’(एसएडी) ने दलाई लामा के तिब्बत से पलायन का इंतजाम किया। उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति आइजनहॉवर संभवत: पंडित नेहरू को समझा पाने में सफल हुए थे कि तिब्बत की निर्वासित सरकार भविष्य में चीन पर ‘अंकुश’ का काम करेगी।
31 मार्च, 1959 को दलाई लामा तिब्बत से महाभिनिष्क्रमण यानी पलायन कर गए थे। बाद में जनवरी 1961 में राष्ट्रपति निक्सन सत्ता में आए तो तिब्बत की निर्वासित सरकार को और भी फंड व ताकत मिली। 1959, 1961 और 1965 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में तिब्बत से संबंधित तीन प्रस्ताव पास किए गए। 21 सितंबर, 1987 को अमेरिकी कांग्रेस में तिब्बत को शांति क्षेत्र बनाने संबंधी पांच सूत्री प्रस्ताव पर भी मुहर लगी। इसे लेकर चीन की भृकुटि तनी रही। तिब्बत को केंद्र में रखकर सीआइए जो कुछ कर रही थी, उसे रूसी एजेंसियां ‘काउंटर’ तो नहीं कर पा रही थीं, मगर समय-समय पर उन गतिविधियों पर से पर्दा उठाने का काम क्रेमलिन की तरफ से होता रहा।
रूसी इतिहासकार दिमित्रि बर्खोतुरोव ने कई सारे दस्तावेजों के आधार पर खुलासा किया कि यूएस कांग्रेस ने एक लाख 80 हजार डॉलर 1964 के ड्राफ्ट बजट में आवंटित किया था। तिब्बत आंदोलन में सीआइए की कितनी गहरी दिलचस्पी रही है, उसका सबसे बड़ा उदाहरण पश्चिमी नेपाल सीमा से लगा तिब्बत का खाम प्रदेश है, जहां 1959 में खंफा युद्ध हुआ था। इसके लिए अमेरिका के कोलराडो स्थित कैंप हाले में 2100 खंफा लड़ाके लाए गए और उन्हें गुरिल्ला युद्ध की ट्रेनिंग देकर नेपाल के बरास्ते वापस खाम भेजा गया। इस पूरे कार्यक्रम में नौ लाख डॉलर के खर्चे की मंजूरी अमेरिकी कांग्रेस से ली गई थी। बदलते वक्त के साथ सीआइए का सहयोग कम होता गया है।16 जुलाई, 2019 को 14वें दलाई लामा 83 साल के हो जाएंगे। उनके तेवर उम्र के साथ ढीले पड़ने लगे हैं। उनमें बदलाव दो दशक पहले से आरंभ था।
21 सितंबर, 1987 को जर्मनी के स्ट्रैसबर्ग में परम पावन ने पांच सूत्री मध्य मार्ग का प्रस्ताव दिया था। जिसमें पूरे तिब्बत को शांति क्षेत्र घोषित करने, चीनी मूल के हान वंशियों को कहीं और शिफ्ट करने, तिब्बत में मानवाधिकार, तिब्बत को नाभिकीय कचरे का ठिकाना बनाने से परहेज करने जैसे लीपापोती वाले प्रस्ताव थे। ऐसे प्रस्ताव से तिब्बत स्वतंत्र हो जाएगा, ऐसा दलाई लामा का कोई अंधभक्त ही सोच सकता है। दलाई लामा कुछ वर्षो से धर्मगुरु का ब्रांड लेकर विचरण करते रहे हैं, लेकिन उनकी धार्मिक यात्र पर भी चीन को आपत्ति है। बड़ा सवाल यह है कि इस समय सीआइए तिब्बत के मामले में कितना सक्रिय है? और ट्रंप प्रशासन दलाई लामा के बारे में क्या सोचता है? ट्रंप व्यापारी नेता हैं और वे स्पष्ट कर चुके हैं कि दुनिया का राजनीतिक मानचित्र बदलने के लिए अमेरिकी टैक्स पेयर्स का पैसा अब और नहीं गलाएंगे।
[लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं]
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