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    परिवार की हत्या के बाद कैसे दिल्ली पहुंचे थे Milkha Singh, 40 साल तक CWG में रहे एकमात्र भारतीय एथलीट

    By Jagran NewsEdited By: Geetika Sharma
    Updated: Sun, 18 Jun 2023 08:57 AM (IST)

    Milkha Singh 18 2021 भारतीय एथलीट मिल्खा सिंह ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया था। इस मौके पर हम उनके जीवन की महान पलों को आपसे शेयर करने जा रहे हैं। बंटवारे के समय माता-पिता समेत बहनों की हत्या होने के बाद वे दिल्ली आ गए थे।

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    some unknown facts of Milkha Singh life

    नई दिल्ली, स्पोर्ट्स डेस्क। भारतीय एथलेटिक्स में एक ऐसा नाम मिल्खा सिंह जो सदियों तक सुनहरे अक्षरों में लिखा जाएगा। भारत- पाकिस्तान के बंटवारे से पहले मुजफ्फरगढ़ से दस मील दूर गोविंदपुरा गांव में जन्में मिल्खा सिंह ने छोटी सी उम्र में आंखों से काफी बड़ी-बड़ी चीजें देखी। बंटवारे के समय उनकी दो बहनों और एक बाई समेत माता-पिता की हत्या हो गई। इसके बाद वह दिल्ली पहुंचे, जहां वे कुछ दिनों तक अपनी बहन ईश्वर कौर के घर में रहे।

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    सेना में एथलीट बनने का लगा चस्का-

    गरीबी और रोजगार का कोई सहारा न होने के चलते 1951 में मिल्खा सिंह ने गलत रास्ता अपनाने का फैसला कर लिया था। इस बीच एक रिश्तेदार ने उन्हें सेना में शामिल होने की सलाह दी और सेना में भर्ती होने की तैयारी करने लगे। चौथे बार कोशिश करने पर वे सेना में शामिल हो गए।

    मिल्खा सिंह इलेक्ट्रिकल और मैकेनिकल सेंटर सिकंदराबाद में तैनात थे। सेना में भर्ती होने के बाद उनकी एथलेटिक्स में रूचि पैदा हुई। दूध और अंडों के लालच में उन्होंने दौड़ में भाग लेना शुरू किया, लेकिन जल्द ही दौड़ना उनके लिए जुनून बन गया।

    एथलीट चार्ल्स जेनकिंस ने किया प्रोत्साहित-

    इस दौरान एक क्रॉस कन्ट्री रेस में भाग लेते हुए मिल्खा सिंह ने छठा स्थान प्राप्त किया और उन्हें स्पेशल ट्रेनिंग के लिए चुना गया। मिल्खा सिंह बताते थे कि मैं दूर गांव लड़का था और मुझे एथलेटिक्स या ओलंपिक के बारे में कुछ नहीं पता था।

    इसके बाद मिल्खा सिंह ने कई रेस में भाग लिया और विजेता बने, लेकिन 1956 में उन्होंने 200 मीटर और 400 मीटर रेस में ओलंपिक में भाग लिया। इस  दौरान वह प्रसिद्ध एथलीट चार्ल्स जेनकिंस से मिले, जिन्होंने उन्हें अच्छा प्रशिक्षण लेने के लिए प्रोत्साहित किया और उन्हें एक अच्छा एथलीट बनने के कुछ टिप्स भी दिए।

    1958 के बाद मिल्खा सिंह ने कभी पीछे नहीं देखा-

    मिल्खा सिंह ने जेनकिंस के सुझाव पर अमल करते हुए 1958 में एशियन गेम्स में 200 और 400 मीटर रेस में गोल्ड मेडल जीता। इसके बाद मिल्खा सिंह ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा और वह आगे ही बढ़ते गए। मिल्खा सिंह को सेना में सब फ्लाइंग सिख कहकर बुलाते थे।

    इसके बाद मिल्खा ने इसी साल कॉमनवेल्थ गेम्स में फिर गोल्ड मेडल जीता। 1962 में एशियन गेम्स में 400 मीटर और 400 मीटर रिले दौड़ में गोल्ड मेडल जीतकर देश का सुनहरे अक्षरो में लिखवाया। 1964 के कॉमनवेल्थ गेम्स में वह सिल्वर मेडल जीतने में सफल रहे।

    40 साल तक कॉमनवेल्थ गेम्स में एकमात्र भारतीय-

    लगभग 40 सालों तक कॉमनवेल्थ मेम्स में फलाइंग सिंह गोल्ड मेडल जीतने वाले एकमात्र भारतीय एथलीट थे। 2014 में विकास गौड़ ने कॉमनवेल्थ गेम्स में गोल्ड मेडल जीतकर मिल्खा सिंह की बराबरी की। 1960 के ओलंपिक में मिल्खा सिंह चौथे स्थान पर रहे। पहले स्थान पर रहने वाले अमेरिका के ओटिस डेविस ने जर्मनी के कार्ल कॉफमैन को हराया था।

    मिल्खा सिंह ने 1962 में वॉलीबॉल चैंपियन निर्मल कौर से शादी की और उनकी तीन बेटियां और एक बेटा पैदा था। मिल्खा के बेटे जीव मिल्खा सिंह विश्व प्रसिद्ध गोल्फ खिलाड़ी हैं। उनकी पत्नी निर्मल कौर कोरोना की शिकार हुईं और 13 जून को उनका निधन हो गया। ठीक पांच दिन बाद 18 जून 2021 की रात मिल्खा सिंह ने भी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया।

    मिल्खा सिंह पर बनी फिल्म-

    1958 में उन्हें बहुत मेहनत के बाद भारतीय सेना द्वारा जेसीओ बनाया गया और नौकरी के बाद उन्हें पंजाब सरकार द्वारा खेल निदेशक के पद से नवाजा गया, जहां वह 1998 में सेवानिवृत्त हुए। 2013 में मिल्खा सिंह ने अपनी बेटी के साथ आत्मकथा 'द रेस ऑफ माई लाइफ' लिखी, जिसके आधार पर बॉलीवुड फिल्म निर्माता राकेश ओमप्रकाश मेहरा ने फरहान अख्तर के साथ 'भाग मिल्खा भाग' फिल्म बनाई, जो एक रिकॉर्ड सफलता बन गई। इस फिल्म ने सौ करोड़ रुपये से अधिक की कमाई की।

    भाग मिल्खा मिल्खा भाग ने जीते कई अवॉर्ड-

    इस फिल्म ने प्रसिद्ध आईफा अवॉर्ड और राष्ट्रीय पुरस्कार जीता। 2014 में संस्था ने उन्हें पांच पुरस्कार देकर सम्मानित किया। मशहूर 'मैडम तुसाद म्यूजियम' में मिल्खा सिंह का मोम का पुतला भी लगाया गया। 1958 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री सम्मान से सम्मानित किया, लेकिन कुछ निजी कारणों से उन्होंने 2001 में दिए गए 'अर्जुन पुरस्कार' को स्वीकार करने से इनकार कर दिया।