विचार: आर्थिक अस्थिरता भी बढ़ा सकता है यह युद्ध
इजरायल जिस तरह ईरान के अन्य परमाणु ठिकानों को निशाना बना रहा है, उसके कारण इसकी आशंका बढ़ गई है कि ईरान प्रतिरोध के साथ संहारक के रूप में भी आक्रामक परमाणु मुद्रा अपना सकता है।
आर्थिक अस्थिरता भी बढ़ा सकता है यह युद्ध
आदित्य सिन्हा। पश्चिम एशिया में तनाव फिर से भड़ककर सीधे युद्ध में बदल गया। लगता है अस्थिरता ही इस क्षेत्र की पहचान बन गई है। ईरान- इजरायल के बीच सैन्य टकराव बढ़ते ही तेल की कीमतें आसमान चढ़ने लगीं। इस क्षेत्र में व्यापक खेमेबाजी एवं प्रतिद्वंद्विता ने विभाजन की रेखाओं को गहरा कर दिया है।
अब तो इजरायल और ईरान, दोनों एक-दूसरे की राजधानी पर बमबारी में लगे हैं। जहां पूरी दुनिया यही उम्मीद लगाए बैठी है कि यह तूफान भी जल्द थम जाए, वहीं सच यह है कि लड़ाई का दायरा बढ़ते ही जोखिम भी बढ़ते जाएंगे। इस कारण वैश्विक मोर्चे पर आर्थिक दुष्प्रभाव आसन्न दिखते हैं। वैसे तो ईरान और इजरायल लंबे समय से छद्म लड़ाई में उलझे हुए हैं, पर अब वह प्रत्यक्ष युद्ध में बदल गई है।
धुंधलाती रेखाओं के बीच छिटपुट गलतियां पूरे क्षेत्र को युद्ध की जद में धकेल सकती हैं। परमाणु संघर्ष के साये को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता। ईरान की जिस यूरेनियम संवर्धन इकाई को बमबारी से ध्वस्त किया गया, वह अब भी संचालन की स्थिति में बताई जाती है। कहा जा रहा है कि ईरान महज कुछ हफ्तों के भीतर परमाणु बम बनाने लायक यूरेनियम संवर्धित कर सकता है।
इजरायल जिस तरह ईरान के अन्य परमाणु ठिकानों को निशाना बना रहा है, उसके कारण इसकी आशंका बढ़ गई है कि ईरान प्रतिरोध के साथ संहारक के रूप में भी आक्रामक परमाणु मुद्रा अपना सकता है। यदि ऐसा होता है तो एक अंतहीन सिलसिला शुरू हो सकता है, जिसमें सऊदी अरब से लेकर तुर्किये तक शामिल हो सकते हैं। लंबे समय से ठंडे बस्ते में पड़ी परमाणु होड़ के नए सिरे से तेज होने का जोखिम बढ़ सकता है।
इजरायल और ईरान से इतर सीरिया भी लड़ाई का एक अखाड़ा पहले से बना है। उसे लेकर तुर्किये और इजरायल भिड़े हुए हैं। असद शासन के पतन के बाद तुर्किये जहां सीरिया में अपनी सैन्य मौजूदगी बढ़ा रहा है, वहीं इजरायल को यह रास नहीं आ रहा है। दोनों जुबानी जंग में भी उलझे हैं। इजरायल समर्थित और तुर्किये विरोधी कुर्दिश मिलिशिया भी एक खिलाड़ी है। एक समय खाड़ी देशों और ईरान के बीच छद्म युद्ध का मैदान बना सीरिया अब त्रिकोणीय संघर्ष का मंच बन गया है।
पश्चिम एशिया में सारी उथल-पुथल उस इलाके में चल रही है, जहां से वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति के तार जुड़े हुए हैं। ईरान के दक्षिणी तट के निकट एक संकरे स्थान होरमुज स्ट्रेट से ही विश्व के करीब एक तिहाई तेल की ढुलाई होती है। टकराव बढ़ने से इसमें गतिरोध या आपूर्ति के बंद होने का जोखिम बढ़ जाता है। हैरानी नहीं कि ईरान पर इजरायल के हमलों के तुरंत बाद तेल की कीमतें करीब नौ-दस प्रतिशत तक बढ़ गईं। यह यूक्रेन युद्ध के बाद तेल की कीमतों में आई सबसे बड़ी तेजी है। ब्रेंट क्रूड करीब 75 डालर प्रति बैरल के स्तर पर पहुंच गया। यदि ईरान के तेल इन्फ्रास्ट्रक्चर पर इजरायली हमले जारी रहे तो यह भाव 100 डालर प्रति बैरल तक भी पहुंच सकता है।
यदि कोई मिसाइल सऊदी आयलफील्ड पर गिर जाए या ईरान होरमुज स्ट्रेट बंद कर दे तो स्थितियां और बिगड़ सकती हैं। तब कीमतें 120 डालर प्रति बैरल को पार कर सकती हैं। बाजार पर बढ़ती तेल कीमतों का असर दिखने लगा है। इजरायली मुद्रा शेकेल दबाव में है तो जार्डन से लेकर मिस्र जैसे तमाम देशों में बांड पर प्रतिफल भी प्रभावित हुआ है। खाड़ी देशों विशेषकर दुबई और अबूधाबी के शेयर बाजार में रियल एस्टेट, विमानन और बीमा कंपनियों के शेयरों में गिरावट देखी जा रही है। निवेशक सोना, चांदी जैसे सुरक्षित विकल्पों का रुख कर रहे हैं। राजनीतिक जोखिम बढ़ने के साथ ही पूंजी पलायन और अस्थिरता का खतरा भी बढ़ता जा रहा है। यह तब है, जब यह संकट अपनी आरंभिक अवस्था में है। यदि यह और ज्यादा बढ़ता है तो वित्तीय मोर्चे पर कहीं ज्यादा बड़े झटके लगेंगे।
कूटनीतिक कवायद ने स्थिति को और अनिश्चित बना दिया है। ट्रंप ने ईरान पर सख्ती बढ़ाने और इजरायल का साथ देना तय किया है। सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात जैसे देश सतर्कता बरत रहे हैं। ईरान के प्रतिकार में वे भले ही दबे-छिपे तरीके से इजरायल का समर्थन करें, पर उन्हें इसकी भी चिंता है कि यह टकराव कहीं उनकी सीमा तक न आ पहुंचे। रियाद यह नहीं भूल सकता कि 2018 में जब ईरान से तेल खरीदने वालों को राहत देने के लिए अमेरिका के अनुरोध पर उसने अपना उत्पादन बढ़ाया, तो उसकी कीमतें बहुत गिर गई थीं। इस बार खाड़ी देश यह नहीं चाहते।
भारत के लिए ईरान-इजरायल जंग के क्या निहितार्थ हैं? पहला और स्वाभाविक प्रभाव तो ऊर्जा मोर्चे पर है। भारत अपनी आवश्यकता का 80 प्रतिशत से अधिक तेल आयात करता है, जिसमें बहुलांश हिस्सेदारी खाड़ी देशों की है। यदि कच्चे तेल की कीमतें 100 डालर प्रति बैरल से ऊपर जाती हैं तो पेट्रोल-डीजल की कीमतें बढ़ने के साथ ही महंगाई तेजी पकड़ेगी। इससे परिवहन, निर्माण से लेकर खाद्य वस्तुएं प्रभावित होंगी। दूसरा प्रभाव व्यापार में गतिरोध से जुड़ा है। चूंकि भारत के व्यापार का एक बड़ा हिस्सा अरब सागर और होरमुज स्ट्रेट के जरिये होता है, इसलिए वहां अस्थिरता बढ़ने का असर उर्वरक, रसायन और इलेक्ट्रानिक्स जैसी अन्य अनेक वस्तुओं की आपूर्ति पर पड़ सकता है। तीसरा बिंदु वित्तीय प्रभाव से जुड़ा है।
पश्चिम एशिया में टकराव लंबा खिंचने से रुपये पर दबाव बढ़ सकता है, जिससे रिजर्व बैंक के लिए मौद्रिक नीति की राह फिसलन भरी हो जाएगी। शेयर बाजार भी इसकी तपिश महसूस करेगा। खासतौर से एविएशन और लाजिस्टिक्स जैसे क्षेत्रों को इसकी मार झेलनी होगी। निवेशकों का भरोसा और पूंजी प्रवाह की दशा-दिशा प्रभावित होने के साथ ही आर्थिकी पर दबाव बढ़ेगा। इस सबसे निपटने के लिए भारत ने अभी तक संतुलित कूटनीतिक रणनीति अपनाई है। उसने ईरान, इजरायल और खाड़ी देशों को साधने के प्रयास किए हैं। टकराव बढ़ने पर नई दिल्ली के लिए चुनौतियां भी बढ़ जाएंगी। तटस्थता का भाव रखते हुए रणनीतिक हितों की पूर्ति, भारतवंशियों की सलामती और ऊर्जा सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिहाज से यह बड़ी परीक्षा की घड़ी है।
(लेखक लोक-नीति विश्लेषक हैं)
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