विचार: आवश्यक है मतदाता सूचियों का पुनरीक्षण, वयस्क मताधिकार लोकशाही का मूल सिद्धांत
चुनाव आयोग ने मतदाता सूची के पुनरीक्षण की घोषणा की है, जिसका विपक्षी दलों ने विरोध किया है। उनका आरोप है कि इससे अल्पसंख्यक और वंचित वर्ग मताधिकार से वंचित हो सकते हैं। वयस्क मताधिकार लोकतंत्र का मूल सिद्धांत है, और मतदाता सूची का पुनरीक्षण आवश्यक है ताकि गैर-नागरिकों के नाम हटाए जा सकें। यह सुनिश्चित करना चुनाव आयोग का दायित्व है कि कोई भी गैर-नागरिक मतदाता सूची में शामिल न हो।

डा. हरबंश दीक्षित। चुनाव आयोग ने 12 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआइआर अभियान शुरू करने का एलान किया है। इस घोषणा के साथ ही विपक्षी दलों ने इसका विरोध भी शुरू कर दिया है। विपक्षी दल सत्तारूढ़ दल पर बड़ी संख्या में वैध मतदाताओं विशेष रूप से अल्पसंख्यक और वंचित वर्गों के नाम सूची से हटाने का आरोप लगा रहे हैं।
उनका कहना है कि पुनरीक्षण के दौरान आधार कार्ड या दस्तावेजों की मांग से कई लोग मताधिकार से वंचित हो सकते हैं, इसलिए यह मनमाना और भेदभावपूर्ण है। पुनरीक्षण के लिए दी गई सीमित समयसीमा को लेकर भी आपत्ति है। कुछ लोगों का मानना है कि इतनी बड़ी संख्या में मतदाताओं के सत्यापन के लिए दिया गया कम समय प्रक्रिया को त्रुटिपूर्ण बना सकता है, जिससे वास्तविक मतदाता छूट सकते हैं।
संविधान के अनुच्छेद-324 में चुनाव आयोग को चुनाव प्रक्रिया के अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार दिया गया है। चुनाव आयोग इसके लिए मतदाता सूची को लगातार पुनरीक्षित करता रहता है ताकि नए मतदाताओं का नाम जोड़ सके और जो मतदाता नहीं रहे, उनका नाम हटाया जा सके। सर्वोच्च न्यायालय ने ‘लक्ष्मी चरन सेन बनाम एकेएम हसन’ (1985) मामले में स्पष्ट किया था कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण निरंतर चलते रहने वाली एक प्रक्रिया है और स्वस्थ लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि यह अनवरत चलती रहे।
वयस्क मताधिकार हमारी लोकशाही का मूल सिद्धांत है। संविधान के अनुच्छेद-326 में उल्लिखित है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर होंगे। ऐसा प्रत्येक भारतीय नागरिक जो 18 वर्ष की उम्र पूरी कर चुका है, जो विधानमंडल द्वारा बनाए गए किसी कानून द्वारा अयोग्य नहीं ठहराया गया है, वोट देने का पात्र है। अनुच्छेद-326 में दिए गए अधिकार का प्रयोग करते हुए संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 बनाया।
इस कानून में मतदाता सूची को तैयार करने के संबंध में व्यापक उपबंध हैं। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा 16(1)(ए) में कहा गया है कि जो व्यक्ति भारत का नागरिक नहीं है, उसे मतदाता सूची में पंजीकृत नहीं किया जा सकेगा। इसे स्पष्ट करते हुए धारा-16(2) में कहा गया है कि यदि ऐसे किसी व्यक्ति का नाम, जो भारत का नागरिक नही है, यदि मतदाता सूची में पंजीकृत भी कर लिया गया है तो भी उसका नाम मतदाता सूची से निकाल दिया जाएगा।
चूंकि किसी मतदाता का नाम देश में किसी एक स्थान पर ही पंजीकृत हो सकता है, इसलिए मतदाता सूची का पुनरीक्षण करते समय यह सुनिश्चित किया जाता है कि वह उस स्थान का ‘सामान्यत: निवासी’ हो जहां पर उसका नाम हो।
लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1950 की धारा-20 इसकी विस्तार से व्याख्या करती है। इसमें यह स्पष्ट किया गया है कि किसी निर्वाचन क्षेत्र में घर होने मात्र से ही कोई व्यक्ति वहां का ‘सामान्यत: निवासी’ नहीं मान लिया जाएगा, अपितु कुछ अपवादों को छोड़कर उसे यह भी साबित करना पड़ेगा कि वह व्यावहारिक रूप से उसी निर्वाचन क्षेत्र में निवास भी करता है। धारा-21 के अंतर्गत मतदाता सूची का पुनरीक्षण करते समय जमीनी स्तर के अधिकारियों को सुनिश्चित करना होता है कि मतदाता भारत का नागरिक हो तथा वह उस जगह पर सामान्यत: निवास करता हो।
निर्वाचन प्रक्रिया की जीवंतता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि मतदाता सूची का पुनरीक्षण लगातार होता रहे और आवश्यकतानुसार नए मतदाताओं का नाम जुड़ता रहे तथा उन मतदाताओं का नाम मतदाता सूची से हटाया जाता रहे, जो भारत के नागरिक नहीं हैं और सामान्यत: उस निर्वाचन क्षेत्र में निवास नहीं कर रहे हैं। न्यायबोध सुनिश्चित करना लोकशाही का प्रमुख कर्तव्य होता है।
अत: मतदाता पुनरीक्षण के मामलों में भी इसे लेकर विशेष सावधानी बरती जाती है कि नाम जोड़ते समय या हटाते समय किसी के साथ अन्याय न हो। इसके लिए धारा-24 में कहा गया है कि यदि कोई मतदाता इस तरह से तैयार की गई मतदाता सूची से असंतुष्ट है तो वह जिला मजिस्ट्रेट या अन्य नियत प्राधिकारी के समक्ष अपील कर सकता है, ताकि किसी विसंगति को सुधारा जा सके। उसके बाद भी यदि कोई व्यक्ति असंतुष्ट है तो अनुच्छेद-226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय का विकल्प भी खुला हुआ है।
मतदाता सूची के पुनरीक्षण के समय आधार कार्ड जैसे दस्तावेजों की प्रासंगिकता से जुड़े विवाद लगातार आ रहे हैं। आधार (वित्तीय और अन्य सब्सिडी, लाभ और सेवाओं का लक्षित वितरण) अधिनियम-2016 की धारा 9 में उल्लिखित है कि केवल आधार नंबर या उसका प्रमाणीकरण ही किसी व्यक्ति के अधिवास या नागरिकता का स्वत: प्रमाण नहीं माना जाएगा।
इसका अर्थ है कि किसी व्यक्ति की नागरिकता को साबित करने के लिए संविधान और नागरिकता आधिनियम की शर्तों को पूरा करना होगा। सुप्रीम कोर्ट ने ‘डा. योगेश भारद्वाज बनाम उत्तर प्रदेश’ (1990) मामले की सुनवाई में स्पष्ट किया कि वैध रूप से भारत में रहने वाले व्यक्ति ही अधिवासी माने जाएंगे और यदि कोई व्यक्ति आव्रजन कानून का उल्लंघन करते हुए कहीं पर रहता है तो उसे देश का निवासी नहीं माना जा सकता।
यह भारत के चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है कि वह सुनिश्चित करे कि किसी गैर-नागरिक का नाम मतदाता सूची में शामिल न हो सके। इसलिए यदि किसी मतदाता की पात्रता पर कोई संदेह है तो इस संवैधानिक संस्था की जिम्मेदारी है कि उसकी सम्यक जांच करे। यदि ऐसा नहीं होता तो यह संवैधानिक निर्देशों का उल्लंघन जैसा होगा।
इस प्रक्रिया में मतदाता सूची का पुनरीक्षण केवल औपचारिक प्रशासनिक प्रक्रिया नहीं, अपितु संविधान के उदात्त उद्देश्यों का पूरा करने का पुनीत कर्तव्य भी है। इसमें यदि किसी भी तरह की चूक या त्रुटि संविधान के अनुच्छेद-14 (1)(ए) और अनुच्छेद-21 का उल्लंघन है। अत: हर नागरिक की जिम्मेदारी है कि इसके पुनरीक्षण में सहयोग करे और यदि कोई शिकायत है तो संविधान और कानून मे दिए गए उपबंधों के अनुसार आगे बढ़े।
(लेखक तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय, मुरादाबाद के विधि संकाय में डीन हैं)

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