राजनीतिक इस्लाम पर खत्म हो गफलत, विचार-विमर्श के बदले डाला जा रहा पर्दा
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजनीतिक इस्लाम पर महत्वपूर्ण टिप्पणी की है, जो भारत के विभाजन का कारण बना। उन्होंने कहा कि इस विचारधारा पर चर्चा करने के बजाय पर्दा डाला जाता है। वी.एस. नायपाल और डॉ. आंबेडकर ने भी इस विषय पर अपने विचार व्यक्त किए हैं। इस्लामी राजनीति में छल और दिखावे का प्रयोग होता है, और गैर-मुस्लिमों को इसके बारे में जागरूक रहना चाहिए। राजनीतिक इस्लाम के विरुद्ध वैचारिक लड़ाई की आवश्यकता है।

शंकर शरण। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने राजनीतिक इस्लाम पर महत्वपूर्ण बात कही। हमारे कई आधुनिक मनीषियों ने भी इस पर अंगुली रखी थी। राजनीतिक इस्लाम यानी इस्लाम के अनुसार चलने वाली राजनीति के क्रियाकलाप और परिणाम पूरी दुनिया में मूलतः समान रहे हैं। भारत उसका सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है, न केवल पिछले सैकड़ों वर्षों से, बल्कि आज भी।
इसी बिंदु को योगी आदित्यनाथ ने रेखांकित करते हुए कहा, ‘देश में अंग्रेजों के वर्षों तक किए गए उपनिवेशवादी शासन की चर्चा होती है, पर राजनीतिक इस्लाम की कहीं चर्चा नहीं होती, जो आज भी राष्ट्र माता के टुकड़े-टुकड़े करने की मंशा के साथ कार्य कर रहा है।’
भारत-विभाजन का बुनियादी कारण राजनीतिक इस्लाम था। मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना ने राजनीतिक इस्लाम का ही दावा रखा था। उनके शब्दों (22 मार्च, 1940) में, ‘हिंदू और मुसलमान दो भिन्न सभ्यताओं से जुड़े हैं, जिनके विचार और धारणाएं एक-दूसरे से विपरीत हैं। वे भिन्न-भिन्न स्रोतों से अपनी प्रेरणाएं लेते हैं। उनकी प्रेरक कथाएं, नायक और प्रसंग बिल्कुल अलग-अलग हैं। प्रायः एक के लिए जो नायक है, वह दूसरे लिए खलनायक।’
यह देख सकते हैं कि इसमें इस्लामी अलगाव पर आधारित राजनीतिक जिद है, जिसका तोड़ वैचारिक और राजनीतिक दृढ़ता से ही किया जा सकता है, पर यह तभी होगा जब इसकी सही जानकारी हो। राजनीतिक इस्लाम के प्रति गफलत के कारण ही गांधीजी और कांग्रेस ने 1919 में खलीफत आंदोलन को समर्थन देकर अनजाने में इस्लामी अलगाव और दबदबे की मानसिकता को हवा दी।
इस्लामी राजनीति पर विचार-विमर्श के बदले उस पर पर्दा डाला गया, ताकि कांग्रेस नेताओं की भूल छिपाई जाए। इस कारण देश-विभाजन की मांग भी मान ली गई। राजनीतिक इस्लाम पर विचार करने में संकोच के कारण ही उसे यहां वाक-ओवर मिलता रहा है।
योगी आदित्यनाथ के पहले नोबेल पुरस्कृत भारतीय मूल के लेखक वीएस नायपाल ने अपने लेख ‘द राइटर एंड इंडिया’ (1976) तथा अपनी पुस्तक ‘भारत-एक घायल सभ्यता’ (1977) में जिस घाव का वर्णन किया, वह इस्लामी आक्रमणों का दिया घाव है। उनके अनुसार भारत के सिवा कोई सभ्यता ऐसी नहीं, जिसने अपनी बर्बादियों से इतना कम सबक सीखा। जो बातें नायपाल या योगी ने कहीं, उसी को अपने अंदाज में खुद इस्लामी नेता भी कहते रहे हैं।
उनका व्यवहार और कार्ययोजनाएं स्थायी रूप से वही हैं। इस पर डा. भीमराव आंबेडकर ने अपनी पुस्तक ‘पाकिस्तान या भारत का विभाजन’ में लिखा है कि ‘मुस्लिम राजनीति अनिवार्यतः मुल्लाओं की राजनीति है और वह मात्र एक अंतर को मान्यता देती है-हिंदू और मुसलमानों के बीच मौजूद अंतर। जीवन के किसी भी पंथनिरपेक्ष तत्व का मुस्लिम समुदाय की राजनीति में कोई स्थान नहीं है और वे मुस्लिम राजनीतिक जमात के केवल एक ही निर्देशक सिद्धांत के सामने नतमस्तक होते हैं, जिसे मजहब कहा जाता है।’
यह मजहब इस्लाम है और इसीलिए राजनीतिक इस्लाम की कोई अलग किताब नहीं है। मूल इस्लामी पुस्तकों में ही विविध स्थितियों में राजनीतिक रणनीति, कार्यनीति और कूटनीति बताई गई है। काफिर, जिहाद, शरीयत, जिम्मी, जजिया, हराम आदि तमाम मूल धारणाओं का अर्थ केवल कुरान और मोहम्मद साहब की जीवनी से ही समझा जा सकता है। जहां गैर-मुस्लिमों की बड़ी संख्या हो, वहां इसमें छल और दिखावे का प्रयोग मुख्य तत्व होता है। इसमें मुख्य रणनीति शिकायतें करके सत्ता हथियाना होता है।
इस्लामी राजनीति निरंतर शिकायतें करते हुए कपटपूर्वक दबाव बनाती है। जो दिखावे के लिए निर्बल की आशंका का रूप बनाती है, किंतु वास्तव में वह ताकतवर की रणनीति है। अपनी ही परिभाषा से इस्लाम केवल मजहब नहीं, राजनीति भी है। इसके कायदे-कानून गैर-मुस्लिमों (काफिरों) समेत सब पर जबरन लागू करने के लिए बनाए गए हैं। गैर मुसलमानों के प्रति इस्लाम का व्यवहार ही राजनीतिक इस्लाम है।
कुरान और हदीसों में काफिरों के बारे में बहुत कुछ कहा गया है। यह सब काफिरों को जानना चाहिए। वरना वे गफलत में मारे जाते रहेंगे। गत सौ वर्षों से पंजाब, बंगाल, कश्मीर आदि अनेक क्षेत्रों में ऐसा हुआ। यह गंभीरता से समझना चाहिए कि इस्लाम की असली ताकत गैर-मुस्लिमों में उसके प्रति गफलत है। वरना वैज्ञानिक, आर्थिक, सैनिक आदि क्षेत्रों में पूरे विश्व में इस्लामी समाज लगभग शून्य है। राजनीतिक इस्लाम के प्रति दूसरों में आम अज्ञानता के कारण वह शिकायत, कपट और दबाव से हर कहीं सफल होता बढ़ रहा है। यही सौ साल से भारत में और पिछले पचास वर्षों से यूरोप में हो रहा है।
हाल में इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस ने ‘भारत विभाजन की विभीषिका’ पर छपे एक शैक्षिक माड्यूल पर प्रस्ताव पास किया। इसमें ‘राजनीतिक इस्लाम’ शब्द पर आपत्ति की गई थी। मानो यह धारणा ही गलत हो, जबकि इस पर अंतरराष्ट्रीय विद्वानों की अनेक पुस्तकें हैं। हमारे बौद्धिक और नेता राजनीतिक इस्लाम के अस्तित्व से ही इन्कार करते हैं, जो लगातार सदियों से उन पर हमलावर रहा है। कई बार उसके शिकार ही उसके बचाव में आगे खड़े दिखते हैं।
इसी कारण उन्हें योगी आदित्यनाथ या वीएस नायपाल या डा. आंबेडकर की बातें अटपटी लगती हैं, जबकि मुस्लिम नेताओं के आए दिन के बयान साफ दिखाते हैं कि वे गैर-मुसलमानों के साथ किसी भी स्थायी सहअस्तित्व या बराबरी को सिद्धांततः खारिज करते हैं। यही राजनीतिक इस्लाम है। अनेकानेक मुस्लिम देशों में गैर-मुस्लिमों को निचले दर्जे के नागरिक बनने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
पाकिस्तान या बांग्लादेश में हिंदुओं की स्थिति का यही कारण रहा। यदि राजनीतिक इस्लाम के प्रति स्पष्टता रहती तो अधिकांश विभीषिकाएं घटित न होतीं। जैसे सावधानी बरतने से बहुत सी व्याधियों से बचा जाता है, वैसे ही राजनीतिक इस्लाम के प्रति सही जानकारी किसी भी समाज को उसका प्रतिकार करने में समर्थ बनाती है। राजनीतिक इस्लाम के विरुद्ध लड़ाई मुख्यतः वैचारिक-शैक्षिक है, पर काफिर जगत इससे कतराता है।
(लेखक राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)

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