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    स्वार्थ पर टिकी गठबंधन की राजनीति, राजनीतिक दल अपनी सुविधा से गढ़ते हैं परिभाषा

    By Umesh ChaturvediEdited By: Swaraj Srivastava
    Updated: Fri, 17 Oct 2025 11:43 PM (IST)

    बिहार में विधानसभा चुनाव के नज़दीक आते ही गठबंधनों में स्वार्थ की राजनीति देखने को मिल रही है। पार्टियाँ सत्ता पाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हैं, विचारधारा और नैतिकता ताक पर रख दी जाती है। पार्टियाँ अपनी सुविधा के अनुसार गठबंधन बनाती और तोड़ती हैं, जिसका एकमात्र लक्ष्य सत्ता हासिल करना होता है। ऐसे में, गठबंधनों पर भरोसा करना मुश्किल है।

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    बिहार में विधानसभा चुनाव को लेकर इन दिनों जिस तरह दोनों प्रमुख गठबंधनों में खींचतान चलती दिखी, उसने राजनीति के स्वार्थभरे चेहरे को ही उजागर किया। चिराग पासवान पिछली बार राजग से अलग थे, इस बार उसके साथ हैं। उपेंद्र कुशवाहा भी राजग से अलग चले गए थे, लेकिन मोदी-शाह की जोड़ी ने उन्हें फिर से अपने गठबंधन में शामिल कर लिया है। फिर भी गारंटी नहीं कि वे आखिर तक इसी गठबंधन में शामिल रहेंगे।

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    इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि टिकट बंटवारे से वे नाराज हो गए थे। अगर सत्ता की रसधार दूसरी ओर दिखी तो वे अगला कदम भी उठा सकते हैं। कुछ ऐसे ही सियासी विद्रूप का उदाहरण है, राजद, कांग्रेस और सीपीआइ-एमएल का गठबंधन। अपने युवा नेता चंद्रशेखर की हत्या के कारण सीपीआई-एमएल की राजद से वर्षों तनातनी रही, लेकिन अब वह उसके साथ है।

    देश भर के राजनीतिक दल भले ही यह दावा करते हों कि कि वे लोकसेवा के मिशन पर हैं, लेकिन हकीकत में उनका एक मात्र लक्ष्य सत्ता प्राप्ति रह गया है। मौजूदा व्यवस्था में लोकसेवा के व्रत के लिए सत्ता जरूरी हो गई है। यही वजह है कि हर राजनीतिक दल सत्ता में हिस्सेदारी के लिए हरसंभव कोशिश में जुटा रहता है। इसी वजह से आज के गठबंधनों का आधार महज सत्ता प्राप्ति है, वैचारिक और नैतिक नहीं। विचारधारा गठबंधन के हिसाब से बदलती जाती है।

    गठबंधन में शामिल होने या उसे छोड़ने के लिए आज के दल हालात और वक्त के हिसाब से नैतिकता की परिभाषा बेहद चतुराई से गढ़ लेते हैं। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव के वक्त राजद की अगुआई वाले गठबंधन में सीपीआई-एमएल का शामिल होना इसी का उदाहरण है। उसने तब सांप्रदायिकता विरोध का वैचारिक आधार गढ़ा, भले ही इसके लिए उसे अपने होनहार युवा नेता की हत्या की घटना को परे रखना पड़ा।

    स्वाधीन भारत में 1963 में बने पहले गठबंधन का वैचारिक आधार ‘गैर कांग्रेसवाद’ था। 1962 के लोकसभा चुनाव में माकूल माहौल के बावजूद पं. नेहरू के हाथों मिली पराजय ने डा. लोहिया को यह वैचारिकी गढ़ने में मदद दी थी। 1963 के लोकसभा उपचुनावों के नतीजों से ‘गैर कांग्रेसवाद’ का विचार विरोधी राजनीति के वैचारिक आधार के रूप में स्थापित हो गया। इसकी बुनियाद पर समाजवादी दलों और पहले जनसंघ और बाद में भाजपा के गठबंधन 1977 और फिर 1989 में कांग्रेस को चुनावी मैदान में पटखनी देने में कामयाब रहे, लेकिन 1992 के अयोध्या में विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद समाजवादियों का मन बदल गया।

    उन्होंने भाजपा की बढ़ती ताकत को रोकने के लिए उसी कांग्रेस का हाथ थाम लिया, जिसकी सत्ता और नीतियों का विरोध करते हुए वे उभरे। गैर भाजपा गठबंधनों का मुलम्मा सांप्रदायिक राजनीति का विरोध रहा, लेकिन हकीकत में उनका भी मकसद साफ था, कांग्रेस के साथ मिलने वाली सत्ता का स्वाद चखना। आज न जाने कितने ऐसे दल कांग्रेस के साथ हैं, जिन्हें गैर कांग्रेसवाद की उपज माना जाता है।

    पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा और केरल में वामपंथ के उभार के पीछे भी कांग्रेसी नीतियों का विरोध रहा, लेकिन वामपंथी दल आज कांग्रेस के ही साथ हैं। ध्यान देने की बात है कि 1967 में कांग्रेसी सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए वामपंथी राजनीति पंजाब और बंगाल में जनसंघ के साथ रही।

    नया गठबंधन बनाते वक्त राजनीतिक दल चतुराई से शाब्दिक जाल के जरिए नई सैद्धांतिकी गढ़ते हैं। यह सैद्धांतिकी कभी ‘गैर कांग्रेसवाद’ के रूप में सामने आती है और कभी ‘सांप्रदायिकता विरोध’ के नाम पर। राज्यों में उसका ज्यादातर आधार अपराध और भ्रष्टाचार को रोकने का सवाल भी बनता है।

    यदि अगले चुनाव में उस दल विशेष को विरोधी गठबंधन सत्ता से बाहर कर देता है और उस सत्ताधारी गठबंधन में शामिल रहे दल का मिजाज बदल जाता है तो वह उस पार्टी के साथ खड़ा होने में देर नहीं लगाता, जिसके विरोध में वह सत्ताधारी गठबंधन का हिस्सा रहा होता है। इसे समझना हो तो बिहार में मुकेश सहनी और उत्तर प्रदेश में ओम प्रकाश राजभर एवं जयंत सिंह की पार्टियों के कदमों को देखना चाहिए।

    मुकेश सहनी पिछली बार नीतीश कुमार के साथ थे। इस बार लालू यादव के साथी हैं। ओम प्रकाश राजभर पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में भाजपा से दूर चले गए थे और बाद में फिर उसके साथ आ गए। बिहार में नीतीश कुमार की भी कुछ ऐसी ही स्थिति रही है। 1996 में जनता दल से अलग समता पार्टी बनाकर उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया। 2013 में उन्हें मोदी को भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना नहीं भाया तो उन्होंने उससे 17 साल पुराना गठबंधन तोड़ लिया।

    2017 में वे फिर भाजपा के साथ लौट आए, लेकिन जब राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका दिखी तो उन्होंने 2022 में भाजपा से गठबंधन तोड़कर उसी राजद के साथ जाने में देर नहीं लगाई, जिसके खिलाफ उन्होंने अपनी राजनीति खड़ी की थी। यह बात और है कि इस बार रिश्ता दो साल भी नहीं चला। इसके चलते उन्हें पलटूराम की संज्ञा दी गई। पिछले कुछ समय से वे बार-बार कह रहे हैं कि अब कहीं नहीं जाएंगे, लेकिन यह नहीं भूला जाना चाहिए कि राजनीति में न तो स्थाई शत्रुता होती है और न ही मित्रता।

    1989 के आम चुनावों में औपचारिक रूप से महाराष्ट्र में कांग्रेस के विरोध में शिवसेना और भाजपा का गठबंधन हुआ। तब से यह गठबंधन लगातार 2019 तक चलता रहा, लेकिन अगले विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने भाजपा से गठबंधन तोड़ लिया। आज वह उसी कांग्रेस के साथ है, जिसे कभी बाला साहब ठाकरे सोनिया की पंचकड़ी कहते थे। कहा जाता था कि शिवसेना और भाजपा विचारधारा के कारण स्वाभाविक सहयोगी हैं, लेकिन साफ है कि विचारधारा की समानता भी दोनों दलों को साथ नहीं रख सकी।

    गठबंधन राजनीति का जैसा रूप बिहार के मौजूदा चुनाव में दिख रहा है, उसे देखते हुए इस पर भरोसा नहीं किया जा सकता कि दोनों गठबंधन के साथी अब कहीं नहीं जाएंगे। अगर किसी एक गठबंधन को बहुमत नहीं मिला तो हमें नई नैतिक परिभाषा के आधार पर दलों का आवागमन देखने के लिए तैयार रहना चाहिए।

    (लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)