विचार: लोकलुभावन वादों पर टिकी राजनीति, राज्यों की आर्थिक स्थिति को बदहाल बनाती हैं ऐसी घोषणाएं
बिहार में मतदाता सूची के पुनरीक्षण पर कांग्रेस और राजद के आरोपों के बावजूद, सुप्रीम कोर्ट ने प्रक्रिया पर रोक नहीं लगाई। नीतीश कुमार के 20 साल के शासन के बाद, आगामी चुनाव उनके लिए एक परीक्षा है। बिहार में विकास हुआ है, लेकिन निजी निवेश और बेरोजगारी अभी भी बड़ी चुनौतियां हैं। तेजस्वी यादव के लोकलुभावन वादे मुश्किल हैं, और जाति की राजनीति से मुक्त होकर ही राज्य का भला हो सकता है।

संजय गुप्त। बिहार में मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण यानी एसआईआर की प्रक्रिया समापन की ओर है। हालांकि कांग्रेस और राजद ने इस प्रक्रिया के दुरुपयोग के मनगढ़ंत आरोप लगाकर जमकर राजनीति की, लेकिन वह सफल होती नहीं दिखी। वोट चोरी के इन दलों के आरोप हवा-हवाई ही अधिक निकले। इसका प्रमाण यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रक्रिया पर रोक लगाने की मांग खारिज कर दी। यदि वोट चोरी के आरोपों ने कुछ खास असर नहीं दिखाया तो इसका एक प्रमुख कारण यह भी रहा कि जिन वोटरों के नाम कटे हैं, उनमें मुख्यतः मृतकों और अपना ठिकाना बदलने वालों के नाम हैं।
हालांकि विपक्षी दल मतदाता सूची में गड़बड़ी के आरोप अब भी लगा रहे हैं, लेकिन बिहार में ऐसे लोग कठिनाई से मिल रहे हैं, जो यह कह रहे हों कि उनका नाम गलत तरीके से काट दिया गया। जो ऐसे लोग हैं भी, उनका नाम अब भी वोटर लिस्ट में जुड़ सकता है। चुनाव आयोग को बधाई दी जानी चाहिए कि उसने तमाम चुनौतियों और खासकर विपक्षी दलों के दुष्प्रचार के बीच एसआईआर की प्रक्रिया आगे बढ़ाई। चूंकि एसआईआर को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई जारी रहने के बीच चुनाव आयोग ने बिहार में विधानसभा चुनावों की घोषणा कर दी है, इसलिए अब सारा ध्यान अगले महीने होने वाले इन चुनावों पर है।
एक बार फिर नीतीश कुमार और भाजपा गठबंधन की परीक्षा का समय है। नीतीश कुमार पिछले 20 साल से मुख्यमंत्री हैं। इसमें से अधिकांश समय वे भाजपा के सहयोग से ही मुख्यमंत्री रहे हैं। 20 साल का शासन एक लंबा समय होता है। इतनी लंबी अवधि के शासन में सत्ताविरोधी रुझान प्रभावी हो जाता है। देखना है कि जदयू और भाजपा इस प्रभाव की काट करने में सफल रहती हैं या नहीं? पिछली बार जदयू-भाजपा के राजग गठबंधन और राजद-कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन के बीच कांटे का मुकाबला रहा था। कुछ ही सीटों के अंतर से महागठबंधन सत्ता पाने में नाकाम रहा था।
यदि नीतीश कुमार के 20 साल के शासन को देखा जाए तो सामाजिक और आर्थिक विकास के मामले में बिहार में बहुत कुछ बदला है। बुनियादी ढांचे के निर्माण और कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर भी तब्दीली आई है। इसके बावजूद अन्य राज्यों की तुलना में बिहार काफी पीछे है। उसकी गिनती अब भी पिछड़े राज्यों में होती है। इसका एक बड़ा कारण यह है कि बिहार में अपेक्षित निजी निवेश नहीं हो रहा है। बड़े औद्योगिक घराने बिहार में निवेश के लिए आगे नहीं आ रहे हैं। बिहार में जो संपन्नता आई है, वह सब स्थानीय स्तर पर होने वाले कारोबार और सामाजिक विकास की योजनाओं के चलते ही आई है। बिहार में बेराजगारी बड़ी समस्या है। हालांकि बिहार के लोगों के श्रम का कोई सानी नहीं है, लेकिन उनकी समस्या यह है कि उन्हें रोजगार के लिए राज्य से बाहर निकलना पड़ता है।
चुनाव करीब आते ही बिहार की जनता के लिए लोकलुभावन घोषणाओं का दौर शुरू हो गया है। बीते दिनों सबसे बड़ी लोकलुभावन घोषणा तेजस्वी यादव ने की। उन्होंने कहा कि यदि वे सत्ता में आए तो कानून बनाकर 20 महीने के अंदर राज्य के हर परिवार के एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देंगे। यह वादा उनके लिए गले की हड्डी बन सकता है, क्योंकि राज्य के हर परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी देना संभव नहीं। वास्तव में न तो इतने अधिक लोगों को सरकारी नौकरी देना संभव है और न ही उनके लिए वेतन की व्यवस्था करना। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे अनुबंध वाली नौकरियां देने का वादा कर रहे हैं?
जो भी हो, अनुबंध वाली नौकरियों के लिए भी वेतन की व्यवस्था करना आसान नहीं। इससे सरकारी खजाने पर बोझ बहुत अधिक बढ़ जाएगा और कोई भी राज्य तभी आगे बढ़ सकता है, जब वह अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत रखे। लोकलुभावन घोषणाओं की पूर्ति बिहार जैसे गरीब राज्यों के लिए संभव नहीं। राजनीतिक दलों को इस तरह की घोषणाओं से बचना चाहिए, लेकिन समस्या यह है कि बिहार ही नहीं, देश के हर राज्य में चुनावों में लोकलुभावन घोषणाओं का पिटारा खोल दिया जाता है। ये घोषणाएं ही राज्यों की आर्थिक स्थिति को बदहाल बनाती हैं।
बिहार में चुनाव की घोषणा के बाद से दोनों गठबंधनों में सीट बंटवारे को लेकर हाय-तौबा मची हुई है। एक ओर जहां राजद के लिए कांग्रेस एवं अन्य सहयोगी दलों को उनकी ओर से मांगी गई सीटें देना मुश्किल है, वहीं दूसरी ओर राजग को भी चिराग पासवान, जीतन राम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा को संतुष्ट करना कठिन हो रहा है। पिछली बार चिराग पासवान राजग से बाहर आकर चुनाव लड़े थे। उन्होंने नीतीश कुमार को खासा नुकसान पहुंचाया था। इसी तरह महागठबंधन में कांग्रेस बहुत कम सीटों पर जीत हासिल कर पाई थी।
इसका नुकसान महागठबंधन को उठाना पड़ा था। जल्दी ही यह सामने आ जाएगा कि दोनों गठबंधन अपने सहयोगी दलों को कितनी सीटें देकर संतुष्ट कर पाए। चूंकि इस बार राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी भी चुनाव मैदान में है, इसलिए उसकी उपस्थिति भी चुनाव पर असर डालेगी। इसके अतिरिक्त कुछ सीटों पर असदुद्दीन ओवैसी के प्रत्याशी भी अपना असर दिखाएंगे।
बिहार में चुनाव लड़ने जा रहे राजनीतिक दल चाहे जो दावा करें, उनके लिए खुद को जाति-संप्रदाय की राजनीति से अलग कर पाना कठिन है। बिहार जाति की राजनीति के लिए अधिक जाना जाता है, लेकिन इस राजनीति से मुक्त होकर ही राज्य का भला हो सकता है। जब वोट जाति या संप्रदाय के आधार पर नहीं, बल्कि प्रत्याशियों की योग्यता के आधार पर डाले जाएंगे, तभी स्थितियां बदलेंगी। बिहार की स्थितियां बदलें, इसके लिए बिहार के लोगों यानी मतदाताओं को आगे आना होगा। हालांकि नीतीश कुमार विकास को अपना मुख्य चुनावी मुद्दा बता रहे हैं, लेकिन जहां जाति-संप्रदाय की राजनीति पर जोर हो, वहां केवल विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ना और जीतना कठिन होता है।
विकास की बातें महागठबंधन के भी नेता कर रहे हैं, लेकिन यह तय है कि वे अपने जातिगत समीकरणों और विशेष रूप से यादव-मुस्लिम समीकरण के आधार पर ही चुनाव लड़ना पसंद करेंगे। यदि जाति की राजनीति और लोकलुभावन घोषणाओं के सहारे चुनाव लड़े गए तो बिहार को पिछड़े राज्यों की श्रेणी से बाहर लाना और कठिन ही होगा।
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