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    प्रेरणा देता है लोकनायक जेपी का जीवन, गरीबों को हमेशा दी सर्वोच्च प्राथमिकता

    By C. P. RadhakrishnanEdited By: Swaraj Srivastava
    Updated: Fri, 10 Oct 2025 11:20 PM (IST)

    लेख में सीपी राधाकृष्णन ने लोकनायक जयप्रकाश नारायण के जीवन और योगदानों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने बताया कि जेपी ने गरीबों को हमेशा प्राथमिकता दी और लोकतंत्र में जनशक्ति की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जेपी का जीवन चुनौतियों का सामना करते हुए भी परिवर्तन लाने की प्रेरणा देता है। उनकी शिक्षा लोकतांत्रिक मूल्यों, समानता, न्याय और शांति पर आधारित है।

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    सीपी राधाकृष्णन। धर्म, संस्कृति और ज्ञान की भूमि बिहार में गंगा और घाघरा नदियों के संगम पर सिताबदियारा गांव में 11 अक्टूबर, 1902 को लोकतंत्र के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का जन्म हुआ था। इस वर्ष हम संपूर्ण क्रांति के सूत्रधार की 123वीं जन्म-जयंती मना रहे हैं। जेपी के नाम से विख्यात जयप्रकाश नारायण जी राजनेता से बढ़कर राष्ट्रनेता थे, जिन्होंने कभी अपने बारे में नहीं सोचा, बल्कि देश के गरीबों को हमेशा अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता दी।

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    'लोकनायक' की उपाधि उन्हें किसी महान व्यक्ति ने नहीं दी थी। यह उपाधि उन्हें 5 जून, 1974 को पटना के गांधी मैदान में एकत्रित भारत के लाखों लोगों ने प्रेमपूर्वक प्रदान की थी।
    उनके असाधारण जीवन की नींव सिताबदियारा की साधारण पृष्ठभूमि में ही पड़ गई थी। साधारण परिवार में परवरिश ने उन्हें गरीबों की जीवनशैली और उनकी समस्याओं से जुड़े रहने में मदद की। इंटरमीडिएट की शिक्षा के दौरान ही देश में अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे अहिंसक और असहयोग आंदोलन का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उन्होंने सभी से स्वदेशी अपनाने का आग्रह किया।

    बिहार में आरंभिक शिक्षा के बाद अमेरिका में सात वर्षों तक शिक्षा के लिए रहे। इस दौरान वे मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए। हालांकि, भारत लौटने पर उन्होंने मार्क्सवादी दर्शन को भारतीय परिदृश्य के अनुरूप ढालने की व्यवहार्यता का पता लगाया और महसूस किया कि लोकतांत्रिक समाजवाद और सर्वोदय ही भारत की समस्याओं का समाधान हैं। यह व्यावहारिक दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से दर्शाता है कि वे किसी विचारधारा के अनुयायी न होकर समाज में परिवर्तनकारी सुधार और बदलाव चाहने वाले राष्ट्र नेता थे।

    वर्ष 1952 में उन्होंने विनोबा भावे जी के भूदान आंदोलन तथा सर्वोदय के दर्शन को साथ मिलकर, भारत में भूमि संबंधी समस्याओं के एक व्यावहारिक समाधान की कल्पना की। 1954-1973 के दौरान चंबल के दुर्दांत डाकुओं के पुनर्वास और अहिंसक संपूर्ण क्रांति जैसे उनके प्रयासों को दुनिया भर में सराहा गया। वे संपूर्ण मानव जाति और विशेष रूप से भारत के लिए स्वतंत्रता, समानता, भाईचारे और शांति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निरंतर तत्पर रहे।

    'श्रम की गरिमा' से जुड़ी जेपी की समझ एवं संकल्पना सैद्धांतिक न होकर व्यक्तिगत अनुभवों से उपजी थी। अमेरिका में अध्ययन के दौरान उन्हें कई छोटी-मोटी नौकरियों के माध्यम से खुद को आर्थिक सहारा देना पड़ा। 'सीखते हुए कमाई' के अनुभव ने उन्हें श्रमिक वर्ग से जुड़े मुद्दों की गहरी समझ दी, जिससे उनका यह विश्वास और दृढ़ हुआ कि सभी श्रमिक सम्मान, उचित वेतन और मानवीय कार्य परिस्थितियों के हकदार हैं। वे इसी दृढ़ विश्वास के साथ भारत लौटे कि एक न्यायपूर्ण समाज की नींव श्रमिक वर्ग के कल्याण पर टिकी होनी चाहिए। इसी क्रम में 1947 में उन्हें अखिल भारतीय रेलवे कर्मचारी संघ, अखिल भारतीय डाक एवं तार निम्न श्रेणी कर्मचारी संघ और अखिल भारतीय आयुध निर्माणी श्रमिक संघ जैसे तीन प्रमुख कर्मचारी संघों का अध्यक्ष चुना गया।

    उनकी यात्रा स्वतंत्रता आंदोलन तक ही सीमित नहीं रही। वे कभी सत्ता प्राप्ति के मोह में नहीं रहे। उनकी तत्परता सदैव जनसेवा के लिए रही। स्वतंत्रता के कुछ समय बाद ही भीषण सूखे की विभीषिका से जूझ रहे बिहार को राहत देने के लिए जयप्रकाश नारायण जी भूदान आंदोलन के अपने साथियों के साथ राहत कार्यों में जुटे रहे। 'बिहार राहत समिति' के राहत कार्यों से जुड़े रहने के दौरान ही उन्हें आरएसएस के स्वयंसेवकों के 'राष्ट्रसेवा दृष्टिकोण' का प्रत्यक्ष अनुभव हुआ और वे इससे प्रभावित हुए।

    जब लोगों का लोकतंत्र की संस्थाओं से विश्वास उठ रहा था, तब उन्होंने लोकतंत्र की शक्ति में लोगों की आशा और विश्वास को पुनः स्थापित करने के लिए 'संपूर्ण क्रांति' का आह्वान किया। इस आंदोलन का लक्ष्य आदर्श समाज का मानवतावादी संस्करण था। तत्कालीन राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार के विरुद्ध उनकी आवाज ने लोकतंत्र में जनशक्ति की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारत में एक नई व्यवस्था की स्थापना के लिए जनता को प्रेरित करने और जन आक्रोश को दिशा देने की उनकी क्षमता उल्लेखनीय थी। इस आंदोलन के माध्यम से उन्होंने दर्शाया कि लोकतंत्र का अर्थ जनता पर शासन करना नहीं, बल्कि जनता की आवाज बनना है।

    उसी कालखंड में एक 19 वर्षीय युवा के रूप में कोयंबटूर जिला संगठन सचिव के रूप में संपूर्ण क्रांति आंदोलन में योगदान देना मेरे लिए सम्मान और सौभाग्य की बात थी। भारत के इतिहास के उस महत्वपूर्ण मोड़ पर मिले अनुभव ने मुझे एक सक्षम, आत्मविश्वासी और सामाजिक रूप से जागरूक नेता के रूप में परिवर्तित किया। इस आंदोलन ने मेरे भीतर परिपक्वता, नैतिक निर्णय और नागरिक चेतना जैसे नेतृत्व के आवश्यक गुणों को पोषित किया।
    लोकनायक जेपी को याद करते समय उनकी धर्मपत्नी श्रीमती प्रभावती देवी के त्याग और तपस्या को भी मैं याद करना चाहूंगा, जिन्होंने पूरा पारिवारिक जीवन लोकनायक के साथ देश के स्वतंत्रता आंदोलन और उसके बाद जयप्रकाश जी के निःस्वार्थ देश सेवा में लगाया।

    लोकनायक जेपी का जीवन और शिक्षा यह है कि चाहे चुनौतियां कितनी भी कठिन क्यों न लगें, परिवर्तन लाने की जनशक्ति अद्भुत और असाधारण होती है। उनकी शिक्षा लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा और एक ऐसे समाज के निर्माण पर जोर देती हैं, जहां समानता, न्याय और शांति का सर्वोपरि हो। वे एक दूरदर्शी राष्ट्र निर्माता थे, जिन्होंने राजनीतिक स्वतंत्रता को सामाजिक और आर्थिक न्याय से अभिन्न बताया। उनकी शिक्षा, न केवल राजनेताओं को, बल्कि लोकतंत्र, स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों में विश्वास रखने वाले प्रत्येक भारतीय नागरिक को प्रेरित करती हैं।

    क्रांति को अक्सर हिंसा का पर्याय माना जाता है, लेकिन जेपी के नेतृत्व वाली संपूर्ण क्रांति विशुद्ध अहिंसा पर आधारित थी। एक अहिंसक जनांदोलन के माध्यम से उन्होंने एक ऐसे भारत की नींव रखी, जो व्यवस्था और समाज के भीतर मानवतावाद और नैतिकता के मूल्यों पर हमेशा आगे बढ़ता रहेगा।

    आज 11 अक्टूबर को जब हम इस महान नेता को श्रद्धापूर्वक याद करें और उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करें तो हम उस लोकतंत्र के सजग संरक्षक बने रहने का संकल्प भी लें । इस दिन हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम अपने अंतरात्मा को जागृत करें और निस्वार्थ भाव, सेवा और सत्य के साथ देश की बेहतरी के लिए कार्य करें। राष्ट्र निर्माण में उनके योगदान के लिए उन्हें 'भारत रत्न' से सम्मानित किया गया, वे भारत के सच्चे रत्न थे।

    (लेखक भारत के उपराष्ट्रपति हैं)