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    50 साल की लंबी लड़ाई के बाद मिला इंसाफ, ओडिशा हाईकोर्ट ने वन विभाग को लगाई फटकार

    Updated: Thu, 11 Sep 2025 09:16 AM (IST)

    मयूरभंज के दो ठेकेदारों को इंसाफ के लिए 50 साल इंतजार करना पड़ा। 1975-76 में पेड़ काटने की अनुमति मिलने के बाद वन संरक्षण अधिनियम लागू होने से मामला उलझ गया। सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में भुगतान लौटाने का आदेश दिया फिर भी भुगतान नहीं हुआ। अब ओडिशा हाईकोर्ट ने वन विभाग को फटकार लगाते हुए तीन महीने में मुआवजा देने का आदेश दिया है।

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    ओडिशा हाईकोर्ट ने वन विभाग को लगाई फटकार

     जागरण संवाददाता, भुवनेश्वर। इंसाफ के लिए कभी-कभी पूरी जिंदगी बीत जाती है। ऐसा ही हुआ मयूरभंज के दो ठेकेदारों के साथ, जिन्हें अपने हक की लड़ाई लड़ते-लड़ते 50 साल गुजर गए। आखिरकार सोमवार को ओडिशा हाईकोर्ट ने राज्य के वन विभाग को सख्त लहजे में फटकार लगाते हुए ठेकेदारों को मुआवजा देने का आदेश सुनाया।

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    न्यायमूर्ति दिक्षित कृष्ण श्रीपाद ने कहा कि तीन महीने के भीतर ओडिशा फॉरेस्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन या किसी अन्य एजेंसी के जरिए ठेकेदारों को लकड़ी उपलब्ध कराई जाए। साथ ही विभाग पर 2 लाख रुपये का जुर्माना भी लगाया गया। अदालत ने टिप्पणी की

    विलंबित न्याय मानवाधिकारों का सबसे गंभीर उल्लंघन है। न्यायिक प्रक्रिया को समयबद्ध करने के लिए अब नए रास्ते तलाशने होंगे।

    मामला क्या है?

    साल 1975-76 में मयूरभंज जिले के दुधुलियानी जंगल में पेड़ काटने की अनुमति दी गई थी। दो ठेकेदारों ने पेड़ काटने का अधिकार मिलने का दावा किया और मामला अदालत पहुंचा। समझौते के बाद दोनों ने सरकार को भुगतान किया, लेकिन 1980 में वन संरक्षण अधिनियम लागू हो गया, जिससे आरक्षित वनों में पेड़ काटना प्रतिबंधित हो गया।

    मामला निचली अदालत से होते हुए सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा

    सुप्रीम कोर्ट ने 1993 में सरकार को ठेकेदारों का पैसा लौटाने का आदेश दिया, लेकिन विभाग ने राशि नहीं लौटाई।

    50 साल की जद्दोजहद के बाद फैसला

    ठेकेदारों ने फिर हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया। इस बीच एक ठेकेदार की मौत हो गई और उसका वारिस मामले में शामिल हुआ।

    हाईकोर्ट ने आदेश दिया है कि तीन महीने में लकड़ी के मौजूदा बाजार मूल्य के बराबर राशि (ब्याज और देनदारियों की कटौती कर) दी जाए। साथ ही, अदालत ने यह भी कहा कि दोषी अफसरों से यह रकम वसूली जा सकती है।

    न्यायालय की तल्ख टिप्पणी

    न्यायमूर्ति श्रीपाद ने कहा कि भारत में वादी की असली परेशानियां तब शुरू होती हैं जब उसे डिक्री मिल जाती है। लगभग डेढ़ सौ साल पहले 1872 में प्रिवी काउंसिल ने यह कहा था, और अफसोस है कि हालात आज भी वैसे ही हैं।

    उन्होंने आगे कहा कि पांच दशक बीत गए, लेकिन ठेकेदारों की जेब में एक पत्ता तक नहीं पहुंचा। यह स्थिति बेहद दुखद है। न्याय प्रक्रिया को तेज करने के लिए सभी हितधारकों को मिलकर ठोस उपाय करने होंगे।अदालत का यह फैसला न केवल ठेकेदारों के लिए राहत है, बल्कि न्यायिक व्यवस्था को भी आईना दिखाने वाला है।