भगवान महावीर की जयंती पर विशेष: अपने युग के अप्रतिम व निर्भीक पुरुष
Mahavir Jayanti 2022 2621वां भगवान महावीर जन्म कल्याणक पर आज भी प्रासंगिक है भगवान महावीर के सिद्धांत मुनि जिनेश कुमार भगवान महावीर अहिंसा के कोरे व्याख्याकार ही नहीं अपितु प्रयोगकार भी थे उन्होंने केवल अहिंसा का उपदेश ही नहीं दिया बल्कि स्वयं को उन्होंने अहिंसा की प्रयोग भूमि बनाया।

भुवनेश्वर, शेषनाथ राय। भगवान महावीर भारतीय संस्कृति के उज्ज्वल नक्षत्र थे। वे अपने युग के अप्रतिम व निर्भीक पुरुष थे। उन्होंने राजपाट, वैभव व सैन्यसत्ता बल को ठुकराकर आत्म साम्राज्य प्राप्त करने की दिशा में प्रस्थान कर दुनिया के लिए एक महान् आदर्श उपस्थित किया। उन्होंने तीस वर्ष की युवा वय में संन्यास के सुन्दर उपवन में चरणन्यास किया और साढ़े बारह वर्ष तक साधना के सजग प्रहरी बनकर भीषण उपसर्गों परिषहों को जीतकर समता की उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त किया। तत्पश्चात् श्रमण महावीर वीतरागी महावीर, केवली महावीर और तीर्थंकर महावीर बन गए। यह बात जैन मुनि जिनेश कुमार ने दैनिक जागरण को दिए साक्षत्कार में कही है।
जैन मुनि जिनेश कुमार ने कहा कि तीर्थकर महावीर ने जगत को हिंसा, अज्ञान, अन्धश्रद्धा और कुमार्ग से अहिंसा, सम्यग् ज्ञान, सम्यग् श्रद्धा और सुमार्ग की ओर प्रस्थित करने के लिए व भव्य जीवों को तारने के लिए तीर्थ की स्थापना के साथ देशना (प्रवचन) देना प्रारम्भ किया। उनकी देशना अहिंसा से ओत:प्रोत थी। वे अहिंसा के कोरे व्याख्याकार ही नहीं अपितु प्रयोगकार भी थे। उन्होंने केवल अहिंसा का उपदेश ही नहीं दिया बल्कि स्वयं को उन्होंने अहिंसा की प्रयोग भूमि बनाया। अहिंसा की सूक्ष्मता के फल स्वरूप महावीर अहिंसा के और अहिंसा महावीर की पर्याय बन गई। उनके समवसरण में मनुष्य, तिर्यंच, देव सभी प्रकार के प्राणी समस्त वैर- विरोध को भूलकर समानरूप से उपस्थित होते थे। यह सब अहिंसा का ही प्रभाव था। तीर्थकर महावीर अहिंसा के अवतार थे। उन्होंने तीस वर्ष तक भारत की पावन भूमि पर विचरण करते-करते अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह रूप सिद्धान्त त्रयी का प्रतिपादन किया।
भगवान महावीर का प्रथम सिद्धान्त है: अहिंसा
उनकी अहिंसा "मत मारो" तक ही सीमित नहीं है। उनकी अहिंसा आकाश की तरह व्यापक और असीम है। उनकी अहिंसा का अर्थ है -"सव्वे पाणा ण हंतव्वा" प्राणी मात्र के प्रति संयम रखना किसी का भी हनन नहीं करना है। "आय तुले पयासु" अपनी आत्मा के समान दूसरी आत्माओं को समझे, “अत्त समे मन्नेज्ज छप्पिकाए" छः जीव निकाय (पृथ्वीकाय, अपकाय, तेजस काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय, त्रसकाय) को अपनी आत्मा के समान समझे । क्योंकि सभी जीव जीना चाहते है मरना कोई नहीं चाहता। किसी भी जीव को मारने का अधिकार हमें नहीं है। यदि कोई किसी का प्राण हनन करता है, उसका सुख छीनता है, वह हिंसा का भागी है। हिंसा कभी काम्य नहीं है। जहाँ हिंसा है वहाँ अंधकार है और जहां अहिंसा है वहाँ प्रकाश है। अहिंसा ही सभी जीवों के लिए कल्याणकारी है।
भगवान महावीर का दूसरा सिद्धान्त है अनेकान्त
शरीर में जो स्थान मन और मस्तिष्क का है वही स्थान जैन दर्शन में अहिंसा और अनेकान्त का है। अहिंसा आचार प्रधान है तो अनेकान्त विचार प्रधान। अनेकान्त बौद्धिक अहिंसा है। इससे मनोमालिन्य व दूषित विचार नष्ट होते है तथा समता, सहिष्णुता, प्रेम, सहअस्तित्व, समन्वय के विमल विचारों के पुष्प महकने लगते हैं।
अनेकांत का तात्पर्य है जो एकांत नहीं है वह अनेकांत है। प्रत्येक पदार्थ में अनंत धर्म है। वह अनंतगुणों और विशेषताओं को धारणा करने वाला है। इन अनंत गुणों को जानने के लिए अपेक्षा दृष्टि की आवश्यकता रहती है। यह अपेक्षा दृष्टि हि अनेकान्तवाद है। इसे एक उदाहरण के माध्यम से अच्छी तरह समझ सकते है। दो मित्र फलों के बगीचे में गये। वहां उन्होंने वृक्ष से नारंगी तोड़ी और खाने लगे। नारंगी चखते ही पहला मित्र बोला - नारंगी बहुत खट्टी है। इतने में दूसरा मित्र बोला- नारंगी बहुत मीठी है। जब पहले मित्र ने दूसरे मित्र की प्रतिक्रिया सुनी तो वह इस बात पर क्रोधित हो उठा कि वह खट्टी नारंगी को मीठी क्यों । बतला रहा है।
पहले मित्र की बात सुनकर दूसरा मित्र भी क्रोधित हो उठा। या दोनों आपस में उलझ पड़े। दोनों का शोर सुनकर बगीचे का माली उनके पास आया और उसने झगड़े का कारण पूछा तब दोनों ने अपनी अपनी बात माली को कह डाली। माली उनके अज्ञान पर हंसा और बोला- तुम दोनों सही हो। नारंगी खट्टी भी है और मीठी भी है। तब दोनों मित्र एक साथ बोल पड़े यह कैसे हो सकता है। तब माली ने पहले मित्र को नींबू व दूसरे मित्र को आम चखने के लिए दिया। पहला मित्र बोला नींबू बहुत खट्टा है और दूसरा मित्र बोला आम बहुत मीठा है। तब माली बोला आम की अपेक्षा नारंगी खट्टी है और नींबू की अपेक्षा नारंगी मीठी है। अनेकान्त दृष्टि से समस्या का समाधान पाकर दोनों खुश हो गए। एकांगी दृष्टिकोण से आग्रह पनपता है और जहां आग्रह होता है वहाँ विग्रह, बिखराव, विघटन को स्थितियां बन जाती है। जिससे समस्याओं का अंबार लग जाता है। इन सभी परिस्थितियों से उत्पन्न होने वाली समस्याओं का समाधान है भगवान महावीर द्वारा प्ररूपित अनेकान्त सिद्धान्त अनेकांत में वह शक्ति है जो दो विरोधी धर्मों के मध्य सामंजस्य बिठाकर शांति स्थापित कर देती है। इसलिए अनेकान्त को तीसरा नेत्र कहा गया है।
भगवान महावीर का तीसरा सिद्धान्त है अपरिग्रह
परिग्रह अपराध का मूल है। आज दिन तक विश्व में जितने भी युद्ध हुए हैं उनमें मूल कारण परिग्रह ही रहा है। परिग्रह के कारण ही घर-परिवार व समाज में झगड़े होते हैं। परिग्रह हिंसा का कारण है, मोह का आयतन है। ममकार और अहंकार बढ़ाने वाला है।
भ्रष्टाचार, आतंकवाद, उग्रवाद, नक्सलवाद, चोरी, अप्रामाणिकता, धोखाधड़ी तस्करी आदि परिग्रह के ही उपजीवी तत्त्व है। परिग्रह ही अन्याय की जड़ है। सामाजिक असंतुलन भी परिग्रह की असमानता के कारण ही होता है। जिससे वातावरण घृणा, ईर्ष्या प्रतिशोध, वैर आदि से दूषित हो जाता है। और चारों ओर अराजकता व अशांति फैल जाती है।
भगवान महावीर ने अपरिग्रह का सिद्धान्त देकर विश्व शान्ति के द्वार खोल दिये। अगर दुनिया "अपरिग्रहो परमोधर्म" की राह पर चल पड़े तो बड़ी से बड़ी समस्याएं भी पलक झपकते हल हो सकती है। केवल भौतिक सामग्री को ही परिग्रह नहीं कहा गया है बल्कि उनके प्रति होने वाली मूर्च्छा को भी परिग्रह कहा गया है। और यही मूर्च्छा मानव मन को सर्वाधिक परेशान करती है। जितनी अधिक मूर्च्छा होगी उतनी ही अशांति और बैचेनी बढ़ेगी जितनी मूर्च्छा, आकांक्षा और आवश्यकताएं कम होगी धरती पर उतनी ही शांति कायम हो सकेगी।
भगवान महावीर अहिंसा, अनेकान्त और अपरिग्रह के महान प्रयोक्ता थे। उनका जीवन मंगल मैत्री से अनुप्राणित था। उनके कण कण से करुणा का अजसस्र स्त्रोत प्रवाहित होता था। इसीलिए उनके सिद्धान्त ढाई हजार वर्ष बाद भी प्रासांगिक बने हुए हैं। उनके सिद्धान्तों की प्रासंगिकता कभी समाप्त नहीं हो सकती। क्योंकि उनके दिव्यज्ञान से निकले हुए सिद्धान्त समूचे जीव जगत के लिए कल्याणकारी है।
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