गांवों में अब न सुनाई देते ढोल-मंजीरा, न दिखते होरियार
हरदोई : आधुनिकता की दौड़ में त्योहार एवं पर्वों की पारंपरिक गतिविधियां समाप्त होती जा रही हैं। अब होल
हरदोई : आधुनिकता की दौड़ में त्योहार एवं पर्वों की पारंपरिक गतिविधियां समाप्त होती जा रही हैं। अब होली पर ही देखिए, कभी गांवों में होली पर ढोलक, मंजीरा, झांझ एवं चिमटा आदि वाद्ययंत्रों की धुन पर राग एवं गीत की धमार निकलती थी। गांव के लोग न केवल उनका स्वागत करते थे, बल्कि धमार में शामिल झुंड संभ्रान्त लोगों के यहां देर तक ढोल-मंजीरा एवं अन्य वाद्ययंत्रों पर होली के गीतों पर नृत्य करते थे। जहां पर उन्हें सम्मानित भी किया जाता था। अब तो गांव की गलियों में या तो सन्नाटा पसरा मिलेगा या फिर आधुनिक वाद्ययंत्रों पर फिल्मी गीत सुनाई दे जाएंगे।
वसंत के आते ही होली की घर-घर तैयारियां शुरू हो जाती हैं, लोगों में उल्लास और खरीदारी के प्रति ललक दिखाई देनी लगती है। पापड़ से लेकर अन्य व्यंजन तक अब लोगों ने रेडीमेट ही खरीदने शुरू कर दिए हैं। वजह चाहे आधुनिकता हो या फिर समयाभाव। आधुनिकता की दौड़ में अब धुलेंडी के दिन दिखाई देने वाले होरियारों के झुंड नहीं दिखाई देते हैं। कभी ढोल-मंजीरा एवं अन्य वाद्ययंत्रों की धुनों पर थिरकते और गीत गाते होरियारे गांवों में राग-द्वेष को भुलाकर सभी के एक होने का संदेश दिया करते थे। गांव के संभ्रान्त लोगों के घरों पर एकत्र होकर न केवल गीत गाते थे, और जवाबी गीतों की प्रतिस्पर्धा भी होती थी।
फाल्गुन को लेकर यूं ही नहीं कई कहवातें भी मशहूर हैं। वहीं धुलेंडी पर क्या बच्चे, बूढ़े और जवान सभी संकोच और रुढि़यां भूलकर ढोलक, झांझ, मंजीरों एवं चिमटा की आदि की धुन पर गीत गाते हुए नृत्य करते हुए रंगों में डूब जाते थे। वक्त ने तो रफ्तार पकड़ी, लेकिन पारंपरिक गतिविधियां और आपसी मन-मुटाव मिटाने की भावन ही समाप्त हो जाती रही है।
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