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    भारतीयता के मूल में हैं प्रभु श्रीराम, देश का चरित्र कैसा हो यह समझाने के लिए राम को देखना होगा

    Updated: Fri, 19 Jan 2024 07:49 AM (IST)

    राम आए हैं। भारतभूमि में राम सदैव रहे हैं। यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि राम भारतीयता के मूल में हैं। इस देश का चरित्र कैसा होना चाहिए यदि इसे समझना हो तो राम के चरित्र को देखना चाहिए। इसलिए राम केवल आस्था और धर्म के दायरे से नहीं बंधे हैं बल्कि इनसे पार वह भारतीय सभ्यता के शिखर पुरुष भी हैं। राष्ट्रीय चेतना की दशा-दिशा तय करने वाले।

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    इस देश का चरित्र कैसा होना चाहिए, यदि इसे समझना हो तो राम के चरित्र को देखना चाहिए।

    सन्नी कुमार: राम आए हैं। भारतभूमि में राम सदैव रहे हैं। यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि राम भारतीयता के मूल में हैं। इस देश का चरित्र कैसा होना चाहिए, यदि इसे समझना हो तो राम के चरित्र को देखना चाहिए। इसलिए राम केवल आस्था और धर्म के दायरे से नहीं बंधे हैं, बल्कि इनसे पार वह भारतीय सभ्यता के शिखर पुरुष भी हैं। राष्ट्रीय चेतना की दशा-दिशा तय करने वाले। चाहे आदर्श राज्य की बात हो या फिर आदर्श समाज की या फिर संबंधों के आदर्श निर्वहन की, राम हर स्थान पर प्रकाश पुंज की तरह स्थापित हैं। ऐसे में जब राम आ रहे हैं तो यह आशा भी बलवती है कि राम हर क्षेत्र में आएंगे।

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    शासन-प्रशासन से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक में। राम का चरित्र संघर्ष, लोकमंगल और विवेक की त्रिवेणी है। यही त्रवेणी राष्ट्र की भी प्राणवायु है। जिस तरह सामान्य लोगों का जीवन संचालित होता है, वैसे ही भगवान राम का जीवन भी रहा, दुखों से घिरा। दुख के घेरे को संघर्ष और विवेक से तोड़ते हुए कल्याण के भाव को प्राप्त करने की सदिच्छा। राम के व्यक्तित्व को महानता संघर्ष से जूझने की जिजीविषा से प्राप्त होती है। वह दुखों के आगे समर्पण नहीं करते हैं, बल्कि ‘मानुषेन मया जित:’ के भाव से दैव-प्रकोप से टकराते हैं। विजयी होते हैं।

    लोक जीवन भी इसी भाव का आकांक्षी होता है। संघर्ष और विजय के भाव का। इसका उच्चतम रूप हमें राम के यहां मिलता है। इसलिए राम हमारे आदर्श हैं। भारतीय सभ्यता के चितेरे हैं। राम के समग्र जीवन चरित पर गौर किया जाए तो कौन सा दुख रहा जो राम के हिस्से नहीं आया? राजा बनने का समय आया तो काल का चक्र ऐसा घूमा कि न तो राज्य मिला और न अपनी प्रजा की सेवा का अवसर। दुख की आवृत्ति तब और बढ़ती है जब राज्य निष्कासन मिलता है और वह भी अपने पिता की आज्ञा से। एक राजसी वैभव को भोगने का स्वाभाविक उत्तराधिकारी तापसी बनकर जंगल चला जाता है। फिर आता है पितृशोक। भरत जैसे भाई से विछोह। पत्नी का अपहरण और प्राणप्रिय छोटे भाई लक्ष्मण का शक्ति से मूर्छित होना।

    ऐसा लगता है मानो दुखों ने भी राम की शरण में ही अपना आसरा ढूंढ़ लिया हो। इन सब दुखों पर राम विजय पाते हैं। विजय पाने से भी बड़ी बात यह कि वह इसे प्राप्त करते हैं विवेक के रास्ते, धर्म के रास्ते, सत्य के रास्ते, नैतिकता के रास्ते। राम के दुआरे साधन और साध्य दोनों की पवित्रता मिलती है। ऐसा श्रेष्ठ जीवन-व्यवहार अगर भारतीयता का आदर्श नहीं होगा तो और भला क्या होगा! इस सदी में जब तमाम नए दुखों का आगमन हुआ है तो उससे लड़ने की शक्ति राम जैसे धैर्यवान और विवेकशील व्यक्तित्व से ही मिल सकती है।

    अयोध्या में रामलला के प्राण प्रतिष्ठा के साथ ही हर व्यक्ति के जीवन में राम सा जीवन प्रतिष्ठित हो, ऐसी आशा उत्साह से भर देती है। वंचितों के नेतृत्वकर्ता : राम समाज के वंचितों और संघर्षशील लोगों के नेतृत्वकर्ता हैं। उनके जीवन को संवारने वाले हैं। डा. विश्वनाथ त्रिपाठी अपनी लोकप्रिय पुस्तक ‘लोकवादी तुलसीदास’ में कहते हैं, ‘जो दुखी हैं, असहाय हैं, राम उनके साथ हैं। राम सामान्य जनों के साथी हैं। राम का यह रूप समूचे मानव-इतिहास के संघर्षशील व्यक्ति का प्रतीक बन सकता है।’ इसके प्रमाण में वह उदाहरणों की पूरी शृंखला प्रस्तुत करते हैं। राम को जब सबसे अन्यायी रावण की शक्तिशाली सेना को परास्त करना था तो वह किसी प्रशिक्षित सेना की सहायता नहीं लेते हैं, बल्कि बानर-भालुओं की सेना तैयार करते हैं और लड़ते हैं।

    जब कल्याण की बारी आई तो राम किसी सामान्य उपेक्षित का उद्धार करना नहीं चुनते, बल्कि वह परित्यक्ता अहल्या का उद्धार करते हैं। भोजन के लिए किसी राजमहल में तैयार व्यंजन के बजाय राम शबरी के झूठे बेर चुनते हैं। मित्रता की बारी आती है तो किसी राजकुमार के बजाय राम निषाद राज केवट की मित्रता चुनते हैं। ऐसे ही काकभुसुंडी से लेकर सुग्रीव तक का दायरा यही दिखाता है कि राम उन सभी उपेक्षितों को जीवन देने वाले हैं, जिन्हें समाज में कम प्रतिष्ठा प्राप्त है। आज भी एक समान और सम्मानपूर्ण जीवन-स्तर निर्धारित करने में राम का यह चरित्र निर्देशक है।

    बरास्ते अयोध्या यह भाव पूरे राष्ट्र में प्रसारित हो, ऐसी सदिच्छा रखनी ही चाहिए। और फिर राम-राज्य की जो अवधारणा गोवास्वी तुलसीदासजी ने प्रस्तुत की है, वह सर्वथा अनुकरणीय है। प्रजा को एक राजा से क्या चाहिए का सूत्र तुलसीदास देते हैं, ‘मुखिया मुख सों चाहिये, खान पान कहुं एक। पालई पोसई सकल अंग, तुलसी सहित विवेक।’ अर्थात पालक को मुंह की तरह होना चाहिए। जो अन्न प्राप्त कर सभी अंगों को विवेकपूर्ण ढंग से पोषित करता है। शासक को नियंत्रित रखने वाले राम-राज्य के और गुण के लिए तुलसीदास कहते हैं, ‘जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी, तासु नृप अबस अधिकारी।’ अर्थात लोक को शासन के ऊपर रखना राम राज्य की बुनियाद है। आज भी आधुनिक राजनीति की शब्दावली में जिसे ‘सीमित सरकार’ कह दिया है, उसकी भरी-पूरी व्याख्या हमें तुलसी के राम राज्य में मिलती है। आधुनिक वैश्विक कल्याणकारी राज्य का सर्वोच्च आदर्श हमें राम-राज्य में दिखता है। ‘अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा। सब सुंदर सब बिरुज सरीरा। नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना। नहिं कोउ अबुध न लच्छन हीना।’ ऐसे सर्वांगीण विकास की आकांक्षा ही तो वर्तमान राज्य और लोक रखता है। खुशहाल जीवन की सभी आधुनिक परिभाषाएं रामराज्य से निकसी प्रतीत होती हैं। हर तरह के ताप से मुक्त- दैहिक, दैविक, भौतिक तापा- जीवन ही राम राज्य के मूल में है।

    आज के जीवन के लिए जो काम्य है, जो आदर्श है, जो लक्ष्य है, वह सब राम के व्यक्तित्व में है। राम भारत के अपने हैं। राम शील और गुण के शिखर हैं। आतुरता के विरुद्ध धैर्य हैं, अन्याय के विरुद्ध न्याय हैं, कटुता के विरुद्ध करुणा हैं, हासिल के विरुद्ध त्याग हैं, विभाजन के विरुद्ध समन्वय हैं, भाग्य के विरुद्ध संघर्ष हैं। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ ही राम के व्यक्तित्व की यह विराटता जन-जन तक पहुंचे, राम के देश को राम सा देश मिले, व्यक्ति से लेकर शासन तक राम के आदर्शों को माने और उस पर चले, यही इस ईश्वर के प्रति सच्ची श्रद्धा होगी। भारतीय सभ्यता को उसका दाय मिले, उसकी ऊंचाई मिले, इसके लिए समवेत प्रयास करना होगा।

    विश्व का हर सनातनी अधीरता से सोमवार की प्रतीक्षा कर रहा है। वस्तुत: अयोध्या में श्रीराम मंदिर में रामलला की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का वृहत समारोह आरंभ हो चुका है। इस समारोह के साथ ही हर व्यक्ति के जीवन में राम सा जीवन प्रतिष्ठित हो, ऐसी आशा उत्साह से भर देती है। यह आशा भी बलवती है कि राम हमारे जीवन के हर क्षेत्र में आएंगे, शासन-प्रशासन से लेकर व्यक्तिगत जीवन तक में उन्हें महसूस किया जा सकेगा

    रमा निवास तिवारी अयोध्या में श्री राममंदिर में प्राण प्रतिष्ठा का अनुष्ठान निकट आते-आते विश्व भर के हिंदुओं का उल्लास सातवें आसमान पर है, अयोध्या की धरती से फूटने वाला यह मंगल प्रवाह समूचे देश को आनंदित कर रहा है। जिस भारत की बहुसंख्यक जनता अपने आराध्य की जन्मभूमि पर उसके मंदिर निर्माण को देखने के लिए तरस गई हो, उस समाज की छटपटाहट का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आंदोलन में कारसेवकों ने इसके लिए बड़ी लंबी लड़ाई लड़ी, कितने ही कारसेवकों ने इसके लिए अपने प्राणों की बाजी तक लगा दी। पीछे पलट कर देखने पर पता चलता है कि अपने आराध्य को मंदिर में विराजित देखने की इच्छा को हृदय में समेटे कितने प्रभु भक्तों ने दुनिया को अलविदा कह दिया। आज जब उनके मनोरथ को आकार मिलने जा रहा है तो उनका स्मरण बरबस ही हो जाता है। एक लंबे अरसे की सामाजिक, न्यायिक और धार्मिक लड़ाई की यात्रा का सुफल है अयोध्या का राममंदिर।

    इस पूरी यात्रा में देश ने सियासत और सत्ता के धर्मपरायण और स्याह चेहरे को भी देखा, अनगिनत बलिदान देखा, त्याग और धैर्य का इम्तिहान देते सनातन समाज की बेबसी देखी और अयोध्यानाथ को अयोध्या में ही टेंट के नीचे दिन गुजारते देखा। प्रभु श्रीराम के पूजक देश में रामभक्तों को सदैव इस बात का मलाल था कि जिस भगवान राम के नाम का भजन-कीर्तन करके वे अपने जीवन को धन्य करते हैं, उन्हीं रामलला को उन्हीं की जन्मभूमि अयोध्या में मंदिर में प्रतिष्ठित करने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी है। ऐसे में मंदिर निर्माण के पीछे संघर्षों और बलिदानों की जो पृष्ठभूमि छिपी है, उसे जान लेने के बाद अयोध्या का यह उत्सव और भी भावनात्मक हो जाता है।

    अशोक सिंघल, उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा, महंत रामचंद्र परमहंस, महंत अवैद्यनाथ, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार, कल्याण सिंह आदि कुछ नाम हैं जो मंदिर आंदोलन का उल्लेख आते ही जेहन में स्वत:स्फूर्त आ जाते हैं। इन सभी के साथ ही तमाम और अनगिनत लोगों ने राममंदिर आंदोलन का जो बीड़ा उठाया था, वह अब फलित होने जा रहा है। इन लोगों ने हिंदू जनमानस को जगाने का काम करके अयोध्या में मंदिर आंदोलन की धार को पैना बनाया था।

    इससे भी इतर तमाम ऐसे रामभक्त जो मंदिर आंदोलन की राह में बलिदान हो गए, उनकी अभिलाषा अब मूर्त रूप लेने जा रही है। इन्हीं में से कुछ लोग ऐसे हैं जो अयोध्या के दिव्य स्वरूप को देखने के लिए आज हमारे बीच में नहीं हैं, परंतु उनकी चेतना अयोध्या के कण-कण में व्याप्त होकर आनंदित हो रही होगी। अयोध्या आज उत्सव में डूबी हुई है। इस बेला पर मंदिर आंदोलन के उन नायकों को याद किए बिना उत्सवधर्मिता में डूबना बेइमानी होगी। प्रभु श्रीराम को भी यह बात शायद अच्छी न लगे। भारत देश का मूल परिचय ही राम और कृष्ण से है। घर-घर में रामायण और भागवत के पाठों से करोड़ों लोगों के दिन की शुरुआत होती है। जहां राम का नाम लेकर लोग अपने सुख-दुख की घड़ियां जीते हों, उसी देश में प्रभु श्रीराम के मंदिर निर्माण का रास्ता खुलने में इतना लंबा समय लगा। यह अवधि पीड़ादायी थी। खुशी इस बात की है कि जितना लंबा समय मंदिर का मार्ग प्रशस्त होने में लगा, सरकार उतने ही धूमधाम से प्राण प्रतिष्ठा समारोह को मनाने जा रही है। (लेखक भारतीय संस्कृति के जानकार हैं)

    सन्नी कुमार अध्येता, इतिहास

    अयोध्या में श्रीराम मंदिर निर्माण कार्य के पश्चात प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम की तिथि निकट आने से समूचे सनातनधर्मी उत्साहित हैं।

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