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नष्‍ट हो रही है पृथ्‍वी को बड़े नुकसान से बचाने वाली ओजोन परत, 1913 में हुई थी खोज

लगातार मानवीय गतिविधियों से सिर्फ प्रकृति को ही नहीं बल्कि ओजोन परत को भी नुकसान पहुंच रहा है। विश्व ओजोन दिवस पर गंभीरता से समझें कुदरत के इस कवच की कीमत...

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 16 Sep 2020 09:20 AM (IST)Updated: Wed, 16 Sep 2020 09:20 AM (IST)
नष्‍ट हो रही है पृथ्‍वी को बड़े नुकसान से बचाने वाली ओजोन परत, 1913 में हुई थी खोज
नष्‍ट हो रही है पृथ्‍वी को बड़े नुकसान से बचाने वाली ओजोन परत, 1913 में हुई थी खोज

अनिल प्रकाश जोशी। पर्यावरण का अर्थ है पृथ्वी का आवरण और इसका सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है ओजोन परत या ओजोन शील्ड। एक रंगहीन गैस स्तर के रूप में पृथ्वी से करीब 15 से 35 किमी. ऊपर मौजूद ओजोन परत मुख्य रूप से पृथ्वी के समतापमंडल में पाई जाती है, जो सूर्य की हानिकारक पराबैंगनी किरणों को अवशोषित करती है। प्रकृति ने इस कवच की आवश्यकता इसलिए तय की है, क्योंकि सूरज की अल्ट्रावॉयलेट किरणें और इनका रेडिएशन पृथ्वी पर प्रतिकूल असर डालते हैं। इन्हें ही रोकने का काम ओजोन परत का है।

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मिल गया पृथ्वी का आवरण

वर्ष 1913 में सबसे पहले फ्रांसीसी भौतिकशास्त्री चाल्र्स और हेनरी ने ओजोन परत की खोज की थी। वह यह देखना चाहते थे कि जो रेडिएशन सूर्य से पृथ्वी तक पहुंचता है वो आखिर किन कारणों से पृथ्वी के भीतर नुकसान नहीं पहुंचाता, क्योंकि वह तापक्रम करीब 5500-6000 डिग्री सेंटीग्रेड तक माना जाता है। यह ओजोन परत अपने 97-99 फीसद तक सूरज की मध्यम फ्रीक्वेंसी की अल्ट्रावॉयलेट किरणों को पृथ्वी तक आने नहीं देती और पृथ्वी बड़े नुकसान से बची रहती है। वर्ष 1976 में हुए एक अन्य शोधकार्य में पाया गया कि मानवीय गतिविधियों के कारण धीरे-धीरे ओजोन परत भी नष्ट हो रही है। लंबे समय से ओजोन परत पर शोधकार्य जारी है। शोध में सामने आया कि इस परत के नष्ट होने के मुख्य कारणों में वे गैसें हैं, जो उद्योगों का उत्पाद हैं। इसमें क्लोरीन, ब्रोमीन जैसे दो तत्व हैं, जो इसको बड़ा नुकसान पहुंचा रहे हैं और जिनके कारण यह परत पतली होती जा रही है। इसमें ध्रुवीय क्षेत्र व अंटार्कटिका ने इसका ज्यादा असर झेला।

सुपरसोनिक भी हैं खतरनाक

वर्ष 1970 में वैज्ञानिकों ने इस शोध का अध्ययन करके इसे आगे बढ़ाने की कोशिश की। इसी कारण अमेरिका को भी सुपरसोनिक ट्रांसपोर्ट स्थगित करना पड़ा, क्योंकि लगभग हर बड़े एयरक्राफ्ट नाइट्रोजन ऑक्साइड छोड़ते हैं। वर्ष 1974 में अमेरिकन केमिस्ट मारियो और शेरवुड ने एक अध्ययन में पाया कि कार्बन, फ्लोरीन व क्लोरीन के परमाणु वाले क्लोरोफ्लोरो कार्बन में ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने की सबसे ज्यादा क्षमता है। इसी अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए क्रुट्जन मोलीना और रोलैन ने इस कार्य में बड़ा योगदान दिया। इसके लिए उन्हेंं वर्ष 1995 में नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया।

संसाधन पहुंचा रहे नुकसान

लगातार मानवीय गतिविधियों से ओजोन परत को काफी नुकसान पहुंच रहा है। इसका सर्वप्रथम पता वर्ष 1985 में चला था जिसके बाद वर्ष 1987 में क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उत्पादन और खपत की जांच के लिए मांट्रियल प्रोटोकॉल अपनाया गया, जिसने इस रासायनिक यौगिक को पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया। हालांकि सिर्फ क्लोरोफ्लोरोकार्बन ही नहीं, बल्कि रेफ्रिजरेटर व एयर कंडीशनर से निकलने वाला होलो कार्बन भी ओजोन परत को नुकसान पहुंचा रहा है।

सवाल सभी की सुरक्षा का

1985 में प्रकाशित शोध में बताया गया था कि अंटार्कटिका में अन्य क्षेत्रों की तुलना में 60 फीसद की दर से हालात बिगड़ रहे हैं। यह सब लगभग पिछले तीन दशक से हमारे सामने है, लेकिन इन तमाम अध्ययनों के बावजूद वर्ष 1970 से 1990 के बीच ओजोन परत का पांच फीसद वैश्विक नुकसान हुआ। यह आवश्यक है कि हर स्तर पर इस पर बहस, बातचीत और प्रयास हों, क्योंकि ओजोन परत किसी एक शहर या देश की ही नहीं, बल्कि हम सभी की सुरक्षा का कवच है। 

(लेखक पद्म भूषण से सम्मानित प्रख्यात पर्यावरण कार्यकर्ता हैं)


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