Pandurang Khankhoje: भारतीय क्रांतिकारी जो बने मेक्सिकन हीरो, स्पीकर ओम बिरला करेंगे मूर्ति का अनावरण
Pandurang Khankhoje लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला कनाडा की यात्रा पर हैं। इसके बाद वह मेक्सिको जाकर स्वामी विवेकानंद और महाराष्ट्र में जन्मे पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे की मूर्ति का अनावरण करेंगे। जानते हैं कौन हैं पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे?

नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। लोकसभा के स्पीकर ओम बिरला (Speaker Om Birla) इन दिनों कनाडा (Canada) यात्रा पर हैं। वह यहां 65वें राष्ट्रमंडल संसदीय सम्मेलन (65th Commonwealth Parliamentary Conference) में शामिल होंगे। इसके बाद मेक्सिको भी जाएंगे और वहां स्वामी विवेकानंद और महाराष्ट्र में जन्मे स्वतंत्रता सेनानी पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे (Pandurang Sadashiv Khankhoje) की मूर्ति का अनावरण करेंगे। पाण्डुरंग खानखोजे भारतीय स्वतंत्रता के वो नायक हैं, जिनकी पहचान मेक्सिको में हरित क्रांति के जनक के तौर पर है। मेक्सिको में लोग उन्हें हीरो मानते हैं। जानते हैं कौन हैं पाण्डुरंग खानखोजे और कैसे उन्होंने महाराष्ट्र से मेक्सिकन हीरो तक का सफर तय किया?
मेक्सिको के बाद सूरीनाम जाएंगे स्पीकर
स्पीकर ओम बिरला की ये यात्रा केंद्र सरकार के उस अभियान का भी हिस्सा है, जिसके तहत देश के बाहर पहचान बनाने वाले भारतीय मूल के भूले-बिसरे नेताओं को सम्मानित किया जा रहा। मेक्सिको के बाद ओम बिरला दक्षिणी अमेरिका के सूरीनाम (Suriname) देश की यात्रा पर जाएंगे। यहां पर वह भारतीय मूल के राष्ट्रपति चंद्रिका प्रसाद संतोखी (Suriname President Chandrikapersad Santokhi) से मुलाकात करेंगे।
On way to Halifax to attend #65CPC, met Indian diaspora in Toronto. Shared with them India's successful journey in economy, science, tech. & other fields. Happy to note that they are contributing significantly to development of Canada while staying rooted to motherland. pic.twitter.com/8lubwxH6Eh
— Om Birla (@ombirlakota) August 23, 2022
कौन हैं पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे
पाण्डुरंग सदाशिव खानखोजे का जन्म 7 नवम्बर 1883 को वर्धा, महाराष्ट्र में हुआ था। वर्धा में ही उन्होंने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा प्राप्त की। उच्च शिक्षा के लिए वह नागपुर चले गए। तब तक वह महान स्वतंत्रता सेनानी बालगंगाधर तिलक के राष्ट्रवादी विचारों से काफी प्रभावित हो चुके थे। 1900 के करीब वह समुद्री मार्ग से संयुक्त राष्ट्र अमेरिका जा पहुंचे। यहां उन्होंने वाशिंगटन स्टेट कॉलेज (अब वाशिंगटन स्टेट विश्वविद्यालय) में प्रवेश लिया। यहां से 1913 में उन्होंने स्नातक की पढ़ाई पूरी की। पाण्डुरंग खानखोजे की पहचान भारतीय स्वतंत्रता सेनानी, कृषि वैज्ञानिक और इतिहासकार के तौर पर है। आजादी के बाद, जीवन के अंतिम पड़ाव में वह भारत वापस लौटे। 22 जनवरी 1967 को नागपुर में उनका निधन हुआ था।
समुद्र के रास्ते अमेरिका पहुंचे थे खानखोजे
उनकी बेटी सावित्री सहाय (Savitri Sawhney) ने उनकी आत्मकथा में लिखा है, 'छात्र जीवन में खानखोजे फ्रांसीसी क्रांति और अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने क्रांतिकारी तरीकों और सैन्य रणनीति में आगे का प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए विदेश जाने का फैसला लिया। तब तक ब्रिटिश सरकार के खिलाफ गतिविधियों की वजह से वह अंग्रेजों के संदेह में आ चुके थे। आगे की योजना को लेकर वह बालगंगाधर तिलक से मिले। उन्होंने खानखोजे को सलाह दी कि वह जापान चले जाएं, जो उस वक्त खुद एक मजबूत देश था और पश्चिम एशियाई साम्राज्यवाद का विरोधी था। यहां उन्होंने जापान और चाइना के राष्ट्रवादियों के साथ समय बिताया। फिर वह समुद्र मार्ग से किसी तरह अमेरिका पहुंचे और कृषि की पढ़ाई के लिए कॉलेज में दाखिला लिया। एक साल बाद ही सैन्य रणनीति के प्रशिक्षण के लिए वह कैलिफोर्निया की माउंट तमालपाइस सैन्य अकादमी (Mount Tamalpais Military Academy, California) में शामिल हो गए, जो भारत छोड़ने का उनका मूल उद्देश्य था।'
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में उनकी भूमिका
आत्मकथा के अनुसार 'भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए गठित गदर पार्टी के संस्थापकों में एक नाम पाण्डुरंग खानखोजे का भी था। इसकी स्थापना 1914 में अप्रवासी भारतीयों ने की थी, जिसमें ज्यादातर पंजाब के लोग थे। इसका मकसद भारत में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करना था। अमेरिका प्रवास के दौरान खानखोजे की मुलाकात भारतीय बुद्धजीवी लाला हर दयाल से हुई, जो स्टैंडफोर्ड यूनिवर्सिटी (Stanford University) में पढ़ाते थे। हरदयाल ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रचार के लिए भारतीय भाषा में समाचार पत्र का प्रकाशन करते थे, जिसमें देशभक्ति गीत और लेख हुआ करते थे। यहीं से गदर पार्टी का उदय हुआ था।'
खानखोजे के अभियान में रोड़ा बना प्रथम विश्व युद्ध
कैलिफोर्निया की माउंट तमालपाइस सैन्य अकादमी में प्रशिक्षण के दौरान खानखोजे की मुलाकात मेक्सिको के कई लोगों से हुई। मेक्सिकन नागरिकों ने 1910 की क्रांति में तानाशाही शासन को उखाड़ फेंका था, जिससे खानखोजे बहुत प्रभावित थे। अमेरिका में प्रवास के दौरान उन्होंने वहां के खेतों में काम करने वाले भारतीयों से जाकर अलग-अलग मुलाकात की। इस मुलाकात में वह स्वतंत्रता संग्राम के अपने विचार पर उनसे बातचीत करते थे। इस दौरान मेक्सिकन नागरिकों से भी उनका मुलाकात होती थी। इसी दौरान खानखोजे ने अप्रवासी भारतीयों के जरिए भारत में अंग्रेजों हुकूमत पर हमले की रणनीति तैयार की थी, जो प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो जाने की वजह से मूर्त रूप नहीं ले सकी।
खानखोजे की मेक्सिको यात्रा और हरित क्रांति
इसके बाद खानखोजे ने पेरिस में भीकाजी कामा (Bhikaji Cama) और रूस में ब्लादिमीर लेनिन (Vladimir Lenin) समेत कई नेताओं से मुलाकात कर भारत की आजादी के लिए समर्थन मांगा। इस वजह से उन पर यूरोप में निर्वासन (Deportation) का खतरा मंडराने लगा। वह भारत वापस नहीं लौट सकते थे। लिहाजा उन्होंने मेक्सिको में शरण ली। मेक्सिकन क्रांतिकारियों से दोस्ती की वजह से उन्हें वहां के राष्ट्रीय कृषि विद्यालय (National School of Agriculture in Chapingo, near Mexico City) में प्रोफेसर की नौकरी मिल गई। यहां उन्होंने मक्का, गेहूं, दाल और रबर पर कई शोध किए। साथ ही उन्होंने ठंड और सूखा प्रतिरोधी कृषि उपज की किस्मों का विकास किया। मेक्सिको में उन्होंने किसानों के लिए मुफ्त कृषि विद्यालय की शुरूआत की थी। उनके ये प्रयास मेक्सिकों में हरित क्रांति की वजह बने।
भारतीय हरित क्रांति में खानखोजे की भूमिका
बाद में भारत में हरित क्रांति के जनक (Father of the Green Revolution in India) कहे जाने वाले अमेरिकी कृषि विज्ञानी डॉ नॉर्मन बोरलॉग (American agronomist Dr Norman Borlaug), खारखोजे द्वारा तैयार की गई मेक्सिकन गेहूं की किस्म पंजाब लेकर आए। खानखोजे मेक्सिको में एक कृषि वैज्ञानिक के रूप में प्रतिष्ठित थे। प्रसिद्ध मेक्सिकन कलाकार डिएगो रिवेरा ने अपने भित्ति चित्रों (Murals) में खानखोजे को चित्रित किया था। इसमें खानखोजे एक मेज के चारों ओर बैठे लोगों के साथ रोटी तोड़ते हुए दिखाए गए थे। इसका शीर्षक हमारी प्रतिदिन की रोटी (Our Daily Bread) था।
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