सुभाष चंद्र ने नहीं जैनुल आबेदीन ने दिया था जयहिंद का नारा!
कई लोगों का मानना है कि सुभाष चंद्र बोस ने 'जय हिंद' का नारा दिया था, लेकिन हैदराबाद की महान शख्सियतों और और लघु कहानियों पर आधारित एक किताब में इससे उलट दावा किया गया है। इसके अनुसार इसका इस्तेमाल सबसे पहले हैदराबाद के कलेक्टर के बेटे जैनुल आबेदीन हसन ने किया था। हसन ने नेताजी का सचिव और
नई दिल्ली। कई लोगों का मानना है कि सुभाष चंद्र बोस ने 'जय हिंद' का नारा दिया था, लेकिन हैदराबाद की महान शख्सियतों और और लघु कहानियों पर आधारित एक किताब में इससे उलट दावा किया गया है। इसके अनुसार इसका इस्तेमाल सबसे पहले हैदराबाद के कलेक्टर के बेटे जैनुल आबेदीन हसन ने किया था। हसन ने नेताजी का सचिव और दुभाषिए बनने के लिए जर्मनी में अपनी इंजीनियरिंग की पढ़ाई छोड़ दी थी।
पूर्व नौकरशाह नरेंद्र लूथर ने अपनी किताब 'लेजेंड्स ऑफ हैदराबाद' में कई दिलचस्प लेख लिखे हैं। ये लेख इस शहर से जुड़े दस्तावेजी साक्ष्यों, साक्षात्कारों और निजी अनुभवों पर आधारित हैं। इसमें एक दिलचस्प लेख 'जय हिंद' के नारे की उत्पत्ति से जुड़ा है। लेखक के मुताबिक इस नारे को हसन ने दिया था, जो इंजीनियरिंग की पढ़ाई करने के लिए जर्मनी गए थे। लूथर ने कहा, 'द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नेताजी भारत को आजाद कराने को लेकर सशस्त्र संघर्ष के लिए समर्थन जुटाने जर्मनी चले गए थे। वहां पर उन्होंने भारतीय युद्ध कैदियों और अन्य भारतीयों से मुलाकात की और उनसे अपनी लड़ाई में शामिल होने की अपील की। इस दौरान हसन ने उनसे मुलाकात की। नेताजी की देशभक्ति और बलिदान की भावना से प्रभावित होकर उन्होंने कहा कि अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद वह उनसे जुडे़ंगे। इस पर नेताजी ने उनपर तंज कसा कि वह इस प्रकार की छोटी चीजों को लेकर चिंतित हैं और बड़े कामों को हाथ में लेने से डरते हैं। इस फटकार से तिलमिलाए हसन ने अपनी पढ़ाई छोड़ दी और नेताजी के सचिव और दुभाषिए बन गए।
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ऐसे बना नारा : लूथर के मुताबिक हसन बाद में आजाद हिंद फौज में मेजर बन गए. उन्होंने बर्मा से भारत की सीमा पार तक के मार्च में हिस्सा लिया। इसी दौरान आजाद हिंद फौज ब्रिटिश सेना को हराकर मणिपुर की राजधानी इंफाल तक पहुंच गई थी। बाद में हथियारों की कमी और सामान की आपूर्ति न होने के कारण उसे पीछे हटना पड़ा। इसी दौरान पैदा हुए नारे का जिक्र करते हुए लेखक ने कहा, नेताजी भारत की आजादी और अपनी सेना में अभिवादन के लिए भारतीय तरीके की शुरुआत करना चाहते थे। उनके पास कई सुझाव आए। हसन ने उन्हें 'हैलो' का सुझाव दिया। इस पर नेताजी ने उन्हें डांट दिया। फिर उन्होंने जय हिंद का सुझाव दिया। नेताजी को यह पसंद आया और यह भारतीय क्रांतिकारियों व आजाद हिंद फौज में अभिवादन का आधिकारिक जरिया बन गया। बाद में इसे देश के आधिकारिक नारे के तौर पर स्वीकार किया गया। किताब का प्रकाशन नियोगी ने किया है।

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