Interview: ग्रुप साइकोपैथी मॉडल से तैयार किए जा रहे व्हाइट कॉलर आतंकीः डा. देसाई
दिल्ली ब्लास्ट के आतंकी डॉ. उमर के वीडियो ने युवाओं के कट्टरपंथीकरण पर सवाल उठाए हैं। मनोचिकित्सक डॉ. निमेष देसाई के अनुसार, यह घटना ग्रुप साइकोपैथी का उदाहरण है। युवाओं को कट्टरपंथी बनने से रोकने के लिए सख्त सरकारी निगरानी और परिवार, स्कूल, समाज की संयुक्त भूमिका महत्वपूर्ण है। डॉ. देसाई ने बताया कि बच्चों में जीन संबंधी गड़बड़ियों की पहचान कर उन्हें सही दिशा में ले जाया जा सकता है।

इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड अलाइड साइंस (आईएचबीएस) के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. निमेष जी देसाई।
रुमनी घोष, नई दिल्ली। दिल्ली ब्लास्ट को अंजाम देने वाला आतंकी डॉ. उमर का वीडियो चर्चा में है। यह वीडियो न केवल एक आतंकवादी की मनोवैज्ञानिक स्थिति को उजागर करता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि कैसे युवा रैडिकलाइज होते हैं। इसके साथ ही एक बार फिर यह सवाल उठ खड़ा हुआ है कि आखिर मुस्लिम युवाओं को रैडिकलाइज होने से कैसे रोका जाए? आतंकवादी बनने की राह पर चलने से पहले ही कैसे परिवार और समाज इनकी पहचान कर उन्हें सही रास्ते पर ला सके?
इन सवालों के जवाब तलाशने के लिए देश-दुनिया में चल रहे शोध और परिणामों की तस्वीर सामने रखते हुए इंस्टीट्यूट ऑफ ह्यूमन बिहेवियर एंड अलाइड साइंस (आईएचबीएस) के पूर्व निदेशक और वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ. निमेष जी देसाई बताते हैं कि दिल्ली ब्लास्ट जैसी घटनाएं ग्रुप साइकोपैथी का उदाहरण हैं। इस पर कुछ शोध तो हुए हैं, लेकिन परिणाम संतोषजनक नहीं हैं। ऐसे में सख्त सरकारी निगरानी ही एकमात्र रास्ता है। अपनी, समाज की और देश की सुरक्षा के लिए हम सबको इसे बर्दाश्त करना होगा।
40 साल का लंबा अनुभव रखने वाले डॉ. देसाई लंबे समय तक नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरोसाइंस (निमहांस) व एम्स से जुड़े रहे। उन्होंने कुख्यात अपराधियों के मनोविज्ञान पर काफी अध्ययन किया है। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे आतंकियों के मनोविज्ञान को लेकर हो रहे शोध और इन्हें डी-रैडिकलाइज करने के उपायों पर विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंश:
डॉ. उमर के वीडियो का विश्लेषण आप किस तरह से करेंगे?
डॉ. उमर के भीतर मनोरोगी यानी साइकोपैथ होने के लक्षण साफ नजर आते हैं। पूरे वीडियो में उसने 'आई कांटैक्ट' नहीं रखा। यानी आंख से आंख मिलाकर बात नहीं की। यह मनोरोगियों की एक बड़ी पहचान है। आत्मघाती आतंकी हमले को शहीदगी बताकर बरगलाने की कोशिश कर रहा था। हालांकि कुछ पंक्तियों के बाद वह जो कुछ भी बोल रहा है, उसमें तारत्मयता नहीं है। इससे समझ आता है कि विचारों में उलझन है, लेकिन वह इतना रैडिकलाइज हो चुका था कि वह वही सबकुछ बोल रहा था, जो उसे बरगलाने के लिए समझाया गया था।
उच्च शिक्षित डॉक्टरों की अपनी एक सोचने-समझने की शक्ति है। आखिर उन्हें कैसे बरगलाया जा सकता है? सही-गलत का भेद भूल सकते हैं?
देखिए, इस सवाल का जवाब मैं आपको ऑर्थर कनन डायल के जासूसी किरदार शर्लक होम्स और प्रोफेसर मोरियाट के किरदार से समझाता हूं। दोनों ही तेज दिमाग, अवलोकन की सूक्ष्म विलक्षण क्षमता (चीजों को बारीकी से पकड़ना) और फोरेंसिक विज्ञान की समझ रखने वाले हैं। शर्लक होम्स समाज को बचाने के लिए काम करता है और वहीं, मनोरोग को शिकार प्रोफेसर मोरियाट विनाश के लिए। दिल्ली ब्लास्ट को अंजाम देने वाले डॉक्टर्स जैसे सभी आतंकी प्रोफेसर मोरियाट के अंश हैं। बतौर मनोचिकित्सक मैं यह विश्वास करना चाहता हूं कि समाज में शर्लक होम्स जैसे किरदार ज्यादा हैं और आतंकवादी संगठनों द्वारा दुनियाभर में चलाए जा रहे तमाम योजनाबद्ध कुचक्रों के बावजूद प्रोफेसर मोरियाट जैसे लोगों की संख्या कम है। दुनिया जीने लायक है, वरना चारों ओर मार-काट मची रहती।
इन आतंकियों के लिए आप बार-बार साइकोपैथ (मनोरोगी) शब्द का उपयोग कर रहे हैं। क्या यह मानसिक रोग के शिकार होते हैं? यदि नहीं, तो मनोरोग व मानसिक रोग में क्या अंतर है?
नहीं, साइकोपैथ मानसिक रोगी नहीं होते हैं। यदि इन्हें मानसिक रोगी कहा जाएगा तो यह हमारे-आपके परिवारों में मौजूद उन सभी मानसिक रोगियों के साथ अन्याय होगा, जो किसी कारणवश बीमार हैं। उन्हें इलाज की जरूरत है। साइकोपैथ मनोरोगी होते हैं। कुछ जीन में आनुवांशिक गड़बड़ियों की वजह से इनका व्यवहार सामान्य किशोर या युवाओं की तुलना में अस्वाभाविक होता है। इसमें कड़वा या कठोर बचपन और फिर किशोरावस्था या युवावस्था में मिले असामाजिक हालात इन्हें साइकोपैथ बनने की दिशा में ले जाते हैं। जैसे किसी को काटकर कूकर में उबाल देना जैसी घटनाएं इसी श्रेणी में आती हैं। इस तरह के लोग कुछ मात्रा में हर समाज, हर समुदाय में मौजूद हैं। मनोचिकित्सा की भाषा में एसपीडी (एंटी पर्सनालिटी डिसऑर्डर) कहते हैं।
... और ग्रुप साइकोपैथी क्या है?
दिल्ली ब्लास्ट जैसे मॉडल पर काम करने के लिए जैश ए मोहम्मद सहित अन्य आतंकी संगठन बहुत से युवाओं को रैडिकलाइज यानी चरम कट्टरवाद विचारों से प्रभावित करने की कोशिश करते होंगे, लेकिन अधिकांश युवा उससे प्रभावित नहीं होते हैं, लेकिन डॉ. उमर, डॉ. मुज्जमिल, डॉ. शाहीन जैसे साइकोपैथ टेंडेंसी वाले युवा इस ट्रैप में आ रहे हैं। हर समाज या समुदाय में साइकोपैथ होते हैं, लेकिन यह ग्रुप साइकोपैथ इसलिए बेहद खतरनाक है कि आनुवांशिक गड़बड़ियों (जीन डिसआर्डर) के शिकार युवाओं को चिह्नित कर साल-दो साल (या उससे ज्यादा) इस तरह का माहौल उपलब्ध करवाकर उन्हें रैडिकलाइज किया जा रहा है। दिल्ली ब्लास्ट से जुड़े सभी आतंकियों के व्यवहारों का अध्ययन करेंगे तो आप यही ट्रेंड पाएंगे। किसी संगठित अपराध को अंजाम देने के लिए अधिकांश मामलों में योजनाबद्ध तरीके से ग्रुप साइकोपैथी का सहारा लिया जाता है और लंबे समय तक एक विचारधारा को उनके भीतर भावनाएं डाली जाती हैं। इतिहास में इसके कई प्रमाण मिलते हैं। वर्तमान में आतंकी संगठन इसके लिए मजहबी जज्बात या धर्म को हथियार बनाकर इस्तेमाल कर रहे हैं। दुर्भाग्य से वह इसमें कुछ हद तक सफल हो रहे हैं। तभी इस तरह की घटनाएं हो रही हैं।
क्या इसका कोई वैज्ञानिक पैमाना है कि कितनी आबादी में कितने साइकोपैथ हो सकते हैं?
नहीं। इस तरह का कोई वैज्ञानिक पैमाना नहीं है।
ग्रुप साइकोपैथी के जरिये किसी संगठित अपराध को अंजाम देने का इतिहास कब से मिलता है ?
विश्वयुद्ध के बाद जो होलोकास्ट (सामूहिक नरसंहार) हुआ...वहां से पढ़े-लिखे लोगों द्वारा किसी घटना का उदाहरण साफतौर पर मिलता है। इसमें नाजियों द्वारा गैस के चेंबर में भरकर यहूदियों का सामूहिक नरसंहार किया गया। यह गैस चेंबर बनाने में डाक्टर्स व केमिकल इंजीनियर्स व पढ़े-लिखे लोग ही शामिल थे। इसे ही धीरे-धीरे अलग-अलग समय में तरीकों में बदलाव कर अलग-अलग चरमपंथी संगठनों ने अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया।
तो मनोचिकित्सा विज्ञान में इसका इलाज क्या है?
साइकोपैथियों के व्यवहार और सुधार को लेकर मनोचिकित्सा विज्ञान में बहुत से शोध हुए हैं। उनके अच्छे परिणाम भी मिले हैं। ग्रुप साइकोपैथी को लेकर कुछ शोध हुए हैं। खास तौर पर अमेरिका में हुए 9/11 के आतंकी घटना के बाद वैश्विक स्तर पर इसको लेकर कुछ काम हुआ, लेकिन दुर्भाग्यवश मेरा आकलन यह कहता है कि इसमें अभी तक कोई विशेष उत्साहजनक परिणाम सामने नहीं आए हैं।
एक सवाल बड़े स्तर पर उठाया जा रहा है कि यदि ग्रुप साइकोपैथी के जरिये बरगलाया जा सकता है तो क्या ग्रुप डी-रैडिकलाइजेशन प्रोग्राम चलाकर युवाओं को चरमपंथी गुटों से जुड़ने से रोका नहीं जा सकता है? इस बारे में मनोचिकित्सा विज्ञान क्या कहता है?
क्यों नहीं हो सकता है...। मानव की मूल प्रवृत्ति सहारा ढूंढने की होती है। दुनिया के सारे धर्म या मजहब को मानने वाले लोग अपने-अपने ईष्ट में यह सहारा ढूंढ लेते हैं। जिंदगी के तमाम उतार-चढ़ाव से उतरने में यह आपको मानसिक संबल देता है। तभी तो दुनिया में अलग-अलग समाज, अलग-अलग धर्म, अलग-अलग विचारधाराओं के बावजूद दुनिया में संतुलन बना हुआ है। कई उदाहरण हैं, जिसमें छोटी से छोटी आबादी इस धरती पर अपनी मान्यताओं व विश्वास के साथ रह रही है। हां, यह जरूर है कि चरमपंथी सोच रखने वाली संगठनें धर्म-मजहब का इस्तेमाल कर कुछ युवाओं को बरगलाने में सफल हो रही हैं।
तो फिर इलाज के क्या उपाय हैं?
मेरे आकलन के हिसाब से इसके लिए शार्ट टर्म और लांग टर्म दो तरीके अपनाए जाने चाहिए। शार्ट टर्म में इस वक्त देश, समाज और आपकी-हमारी सबकी जीवन की सुरक्षा सबसे अहम है। आखिर दिल्ली ब्लास्ट में मारे गए लोगों ने किसी का क्या बिगाड़ा था...एक आतंकी घटना से उनका परिवार तो बिखर गया न। इसी साल हुई पहलगाम की घटना में अपने पति और बेटों को खोने वाली महिलाओं का क्या दोष था? ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सरकार को सख्त निगरानी सिस्टम विकसित करना होगा। मैं मानता हूं कि इससे हम सबकी प्राइवेसी पर अंकुश लगेगा। किसी को अच्छा नहीं लगता कि उसकी प्राइवेसी भंग हो, लेकिन इस तरह की घटनाओं से बचने के लिए हम सबको इसके दायरे में आना ही होगा। इसे बर्दाश्त करना ही होगा। दुनिया में बहुत से देशों ने इस मॉडल को अपनाया है। लांग टर्म में परिवार, स्कूल और समाज आहिस्ता-आहिस्ता इसकी जिम्मेदारी निभाएं।
सरकारी निगरानी के नाम पर कई बार ज्यादती के आरोप लगते रहे हैं। इसके झूठे और सच्चे दोनों तरह के प्रमाण मिलते हैं। इससे कैसे निपटेंगे?
इसमें सरकारी एजेंसियों और समाज दोनों को आपस में तालमेल बिठाना होगा। सरकारी एजेंसियों को यह तय करना होगा कि निगरानी के नाम पर ज्यादती न हो। निजी सूचनाओं का दुरुपयोग न हो। यदि कोई संदेह के घेरे में है तो उनके परिवार को भरोसे में लेकर कार्रवाई की जाए। वहीं, समाज को यह धैर्य रखना होगा कि वह अपने व परिवार की सुरक्षा के लिए कुछ हद तक (जितना जरूरी है) इसे बर्दाश्त करें। खुलकर कहूं तो यदि समुदाय विशेष का कोई युवा संदेहास्पद गतिविधि में लिप्त है तो परिवार वाले खुद आगे आकर उसकी सूचना दें। डी-रैडिकलाइज प्रोग्राम से जोड़े।
परिवार, स्कूल और समाज 'इलाज' में किस तरह भूमिका निभा सकते हैं?
आपको याद है पहले स्कूल में असेंबली में मानवीय मूल्यों यानी ह्यूमन वैल्यूज सिखाने का पाठ पढ़ाया जाता था। अभी भी होता होगा, लेकिन प्रतिस्पर्धा के दौर में संभवतः इस ओर माता-पिता, स्कूल व सरकारें ध्यान नहीं दे पाती होंगी। इसे बहुत गंभीरता के साथ बड़े पैमाने पर शुरू करना चाहिए। यह प्रयास बहुत योजनाबद्ध होना चाहिए। इसमें लंबा समय लगेगा, लेकिन लगातार प्रयास से सकारात्मक परिणाम मिलेंगे। रैडिकलाइज होने के बाद डी-रैडिकलाइज करने का प्रोग्राम चलाने से बेहतर है कि उन्हें उस रास्ते में जाने से ही रोका जाए। वह धीरे-धीरे कानों में जहर डाल रहे हैं तो आप धीरे-धीरे उन्हें मानवीय मूल्य की महत्ता सिखाइए। इसमें परिवार, समाज, स्कूल की भूमिका अहम है। यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि तमाम प्रयासों के बावजूद कुछ इस तरह के लोग फिर भी समाज में रह जाएंगे। यह मानवीय व्यवहार है। इसलिए सरकारी सख्त निगरानी तो जरूरी है।
हाल ही में कश्मीर घाटी में एक पिता ने यह जानकर आत्महत्या कर ली, कि उसका बेटा आतंकवादी बन गया है। यह चिंता सिर्फ एक पिता की नहीं बल्कि समाज के अधिकांश माता-पिता को है कि उनका बच्चा किसी ट्रैप में तो फंस नहीं रहा है?
देखिए, लंबे शोध के बाद मनोचिकित्सा विज्ञान में यह सफलता मिली है कि किशोरावस्था (13 से 18 साल) में किसी बच्चे के व्यवहार की निगरानी कर यह बताया जा सकता है कि वह युवा होकर (30-35 साल) कैसा बनेगा। यदि कोई जीन डिसआर्डर है तो उसे चिह्नित कर उसे बेहतर माहौल देकर उसे सामान्य जीवन की ओर लौटाया जा सकता है।
परिवार वाले कैसे पहचानें कि उनके बच्चों में कोई जीन डिसआर्डर है?
यदि आप देखते हैं कि आपके परिवार या आसपास में कोई बच्चा अकारण ही जानवरों को सताता है। उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। अकारण और अक्सर झूठ बोलता है। यानी झूठ बोलना उसकी आदत में शामिल हो गया है। आई कांटैक्ट रखकर बात नहीं करता है, तो इसे नजरअंदाज न करें। हो सकता है बेहतर व सौहार्दपूर्ण माहौल न मिलने पर आगे चलकर धीरे-धीरे ये बच्चे साइकोपैथ बन जाएं। इन्हें अच्छा बचपन और उम्मीदों से भरा किशोरावस्था देकर समाज के लिए बेहतर इंसान बनाया जा सकता है।
'एक तेज दिमाग के साथ शर्लक होम्स और प्रोफेसर मोरियाट दोनों बनने की क्षमता छिपी होती है। आर्थर कनन डायल रचित शर्लक होम्स जैसे किरदार समाज के हित में काम करते हैं, वहीं प्रोफेसर मोरियाट जैसे किरदार अपनी ऊर्जा का नकारात्मक उपयोग कर जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं। आतंकवादी बनकर निहत्थे मासूमों को मारते हैं। इस पूरे परिदृश्य में एक बात उम्मीद बंधाए रखती है कि समाज में शर्लक होम्स जैसे किरदार ज्यादा हैं। ऐसा नहीं होता तो दुनिया अलग-अलग समुदायों, अलग-अलग धर्म के बीच संतुलन नहीं होता।'
'यदि आप देखते हैं कि आपके परिवार या आसपास में कोई बच्चा अकारण ही जानवरों को सताता है। उसके साथ दुर्व्यवहार करता है। अकारण और अक्सर झूठ बोलता है। यानी झूठ बोलना उसकी आदत में शामिल हो गया है। आई कांटैक्ट रखकर बात नहीं करता है, तो इसे नजरअंदाज न करें। हो सकता है बेहतर व सौहार्दपूर्ण माहौल न मिलने पर आगे चलकर धीरे-धीरे ये बच्चे साइकोपैथ बन जाएं। इन्हें अच्छा बचपन और उम्मीदों से भरा किशोरावस्था देकर समाज के लिए उपयोगी इंसान बनाया जा सकता है।'

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