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    आसान शब्‍दों में जानिए आखिर क्‍या है रैमजेट तकनीक, जिसपर आधारित है एसएफडीआर मिसाइल

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Fri, 05 Mar 2021 10:08 PM (IST)

    रैमजेट तकनीक की मदद से किसी भी मिसाइल या रॉकेट को कम वजनी बनाया जा सकता है। इसकी मदद ईंधन के तौर पर जलने वाली ऑक्‍सीजन को बाहरी वातावरण से लिया जाता ह ...और पढ़ें

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    रैमजेट इंजन से मिसाइल को तेज गति मिलती है।

    नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। डीआरडीओ ने शुक्रवार को ओडिशा के चांदीपुर से सॉलिड फ्यूल डक्टेड रैमजेट (एसएफडीआर) मिसाइल का सफल टेस्‍ट किया है। इस मिसाइल को भारत और रूस संयुक्‍त रूप से विकसित कर रहे हैं। जिस तकनीक पर ये आधारित है वो अपने आप में बेहद खास है। जहां तक इस मिसाइल की खासियत की बात है तो आपको बता दें कि ये जमीन से हवा और हवा से हवा में मार करने में सक्षम होगी। इससे भारत की ताकत रक्षा क्षेत्र में तो बढ़ेगी ही साथ ही तकनीक के क्षेत्र में विकास होगा।

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    रैमजेट तकनीक पर आधारित रॉकेट की सबसे बड़ी खूबी यही होती है कि इसके इंजन को जबरदस्‍त थ्रस्‍ट या पावर या शक्ति देने के लिए अधिक ईंधन का उपयोग नहीं किया जाता है। इसकी वजह से मिसाइल या रॉकेट का वजन काफी कम हो जाता है। इस तकनीक में दरअसल, हमारे वायुमंडल में मौजूद हवा का इस्‍तेमाल कर रॉकेट या मिसाइल की स्‍पीड को बढ़ाया जाता है। इसको आसान भाषा में यदि कहा जाए तो पहले रॉकेट या मिसाइल को ताकत देने के लिए ईंधन के तौर पर हाइड्रोजन और ऑक्‍सीजन को मिलाकर प्रयोग किया जाता था। इन दोनों को निश्चित मात्रा में भरना जरूरी होती था। इसकी वजह से रॉकेट या मिसाइल का वजन बढ़ जाता था। इसका असर सीधेतौर पर उसकी स्‍पीड और उसकी क्षमता पर भी पड़ता था। आर्थिक रूप से भी ये काफी महंगा सौदा होता है।

    इसके बाद वैज्ञानिकों ने इस बात पर गौर किया कि क्‍या ईंधन के तौर पर शामिल की गई आक्‍सीजन को इसमें न भरकर वातावरण में मौजूद ऑक्‍सीजन का इस्‍तेमाल किया जा सकता है। जवाब था हां। हालांकि इसमें काफी समय लगा लेकिन वैज्ञानिकों को इसमें सफलता हासिल हुई। 1960 में इसका पहली बार प्रयोग किया गया और इसको रैमजेट तकनीक का नाम दिया गया। इस नई तकनीक से ईंधन के तौर पर दो चीजों को रखने की जरूरत खत्‍म हो गई। आपको बता दें कि जब तक ऑक्‍सीजन के ईंधन के तौर पर रॉकेट में रखा जाता था तब तक सोनिक स्‍पीड तक पहुंचा जा सकता था। लेकिन बाहर से ईंधन लेने के बाद और न सिर्फ रॉकेट या मिसाइल की स्‍पीड को बढ़ाया जा सका बल्कि ये दूसरे शब्‍दों में किफायती भी रहा।

    इस तकनीक को एयरो थर्मोडायनामिक डक्‍ट भी कहा जाता है। विज्ञान की भाषा में इसको एयरब्रीदिंग इंजन कहा जाता है। ये ऐसा इंजन होता है जो वातावरण में मौजूद हवा का इस्‍तेमाल अपनी गति को बढ़ाने के लिए करता है। इसमें किसी भी तरह के एक्सियल कंप्रेसर की जरूरत नहीं पड़ती है। ये इंजन सुपरसॉनिक स्‍पीड या 3 मैक की स्‍पीड पर बेहतर तरीके से काम करता है। इसकी स्‍पीड छह मैक तक जा सकती है।