जानिए, क्या होता है एफडीआई? देश की तरक्की में मदद करता है विदेशी निवेश
भारत से बाहर रहने वाला कोई व्यक्ति या कंपनी जब एक भारतीय कंपनी में पूंजी निवेश करता है तो उसे विदेशी निवेश कहते हैं।
हरिकिशन शर्मा, नई दिल्ली। पिछले हफ्ते जब वाल्मार्ट-फ्लिपकार्ट डील की खबर आई तो विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) भी एक बार फिर चर्चा में आ गया। एफडीआई क्या है? इसके मायने क्या हैं? हमारी अर्थव्यवस्था को विदेशी निवेश किस प्रकार प्रभावित करता है? 'जागरण पाठशाला' के 10वें अंक में हम यही समझने का प्रयास करेंगे।
-विदेशी निवेशक की हिस्सेदारी 10 प्रतिशत से अधिक होने पर उसे मान लिया जाता है एफडीआई
भारत से बाहर रहने वाला कोई व्यक्ति या कंपनी जब एक भारतीय कंपनी में पूंजी निवेश करता है तो उसे विदेशी निवेश कहते हैं। विदेशी निवेशक उस कंपनी के शेयर खरीद सकता है, बांड खरीद सकता है या खुद नया कारखाना लगा सकता है। लेकिन यह पूंजी निवेश 'रिपार्टिएबल बेसिस' पर होता है। इसका मतलब यह है कि विदेशी निवेशक ने यहां जो भी पूंजी निवेश किया है, उसे वह निकालकर स्वदेश वापस ले जा सकता है।
विदेशी निवेशक हमारे देश में दो प्रकार से निवेश कर सकते हैं- विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश (एफपीआई)। एफडीआइ के तहत किसी भी दूसरे देश की परियोजना या कंपनी में किया जाने वाला निवेश एफडीआइ है। दरअसल यह सीधा निवेश होता है और आम तौर पर दीर्घावधि के लिए होता है। विदेशी कंपनी इसके जरिए मेजबान देश की कंपनी के प्रबंधन में अहम हिस्सेदारी खरीदकर अपनी उपस्थिति दर्ज करती है। भारतीय कंपनी में उनकी प्रत्यक्ष भागीदारी होती है।
विदेशी निवेशक सूचीबद्ध और गैर-सूचीबद्ध भारतीय कंपनी में निवेश कर सकते हैं। लेकिन सूचीबद्ध कंपनी में न्यूनतम 10 फीसद हिस्सेदारी लेने को एफडीआइ की श्रेणी में रखा जाता है। एफडीआई के तहत न केवल पूंजी आती है बल्कि ऐसे निवेशक प्रौद्योगिकी भी लाते हैं। यही वजह है कि एफडीआई को परिसंपत्ति सृजक के रूप में माना जाता है। सरकार ने अलग-अलग क्षेत्रों में एफडीआई की सीमा अलग-अलग तय की है। सरकार समय-समय पर इस सीमा की समीक्षा भी करती है।
दूसरी ओर जब विदेशी निवेशक शेयर बाजार में सूचीबद्ध भारतीय कंपनी के शेयर खरीदकर 10 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी खरीदता है तो उसे एफपीआई कहते हैं। यह निवेश शेयरों और बांड के रूप में होता है। वैसे जब कोई विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक दस प्रतिशत से अधिक हिस्सेदारी खरीद लेता है तो उसे फिर एफडीआई ही माना जाता है।
पोर्टफोलियो विदेशी निवेश आम तौर पर अल्पावधि के लिए होता है। यह परोक्ष निवेश होता है। एक पोर्टफोलियो निवेशक अपने फायदे और नुकसान को देखते हुए अचानक भारतीय कंपनी के शेयर या बांड बेचकर यहां से निकल सकता है। इसलिए इसे धन सृजन के रूप में भी जानते हैं। परोक्ष निवेश की इस श्रेणी में एफआइआइ (विदेशी संस्थागत निवेशक) भी आते हैं।
एफआइआइ का मतलब भारत से बाहर स्थापित उन संस्थाओं और कंपनियों से है जो भारतीय शेयर बाजार में निवेश करना चाहते हैं। ऐसे निवेशक एफआइआइ के रूप में सेबी के पास पंजीकृत होते हैं। विदेशी पेंशन फंड, म्युच्युअल फंड और बैंक इसके उदाहरण हैं। भारत में रिजर्व बैंक और औद्योगिक नीति एवं संवर्द्धन विभाग (डीआइपीपी) विदेशी निवेश के आंकड़े जारी करता है।
ग्रीनफील्ड बनाम् ब्राउनफील्ड
एफडीआई का स्वरूप कई प्रकार का हो सकता है। उदाहरण के लिए 'ग्रीनफील्ड और ब्राउनफील्ड'। जब एक विदेशी कंपनी भारत में निवेश कर अपना नया कारखाना स्थापित करती है, कोई डिस्ट्रीब्यूशन फैसेलिटी बनाती है, नया स्टोर शुरु करती है तो उसे 'ग्रीनफील्ड' एफडीआइ कहते हैं। लेकिन जब विदेशी कंपनी भारत में नया कारखाना लगाने के बजाय पहले से ही चल रहे कारखाने या ब्रांड में हिस्सेदारी खरीदकर या अधिग्रहण कर उसके प्रबंधन पर अपना नियंत्रण हासिल कर लेती है तो उसे 'ब्राउनफील्ड' एफडीआइ कहते हैं।
ऑटोमेटिक रूट या गर्वंमेंट रूट
विदेशी निवेशक भारतीय कंपनियों में दो रास्तों से निवेश कर सकते हैं- ऑटोमेटिक रूट और गर्वंमेंट रूट। ऑटोमेटिक रूट के तहत विदेशी निवेशकों को निवेश करने के लिए भारत सरकार या भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति नहीं होती है। हालांकि ऑटोमेटिक रूट से सिर्फ उन्हीं क्षेत्रों और गतिविधियों में विदेशी निवेश किया जा सकता है जिनका स्पष्ट उल्लेख विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून (फेमा) के नियमों के तहत किया गया है। दूसरी ओर जो क्षेत्र ऑटोमेटिक रूट के दायरे में नहीं आते, उनमें निवेश के लिए सरकार की अनुमति आवश्यक होती है, इसलिए इस व्यवस्था को गर्वंमेंट रूट के तौर पर जाना जाता है।