2005 के विस्फोट से ही सुलग रहा बैरन आइलैंड
इसरो के वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि 2005 के विस्फोट का ही नतीजा है 2017 में निकला लावा। नए अध्ययन से क्षेत्र की प्रकृति को समझने में मिलेगी मदद
नई दिल्ली (आइएसडब्ल्यू)। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने हाल ही में किए गए एक अध्ययन में निष्कर्ष निकाला है कि बैरन आइलैंड ज्वालामुखी से 2017 में जो लावा निकला था वह दरअसल 2005 के ज्वालामुखी विस्फोट का ही सिलसिला है। ध्यान रहे कि बैरन आइलैंड भारत और दक्षिण एशिया का एकमात्र सक्रिय ज्वालामुखी है। यह पोर्ट ब्लेयर से 135 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित है।
इस ज्वालामुखी में पहला बड़ा विस्फोट 1787 में हुआ था। करीब 150 वर्ष तक शांत रहने के बाद यह 1991 में फिर फटा था। तब से इस ज्वालामुखी में बीच-बीच में सक्रियता दिख रही है। ताजा गतिविधि की जानकारी वैज्ञानिकों ने जनवरी 2017 में दी थी। ये वैज्ञानिक वहां ज्वालामुखी गतिविधियों का अध्ययन करने गए थे। वर्तमान अध्ययन में वैज्ञानिकों ने 2005 से 2017 तक ज्वालामुखी क्षेत्र में हुए परिवर्तनों और लावा के प्रवाह के मार्ग को समझने के लिए उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों का प्रयोग किया।
द्वीप के छोटे भू क्षेत्र और आसपास के समुद्र के कारण राडार तकनीकों से ज्वालामुखी की त्रिआयामी तस्वीर बनाना मुश्किल था। अत: वैज्ञानिकों ने ज्वालामुखी के आकार में हुए परिवर्तनों की पहचान करने के लिए विजिबल, शार्ट- वेव इंफ्रारेड और थर्मल इंफ्रारेड बैंड्स में हासिल की गई तस्वीरों का प्रयोग किया। ज्वालामुखी के लावा, राख और गैसें उगलने वाले सक्रिय छिद्र के चारों तरफ बना गड्ढा ज्वालामुखी विस्फोट की निशानी है।
उपग्रह की तस्वीरों से पता चलता है कि जनवरी 2017 में जो छिद्र सक्रिय थे वे उस गड्ढे में स्थित हैं, जो 2005 में हुए विस्फोट से बना है, न कि 1991 में हुए विस्फोट से। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि हाल में देखी गई ज्वालामुखी गतिविधि 2005 में हुए विस्फोट का ही विस्तार है। वैज्ञानिकों ने यह भी पता लगाया कि 2005 के विस्फोट ने लावा के प्रवाह के लिए तीन अलग-अलग दिशाओं में मार्ग बनाए। पहले लावा सिर्फ पश्चिम दिशा में बह रहा था। उन्होंने इस बात की भी पुष्टि कर दी कि 2005 के विस्फोट के बाद ज्वालामुखी से लावा की निकासी बढ़ गई है।
ज्वालामुखीय विस्फोटों से निकलने वाली विषाक्त गैसों, राख और लावा का वनस्पति पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ता है और यह जगह जानवरों के रहने के लिए उपयुक्त नहीं रहती। इन विस्फोटों से वायुमंडल में उत्सर्जित होने वाली कार्बन डाईऑक्साइड और सल्फर डाईऑक्साइड से प्रदूषण बढ़ता है। ज्वालामुखी कब फटेगा, इसका पूर्वानुमान लगाना मुश्किल है, लेकिन इन विस्फोटों की निरंतर निगरानी करने से विस्फोटों के कारणों और परिणामों के बारे में हमारी समझ बढ़ती है और हम इनसे होने नुकसान को कम करने के बेहतर उपाय खोज सकते हैं।
इस अध्ययन के नतीजे बुलेटिन ऑफ वोल्केनोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। रिसर्च टीम में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के नेशनल रिमोट सेंसिंग केंद्र और जियोसाइंस के वैज्ञानिक तपस आर. मार्था, प्रियम रॉय और के. विनोद कुमार शामिल थे।
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