आजादी का महामंत्र: 150 साल बाद भी क्यों जरूरी है 'वंदे मातरम्' के इतिहास पर खुली बहस?
प्रधानमंत्री मोदी ने 'वंदे मातरम्' की 150वीं वर्षगांठ मनाने की घोषणा की है, जो स्वतंत्रता संग्राम का महामंत्र था। इस पर लोकसभा में आज यानी 8 दिसंबर को ...और पढ़ें

बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगांठ को राष्ट्रीय स्तर पर भव्य तरीके से मनाने की चर्चा जोरों पर है। वहीं संसद के शीतकालीन सत्र में 8 और 9 दिसंबर को राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम्’ पर दोनों सदनों में विशेष बहस भी हो रही है। हालांकि, स्वतंत्रता संग्राम के इस महामंत्र और उद्घोष के ऐतिहासिक महत्व को भुलाने की कोशिश की जाती रही है, इसलिए अनिर्वान गांगुली मानते हैं कि यह उचित अवसर है हमारे राष्ट्रगीत के संपूर्ण इतिहास को जानने का...
'कास और विरासत’ के आदर्श और दृष्टि के अनुरूप, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने घोषणा की है कि पूरा देश बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय के अमर गीत ‘वंदे मातरम्’ की 150वीं वर्षगांठ मनाएगा। यह शायद स्वाधीनता के बाद पहली बार है कि ऐसे राष्ट्रीय स्तर पर उस गीत का व्यापक और भव्य विधि से स्मरण किया जा रहा है, जो हमारे स्वाधीनता संग्राम का मंत्र बन गया था।
यह अवसर है स्मरण करने का कि कैसे वंदे मातरम् एक महामंत्र और भारत को मुक्त करने के लिए प्रसिद्ध उद्घोष बन गया। कैसे इसने एक पूरी पीढ़ी को प्रेरित किया कि वे भारत माता का स्वप्न देखें और उसे अभिव्यक्त करें।

विस्मृत न होगी वह व्यथा
आइए, याद करें भारत की सर्वश्रेष्ठ विज्ञानी मेधाओं में से एक आचार्य जगदीश चंद्र बोस के शब्द, जब उन्होंने 1937 में अपनी मृत्यु से कुछ माह पूर्व सुभाष चंद्र बोस को पत्र में लिखा, ‘वंदे मातरम्! भारत माता की जय! क्या कोई अपनी मां और हम सभी को पोषण-संरक्षण देने वाली भारत माता में विभेद कर सकता है? इसने इस राष्ट्रीय गीत को पूरे भारत में फैलाया है। यही इसकी भौतिक अपील है, जिसने भारतीयों के दिलों को छू लिया है।’
जगदीश बोस इस बात से व्यथित थे कि अपूर्ण वंदे मातरम् गाने का प्रयास किया गया। बेशक, उनके लिए जो अक्सर वंदे मातरम् का अर्थ और सार विकृत करते हैं, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा इस ऐतिहासिक स्मरणोत्सव के आह्वान को लेकर खलल पड़ा है।
वे चाहते हैं कि हम उस ऐतिहासिक सत्य को भूल जाएं कि 1937-38 में कांग्रेस ने मुस्लिम लीग और जिन्ना के दबाव में आकर इस गीत को संक्षिप्त रूप में गाना स्वीकार किया। कांग्रेस हमें अतीत को भूलने और खासकर जिन्ना की सांप्रदायिकता के सामने घुटने टेकने का घटनाक्रम विस्मृत कराना चाहती है।
वामपंथ का विष वमन
कम्युनिस्ट-वामपंथी शक्तियां भी ऐसा उत्सव नहीं चाहतीं, क्योंकि भारत की वह धारणा और कल्पना-जिसे ‘भारत माता’ कहा जाता है- उनके लिए असह्य है। उनकी राजनीति पर विदेशी सिद्धांत हावी हैं, जो भारत की सभ्यता और धर्मिक मूल के विरोधी हैं।
मुजफ्फर अहमद, जो भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे, ने कहा था कि आनंद मठ ‘संपूर्ण रूप से सांप्रदायिक घृणा से भरा है’ और ‘वंदे मातरम्’ जैसा गीत एकेश्वरवाद में विश्वास रखने वाले मुस्लिमों के लिए अस्वीकार्य है। इस प्रकार देखें, तो सार्वजनिक रूप से नास्तिक होने के बावजूद वामपंथी मुजफ्फर अहमद जिन्ना की पार्टी मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक नीति का समर्थन करते थे।

तुष्टिकरण को टेके घुटने
पंडित जवाहरलाल नेहरू, वंदे मातरम् के संक्षिप्तीकरण करने के प्रस्ताव के मुख्य प्रायोजक और नेता थे। वंदे मातरम् के इस विभाजन के एक दशक से भी कम समय में भारत का भी विभाजन हो गया। नेहरू के सहयोगी सी. राजगोपालाचारी ने 1939 में मद्रास से एक पत्र में अपनी असहमति व्यक्त की और इस कदम को मुस्लिम लीग के दबाव में हुआ समझौता माना।
उन्होंने लिखा, ‘ये रियायतें स्थिति को नहीं संभालेंगी। ऐसी छूट अंतत: आंदोलन का मुद्दा बनेगी और इससे शांति का कोई अवसर नहीं मिलेगा। इससे हिंदू मनोवृत्ति कमजोर हो सकती है और सर्वव्यापी में निराशा फैल सकती है।’
वहीं मुस्लिम लीग के अनुकूल मत वाले अखबार स्टार आफ इंडिया ने इस निर्णय का स्वागत करते हुए संपादकीय में लिखा, ‘यह वंदे मातरम् के सम्मानपूर्ण अंत का प्रारंभ है।’ विडंबना यह है कि कांग्रेस ने मुस्लिम लीग की ऐसी शर्त को माना, फिर भी जिन्ना असंतुष्ट रहे।
उन्होंने मार्च 1938 में (जब कांग्रेस का उक्त प्रस्ताव व्यापक रूप से प्रचारित हो चुका था) पंडित नेहरू को लिखा कि ‘मुसलमानों ने वंदे मातरम् या उसके किसी भी संपादित संस्करण को, बाध्यताकारी राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार करने से इन्कार कर दिया है।’
वरिष्ठ कांग्रेस नेता, रफी अहमद किदवई ने इंगित किया था कि ‘सालों से, इस गीत को कांग्रेस सत्रों की शुरुआत में गाया जाता था और मुस्लिमों, जिनमें जिन्ना भी शामिल थे, की आपत्ति 20वीं शताब्दी के तीसरे दशक के अंतिम वर्षों में ही उठी।’

वह शत्रु तो अंग्रेज थे
मुस्लिम लीग के आरोप और कांग्रेस द्वारा यह स्वीकार किए जाने के जवाब में कि वंदे मातरम् मुस्लिम विरोधी है, रामानंद बाबू ने नवंबर 1937 के ‘माडर्न रिव्यू’ के अंक में लिखा, ‘मुसलमानों या किसी अन्य धार्मिक समुदाय का इसमें कहीं भी उल्लेख नहीं है।
इसमें किसी शत्रु दल का उल्लेख माना जा सकता है, ‘रिपुदल-वारिणिम’ के अर्थ में - ‘जिसने दुश्मन दल को नियंत्रित किया है’, लेकिन इसकी पिछली पंक्ति में ही भारत की गर्जना है- ‘सप्तकोटि कंठ की गर्जना’। बंगाल प्रांत (बिहार और उड़ीसा समेत) के ये सात करोड़ लोग, जिनके लिए यह गीत लिखा गया था, सभी धर्मावलंबियों का साझा समूह है, जो मातृभूमि को श्रद्धा से नमन करते हैं। इसलिए उनमें से एक वर्ग मुसलमान, ‘शत्रु दल’ नहीं हो सकते।’
रामानंद बाबू ने तर्क दिया कि, ‘जिस युद्ध का वर्णन उपन्यास ‘आनंदमठ’ में किया गया है, वह अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना से लड़ा गया था। यदि किसी शत्रु का उल्लेख है, तो यह ब्रिटिश कंपनी की सेना ही है।’
दिग्गज पत्रकार का प्रतिकार
आधुनिक भारतीय पत्रकारिता के दिग्गज और ‘माडर्न रिव्यू’ तथा ‘प्रवासी’ के संस्थापक संपादक रामानंद चट्टोपाध्याय ने लिखा था कि वंदे मातरम् अनेक साहसिक कार्यों, बलिदान की स्मृतियों और स्वतंत्रता के संघर्ष से जुड़ा हुआ है। यह केवल बांग्ला भाषी या हिंदुओं का गीत नहीं बल्कि गैर-बांग्ला भाषी और मुसलमान भी इस गीत से प्रेरित हुए थे। रामानंद बाबू गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, श्री अरविंद आदि के करीबी और सहयोगी थे। वास्तव में, रामानंद बाबू सही थे।
प्रतिष्ठित पत्रकार, लेखक और विचारक रिजआउल करीम ने वंदे मातरम् और ‘आनंदमठ’ की प्रशंसा की। करीम ने तर्क दिया कि विश्व साहित्य में कुछ पुस्तकें हैं, जिनका राष्ट्र, समाज और धर्म पर जादुई प्रभाव होता है। ऐसी साहित्यिक रचनाएं इतिहास रचती हैं, नई जाति बनाती हैं और बंकिम चंद्र रचित ‘आनंदमठ’ उन पुस्तकों में से एक है।
उन्होंने ‘आनंदमठ’ और उसमें मौजूद वंदे मातरम् को फ्रेंच राष्ट्रीय गीत ‘ ला मार्सिले’ के समान माना, जिसने एक पूरे देश और नस्ल को प्रेरित किया। करीम ने यह भी तर्क दिया कि गीत पर विवाद को बढ़ावा देने का प्रयास मुस्लिमों को स्वतंत्रता संग्राम से बाहर करने की एक कुचेष्टा थी। वास्तव में देखा जाए, तो उन लोगों को, जिन्होंने कहा कि यह गीत ‘मुसलमान विरोधी’ है, रामानंद चट्टोपाध्याय ने तीखी प्रतिक्रिया दी थी।
इसके उपरांत मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में, वंदे मातरम् को ‘सांप्रदायिक’ और ‘मुसलमान विरोधी’ बताने का आंदोलन शुरू किया गया, ताकि इसे हमारे राष्ट्रीय जीवन से हटा दिया जाए। आज वह समय है, जब वंदे मातरम् की बहस होनी चाहिए, लेकिन इतिहास को पूरी संपूर्णता में जानना चाहिए, ताकि एक जागरूक चर्चा हो सके।

(लेखक- अनिर्वान गांगुली, श्यामा प्रसाद मुखर्जी शोध फाउंडेशन के अध्यक्ष हैं)
यह भी पढ़ें- 200 छात्रों पर अंग्रेजों ने ठोका था 5-5 रुपये का जुर्माना, गीत से राष्ट्रगीत बनने की 'वंदे मातरम्' की अनोखी कहानी

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।