विदेशियों को पुरखों से मिलाएगा उत्तराखंड का पर्यटन विभाग, जानिए कैसे
भारत की स्वाधीनता से पहले उत्तराखंड हजारों विदेशियों का घर था। इनमें ब्रिटेन, फ्रांस व न्यूजीलैंड आदि देशों के नागरिक शामिल थे।
देहरादून, विकास गुसाईं। ब्रिटिशकाल में नैनीताल, मसूरी, रानीखेत व लैंसडौन आदि इलाकों में अपने जीवन के अंतिम दिन बिताने वाले ब्रिटिश अधिकारियों की कब्र अब उनके वंशजों तक पहुंचने का जरिया बनेंगी। पर्यटन विभाग इन इलाकों में ब्रिटिश अधिकारियों की कब्रों की पहचान कर उनके वंशजों को तलाशेगा। मकसद यह है कि इस जानकारी के बाद यह वंशज उत्तराखंड की ओर रुख करें और इसी बहाने इस क्षेत्र से भी रूबरू हों।
भारत की स्वाधीनता से पहले उत्तराखंड हजारों विदेशियों का घर था। इनमें ब्रिटेन, फ्रांस व न्यूजीलैंड आदि देशों के नागरिक शामिल थे। ये विदेशी विशेषकर कैंटोन्मेंट इलाकों में रहते थे। इनमें से अधिकांश ने यहीं अपनी अंतिम सांस ली। इन्हें दफनाने के लिए यहीं कब्रिस्तान बनाए गए। 18 वीं सदी में बने इन कब्रिस्तानों में हजारों विदेशियों के शरीर दफन हैं, जिनमें से कुछ प्रसिद्ध हस्तियां भी शामिल हैं। इनमें अंग्रेजों के खिलाफ महारानी लक्ष्मी बाई का मुकदमा लडऩे वाले आस्ट्रेलियाई जॉन लैंग के अलावा कई ब्रिटिश सैन्य अधिकारी व उनके परिजन शामिल हैं। हालांकि, इनमें कई कब्रें ऐसी हैं जिनके वशंजों के बारे में बहुत जानकारी नहीं है।
बावजूद इसके बीते वर्षों में कई विदेशी अपने परिजनों को तलाशने इन कब्रिस्तानों तक पहुंचे हैं। इनमें से कुछ को सफलता भी मिली है। राज्य गठन के बाद इनमें से कई कब्रें अब नष्ट भी हो चुकी हैं। इसाई समुदाय द्वारा इसकी आवाज उठाने के बाद अब इनकी सुरक्षा को लेकर कुछ कदम उठाए गए हैं। इन कब्रिस्तानों में इतनी कब्रें हैं जिनकी पहचान करना भी मुश्किल है।
इसे देखते हुए पर्यटन विभाग अब इन कब्रिस्तानों के के पुराने दस्तावेजों के आधार पर इनके वशंजों को खोजने की तैयारी कर रहा है ताकि प्रदेश में विदेशी पर्यटकों की संख्या में भी इजाफा हो सके। हालांकि, यह योजना कोई नई नहीं है। अविभाजित उत्तर प्रदेश के समय से इस योजना पर विचार चल रहा था। अब कहीं जाकर इसे अमलीजामा पहनाया जा सका है। इसके लिए विभाग ने बाकायदा पर्यटन नीति में इसका प्रावधान किया है। 'नो यूअर रुट्स' (अपनी जड़ों को पहचानें) थीम के तहत विभाग ने इसे पर्यटन नीति में स्थान दिया है।
पर्यटन सचिव दिलीप जावलकर ने बताया कि इन कब्रिस्तानों का पूरा डाटा एकत्र किया जा रहा है। इनके वंशजों का अंतिम रिकार्ड भी देखा जा रहा है। इसकी एक सूची बनाकर देश-विदेश में प्रकाशित की जाएगी ताकि उनके वंशजों के बारे में जानकारी मिल सके।
मसूरी कब्रिस्तान
मसूरी में ब्रिटिशकाल के दो कब्रिस्तान हैं। इनकी स्थापना वर्ष 1829 के आसपास की मानी जाती है। इनमें एक कैमल्स बैक रोड और दूसरा लंढौर में है। यहां बड़ी संख्या में विदेशी नागरिकों की कब्र हैं। इनमें से अब काफी खंडित भी हो गई हैं।
नैनीताल कब्रिस्तान
कहा जाता है कि ब्रिटिशकाल में नैनीताल में पांच कब्रिस्तान थे। इनमें से फिलहाल दो का ही वजूद है। इनमें एक कालाढूंगी मार्ग पर है और दूसरा चीड़ के जंगलों के पास। इसे सीमिट्री नियर पाइंस भी कहा जाता है। कुछ समय पहले यहां ब्रिटेन की सूजी गिल्बर्ट अपनी नानी की कब्र ढूंढने पहुंची थी और सोशल मीडिया पर उन्होंने यह जानकारी साझा की थी।
लैंसडौन कब्रिस्तान
माना जाता है कि लैंसडौन में कब्रिस्तान 1887 के दौरान बना। यहां लंबे समय तक अंग्रेजी सेनाए रहीं। माना जाता है कि यहां अंग्रेज अधिकारियों की सबसे अधिक कब्र हैं। यहां प्रतिवर्ष देश विदेश से इनके वंशज अपने परिजनों को श्रद्धासुमन अर्पित करने आते हैं।
रानीखेत कब्रिस्तान
रानीखेत में ब्रिटिश सेना ने 1869 में एक रेजीमेंट स्थापित की थी। इसके बाद ही यहां कब्रिस्तान भी बना। कहा जाता है कि यहां ब्रिटिश व कॉमनवेल्थ राष्ट्रों के 20 से अधिक बड़े अधिकारियों की कब्रें बनी हुई हैं।