UPSC NDA Exam: सशस्त्र बलों में अब न टूटे महिला अभ्यर्थियों की उम्मीद
UPSC NDA Exam सशस्त्र बलों में लैंगिक समानता लाने वाले निर्णय समाज और परिवार के पूरे मनोविज्ञान पर असर डालने वाले हैं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले घर ही नहीं दफ्तर में भी महिलाओं की जरूरतों और सहूलियतों पर सोचने के हालात बनाने वाले हैं।

डा. मोनिका शर्मा। UPSC NDA Exam बीते सितंबर माह में सुप्रीम कोर्ट द्वारा महिला अभ्यर्थियों को राष्ट्रीय रक्षा अकादमी (एनडीए) की परीक्षा में बैठने की अनुमति का फैसला लैंगिक समानता के मोर्चे पर एक अहम निर्णय रहा। बेटियों की शिक्षा और सेना में लैंगिक विभेद मिटाने की नई लकीर खींचने वाले इस निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने महत्वपूर्ण अंतरिम आदेश जारी करते हुए महिला उम्मीदवारों को राष्ट्रीय रक्षा अकादमी की परीक्षा में सम्मिलित होने की छूट देते हुए कहा था कि सेना खुद भी खुलापन दिखाए।
अब केंद्र सरकार ने एनडीए परीक्षा में महिला उम्मीदवारों को शामिल करने के लिए बुनियादी ढांचे और पाठ्यक्रम में बदलाव की आवश्यकता को जरूरी बताते हुए मई 2022 तक का समय मांगा है। हालांकि मामले की गंभीरता को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने दोहराया है कि ‘महिलाओं के प्रवेश को स्थगित नहीं किया जा सकता। पीठ के मुताबिक हम चीजों में एक साल की देरी नहीं कर सकते। अनुमति देने की प्रक्रिया को स्थगित करने से महिला उम्मीदवारों को वर्ष 2023 तक शामिल करने में देरी होगी। हमने लड़कियों को उम्मीद दी थी। हम उनकी उम्मीदों से इन्कार नहीं कर सकते।’
दरअसल सेना ही नहीं, बल्कि कई क्षेत्रों में आज भी महिलाओं के लिए सहज और सहयोगी व्यवहार के साथ-साथ बुनियादी ढांचे का भी अभाव है। समग्र रूप से ऐसी स्थितियां हर कदम पर उनकी हिस्सेदारी बढ़ाने में व्यवधान बनती हैं। अब तक सेना में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाने में हो रही देरी भी इसी का उदाहरण माना जा सकता है। तकलीफदेह है कि आज भी बुनियादी सुविधाओं की कमी और बंधी बंधाई सोच के बने रहने से योग्यता और क्षमता के बावजूद स्त्री होने भर से कई मोर्चो पर पीछे रह जाने की पीड़ा बेटियों के हिस्से है। उनके जीवन को लगभग हर मोर्चे पर बदलाव का इंतजार है। प्रतिगामी सोच और तुगलकी फरमानों के समाचार भी आए दिन सामने आते रहते हैं। दुखद है कि दोयम दर्जे के सोच से निकले बिना भेदभाव की स्थिति घरेलू ही नहीं, कामकाजी परिवेश में भी बनी रहेगी। यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय रक्षा अकादमी और सैनिक स्कूलों में महिलाओं को मौका न देने के लिए भारतीय सेना को ‘रिग्रेसिव माइंडसेट’ बदलने के लिए भी कहा था। ऐसे में अब सशस्त्र बलों में महिलाओं की भागीदारी को विस्तार देने वाली इस प्रक्रिया में विलंब नहीं किया जाना चाहिए।
देश में लड़कियों के लिए सैनिक स्कूलों में पढ़ने के रास्ते भी हाल ही में खुले हैं। इस वर्ष स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सैनिक स्कूल में छात्रओं के नामांकन की घोषणा की थी। विचारणीय है कि यह हक भी बेटियों को आजादी की आधी सदी से ज्यादा का समय बीत जाने की बाद मिल रहा है। जबकि शिक्षा, सजग विचार और अपने सपनों को पूरा करने का जज्बा लिए बेटियां हर क्षेत्र में सशक्त मौजूदगी दर्ज करवा रही हैं। कुछ समय पहले भारतीय नौसेना में भी पहली बार दो महिला अधिकारियों की तैनाती युद्ध पोत पर की गई है। नौसेना में महिलाओं को यह अहम जिम्मेदारी मिलना भी सैन्य क्षेत्रों में महिलाओं की सहभागिता से जुड़े मोर्चे पर एक नई शुरुआत रही।
दरअसल सशस्त्र बलों में लैंगिक समानता लाने वाले निर्णय समाज और परिवार के पूरे मनोविज्ञान पर असर डालने वाले हैं। ये घर ही नहीं, दफ्तर में भी उनकी जरूरतों और सहूलियतों पर सोचने के हालात बनाने और आधी आबादी के प्रति बदलाव की बुनियाद को पुख्ता करने वाले हैं। इसके साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य तथा पोषण और आर्थिक आत्मनिर्भरता जैसे मानवीय पहलुओं पर बराबरी लाने और बेटियों को आगे बढ़ने का परिवेश बनाने का सकारात्मक संदेश भी लिए हैं। ऐसे में लैंगिक भेदभाव को दूर करने की दिशा में अहम माने जाने वाले इस फैसले को लागू करने में देरी न हो तो बेहतर है।
[सामाजिक मामलों की जानकार]
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