पहाड़ पर चढ़कर बस गए और नीचे से काटकर सड़क बना रहे हैं... हमसे बड़ा 'कालीदास' कौन, खास बातचीत में बोले डॉ. बिष्ट
इस लेख में रुमनी घोष ने डॉ. एमपीएस बिष्ट से बात की जिन्होंने पहाड़ों में हो रही तबाही के कारणों पर प्रकाश डाला। उन्होंने बताया कि 1893 1970 और 2013 की आपदाओं से सबक न लेने के कारण आज भी वैसी ही स्थिति बनी हुई है। डॉ. बिष्ट ने अनियोजित विकास और नियमों के उल्लंघन को इन आपदाओं का मुख्य कारण बताया।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। इस बार मानसून के दौरान जो तबाही हुई, वह यह समझने-समझाने के लिए काफी है कि नियमों को ताक पर रखकर हो रही बसाहट के खिलाफ प्रकृति ने अभियान छेड़ दिया है। पहाड़ी इलाके से शुरू कर मैदानी हिस्से तक में हुए असर से साफ है कि अभी भी नहीं संभले तो आने वाले समय में और तबाही हो सकती है।
खासतौर पर उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश में प्रदेश के लगभग एक-तिहाई हिस्से में जान-माल को काफी नुकसान हुआ है। पहाड़ और पहाड़ी जनजीवन को बचाने के लिए लंबे समय से जुटे हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय में जियोलाजी विभाग के प्रमुख डा. एमपीएस बिष्ट कहते हैं पहाड़ में बसाहट का एक 'पिरामिड' फार्मूला होता है। यह चार हिस्सों में बंटा हुआ है। इसे हम लोग भूल चुके हैं। जिस पहाड़ पर चढ़कर मनमाने ढंग से बसाहट कर ली और फिर उसके ही निचले हिस्से को काटकर सड़क बनाने में जुट गए। हमसे बड़ा 'कालिदास' कौन होगा।
उत्तराखंड में 1893 में हुआ भीषण भूस्खलन, 1970 की अलकनंदा त्रासदी और 2025 की तबाही आकलन करते हुए बताते हैं इसके लिए सरकार और जनता दोनों ही बराबर की दोषी हैं। डा. बिष्ट उत्तराखंड अंतरिक्ष उपयोग केंद्र (यूसैक) के महानिदेशक भी रह चुके हैं। पर्यावरण भूविज्ञान, प्राकृतिक संसाधन प्रबंधन, रिमोट सेंसिंग, जीआइएस माडलिंग में उनकी विशेषज्ञता है।
हिमालय रेंज में बसाहट को सुनियोजित कर किस तरह से प्राकृतिक आपदाओं से बचा जा सकता है, इसको लेकर वह राज्य सरकार से लेकर प्रधानमंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार के सामने प्रेजेंटेशन दे चुके हैं। दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। प्रस्तुत हैं बात चीत के प्रमुख अंशः
इस मानसून ने पहाड़ी राज्यों में जो तबाही मचाई है, वैसी व्यापक तबाही की स्थिति इससे पहले कब-कब हुई है?
पहाड़ी राज्यों में इस सदी की सबसे बड़ी त्रासदी 1970 में अलकनंदा नदी में आई बाढ़ को माना जाता है। भीषण बाढ़ एक विनाशकारी घटना थी, जिसमें बद्रीनाथ के पास हनुमान चट्टी से हरिद्वार तक 320 किलोमीटर लंबा क्षेत्र प्रभावित हुआ, जिससे 600 की जान चली गई और श्रीनगर शहर सहित आसपास के कुछ गांव पूरी तरह तबाह हो गए थे। यह बाढ़ गोहना झील के भूस्खलन बांध के पूरी तरह टूट जाने के कारण आई थी, जिसने चमोली के निचले इलाकों को प्रभावित किया था। मगर यह घटना क्यों हुई और हमने किस तरह से नियमों का उल्लंघन किया, यह समझने के लिए और 77 साल पीछे, यानी वर्ष 1893 में जाना पड़ेगा।
132 साल पहले तो पहाड़ों पर आज जैसी बसाहट नहीं थी। न ही सड़कें और मनमाने निर्माण थे... फिर यह स्थिति क्यों बनीं? 1893, 1970, 2013 और 2025 की तुलना किस तरह करेंगे?
यह अंतर इतना रोचक और स्पष्ट है। वर्ष 1893 में हुए लैंडस्लाइड से बिरही नदी (बिरही गंगा) के डेढ़ से दो किमी अपस्ट्रीम पर सतह से 300-400 मीटर ऊपर तक अस्थायी डैम बन गया था। यदि यह डैम फूट जाता तो अलकनंदा से लेकर इलाहाबाद तक तबाही मच सकती थी, लेकिन ब्रिटिश आर्मी ने अपनी सूझबूझ, योजनाबद्ध बचाव कार्य और सही बसाहट की वजह से जान-माल का नुकसान होने से बचा लिया था। पहाड़ी इलाकों में आपदा प्रबंधन का यह एक नायाब उदाहरण है।
वर्ष 1894 में ब्रिटिश आर्मी ने इस झील की क्षमता को कम करने के लिए इस झील को तोड़ने का काम शुरू किया। ब्रिटिश आर्मी ने वहां से लेकर ऋषिकेश तक सिंगल केबल लाइन बिछाई। उस वक्त आज की तरह न संचार व्यवस्था थी और न ही बचाव के लिए आधुनिक संसाधन। बावजूद इसके ब्रिटिश आर्मी ने वहां से लेकर ऋषिकेश (200-250 किमी) दूरी तक सिंगल केबल लाइन बिछा दी। आर्मी सिगनल्स को कोड-डिकोड करते हुए संचार प्रणाली स्थापित की। उसके जरिये पानी के बहाव की सूचना देते रहे।
उस सूचना के आधार पर नदी के आसपास की बसाहट को हटाया गया और उसके बाद डैम की ऊंचाई लगभग 100 फीट तक कम की गई। बावजूद इसके पानी का बहाव इतना था कि तत्कालीन गढ़वाल की राजधानी कहे जाने वाले संपूर्ण श्रीनगर को लील गई थी। जिसे बाद में आज के एक सुनिश्चित प्लान के अनुरूप लगभग दो किलोमीटर दूर नए स्वरुप में बसाया गया। हरिद्वार तक बाढ़ की चपेट में आ गया था। बावजूद इसके उस समय सिर्फ एक योगी की मौत हुई थी। वह भी इसलिए, क्योंकि तमाम चेतावनी के बावजूद वह बहाव क्षेत्र से नहीं हटे थे।
इसके 77 साल बाद 20-21 जुलाई 1970 को भारी बारिश और फ्लैश फ्लड (एकाएक बाढ़) की वजह से पहले बेलाकुची डैम और 24 घंटे बाद बिरही (जो 1893 में बनी थी) डैम का हिस्सा फूट गया। इसमें हजारों लोगों की जान चली गई थी। इस त्रासदी के अलावा बाद में हुई सभी घटनाओं का मैं गवाह रहा हूं। उस समय मैं स्कूल में पढ़ता था। जोशीमठ वगैरह गांव ही थे। अलकनंदा ऊपरी जलग्रहण क्षेत्र में रहने वाले ग्रामीणों के लिए उस समय बेलाकुची ही एकमात्र बाजार होता था। बाजार में खड़ी 90 कारें एक साथ डूब गई थीं।
16 जून, 2013 की रात को चोराबारी झील के टूटने और संगम पर बांध बनने के बाद आई बाढ़ के कारण केदारनाथ मंदिर के आसपास के पूरे क्षेत्र को तबाह कर दिया था। इस घटना में 5000 से ज्यादा लोगों की मौतें हुई थीं।
वर्ष 2025 में धराली सहित एक-तिहाई उत्तराखंड प्रभावित हुआ। देहरादून में 101 साल बाद इतनी बड़ी आपदा आई है।
आपके शोध में यह बात उभरकर आती है कि वर्ष 2013 से पहाड़ों के मौसम में बड़ा बदलाव आया है। क्या बदलाव है?
बिलकुल सही है। 1989 से 1998 के बीच चमोली में मंदाकिनी वैली, हरिद्वार-मंशादेवी जैसी कई घटनाएं हुईं। 2010 और 2011 में भी छोटी घटनाएं हुईं। फिर वर्ष 2013 में केदारनाथ में सदी की दूसरी बड़ी त्रासदी हुई। इसमें 5000 से ज्यादा मौतें हुई थीं। केदारनाथ त्रासदी में भी केवल तीन चैनल दूधगंगा, वासुकी गंगा, चोराबारी ग्लेशियर ही ओपन हुए थे। यानी, तीन जगह से ही पानी का प्रवाह आना शुरू हुआ था।
चोराबारी ताल में बमुश्किल 3-4 मीटर तक ही पानी जमा रहता था, परंतु उसके चारों ओर जमा मोरेन यानी हिमोढ़ (बर्फ द्वारा छोड़े गए चट्टानों और तलछट का जमा हुआ ढेर) की ऊंचाई 50-65 मीटर थी। बगल में चोराबारी ग्लेशियर का पानी इसके अंदर रिस-रिस कर बहता रहता था।
16 जून की अतिवृष्टि के चलते जल भराव हुआ और 17 जून को यह फूट गया और केदारनाथ सहित निम्न मंदाकिनी घाटी में तबाही का कारण बना। मैं वहां अक्सर जाता था, इसलिए दावे से कह सकता हूं कि उसमें पांच-10 मीटर से ज्यादा पानी नहीं रहता था। चूंकि इसके पास में बड़ा ग्लेशियर बहता था। इसके बाद घटनाएं बढ़ती गईं और लगभग हर साल कुछ न कुछ घटनाएं हो रही हैं।
बारिश के आंकड़ों में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है, फिर घटनाएं बढ़ने का क्या कारण?
जब हम लोगों ने (इनमें ग्लेशियर, पर्यावरण, पहाड़ी मानसून पर काम करने वाले विज्ञानियों या जियोलाजिस्ट) ने शोध किया तो सभी ने यह महसूस किया कि वर्ष 2013 के बाद भूस्खलन, लैंड स्लाइड्स, क्लाउड बस्ट या अतिवृष्टि जैसी घटनाएं बढ़ गई हैं। बारिश चाहे जितनी भी हो, लेकिन घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। इसका एक प्रमुख कारण यह भी है कि कि अब बारिश हाई आल्टिट्यूड (अधिक ऊंचाई) पर भी होने लग गई है।
यानी एक खास ऊंचाई को पार कर बादल पहाड़ों के ऊपरी हिस्सों में पहुंच रहे हैं। ...और जब बादल बरस रहे हैं, तो पहाड़ी नालों में जमा मोरेनिक मटेरियल (बर्फ द्वारा छोड़े गए चट्टान), लूज सेडिमेंट (कच्चा मलबा), ग्लेशियोफ्लूबियल सेडिमेंट (ग्लेशियर का मलबा) को बहाकर नीचे ले आ रहे हैं। यह सेडिमेंट 1850 साल से भी ज्यादा पुराने हैं और बर्फ के साथ चिपके हुए होते थे। अब तापमान बढ़ने से ग्लेशियर पिघलने लगे और मलबा बहकर नीचे आने लगा।
क्या खास ऊंचाई तक बारिश होती थी?
जी हां। समुद्रतल से लगभग 3400-3500 मीटर ऊंचाई के क्षेत्रों तक मानसूनी बरसात का असर नजर नहीं आता था। आसान भाषा में कहें तो पहले बादल जोशीमठ से ऊपर नहीं जाते थे। वर्ष 2013 के बाद से यह स्पष्ट संकेत मिलने लगे कि बादल इस ऊंचाई को पार कर सेंट्रल हिमालयन रेंज की ऊंचाई तक पहुंचने लगे। इसे हम रेन शैडो जोन कहते थे, क्योंकि वहां तक बादल नहीं पहुंचते थे। कच्चा मलबा ग्लेशियर या बर्फ के साथ चिपके होते थे। अब हिमालय रेंज में बारिश होने से ग्लेशियर पिघलकर मलबे सहित नीचे आने लगा है।
विकास कार्यों ने किस तरह से पहाड़ी राज्यों में बसाहट को प्रभावित किया?
जब से गांव-गांव सड़कें पहुंचने लगीं। वर्ष 2012-13 से तो देहरादून सहित अन्य शहरों में अतिक्रमण का दौर शुरू हुआ। इससे पहाड़ों में बसाहट के लिए जरूरी 'पिरामिड' फार्मूला गड़बड़ा गया।
यह पिरामिड फार्मूला क्या है
पहाड़ में बसाहट को कुछ इस तरह से प्लान किया गया था। कैचमेंट एरिया जलग्रहण क्षेत्र) का ऊपरी भाग लगभग 25 प्रतिशत जंगल होता था। उसके नीचे 10 प्रतिशत भू-भाग चारागाह के लिए छोड़ा जाता था। स्पर एंड स्लोप (ढाल का वह चट्टानी भाग, जो खेती के लायक नहीं होता) हिस्से में घर बनाए जाते थे। उससे निचले ढाल पर सिंचित खेती होती थी। नदियों के आसपास वाले हिस्से में लंबा चौड़ा हिस्सा छूटा होता था, जिसे 'फ्लड प्लेन' कहते हैं। जब प्राकृतिक घटनाएं होती थी और पानी का बहाव बढ़ता था, तो इन स्थानों में बसाहट नहीं होने की वजह से जान-माल का नुकसान नहीं होता था। अब इस नियम का पालन नहीं हो रहा है। तलहटी से सड़कें निकल रही हैं और लोग सड़कों के आस-पास बसते जा रहे हैं।
तो क्या सड़कें नहीं बनाई जानी चाहिए?
सड़क बनाना गलत नहीं है, लेकिन पहाड़ की तलहटी काटकर सड़क बनाना क्या सही है? यानी जिस हिस्से के भरोसे पहाड़ खड़ा है, उसे खोदकर पहाड़ों को खोखला किया जा रहा है। यह कालिदास की तरह है...जिस डाल पर बैठे हैं, उसे ही काटने में लगे हैं।
क्या यह सरकारों के साथ साझा किया?
बिलकुल। राज्य सरकार से लेकर प्रधानमंत्री के प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार रह चुके विजय के राघवन के सम्मुख प्रेजेंटेशन दे चुके हैं। उत्तराखंड के जाने-माने पर्यावरणविद् चंडीप्रसाद भट्ट भी हर स्तर पर यह बात उठाते रहे हैं।
पहाड़ों में हो रही त्रासदियों के लिए विकास कार्यों को जिम्मेदार ठहराया जाता है। तो क्या विकास कार्य रोक दिया जाए?
विकास कार्य को रोकने नहीं बल्कि ईमानदारी व योजनाबद्ध ढंग से करने की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर ब्रिटिश काल में थामस काटली द्वारा निर्मित 18वीं सदी का कैनाल आज भी सुरक्षित व मजबूत नजर आता है, जबकि आज के निर्मित इंजीनियरिंग स्ट्रक्चर बहुत दिनों तक सुरक्षित नहीं रह पा रहे हैं।
आप किस तरह के विकास के पक्षधर हैं?
यातायात के लिए उत्तराखंड में चार विभिन्न स्तर पर डेवलपमेंट प्लान बन रहे हैं। आल वेदर रोड, रेल मार्ग, हवाई मार्ग और रज्जू मार्ग। क्या यह चारों विभाग एक साथ बैठकर यह तय नहीं कर सकते कि पहाड़ी राज्यों की आबादी के हिसाब से कहां कितने परिवहन की जरूरत है। उदाहरण के तौर पर अगर रेलमार्ग तय था तो सड़क चौड़ी करण की कोई आवश्कता नहीं थी। पूर्व सीडीएस जनरल विपिन रावत ने भी कहा था कि अगर बार्डर पर कोई घटना होगी, तो हम इन सड़कों के भरोसे नहीं रहेंगे। हमारी वायुसेना है।
यदि सड़क बनाना ही है तो जीओलाजिकल स्टडी के बाद जगहों को चिह्नित किया जाए। जहां सड़कें नहीं बना सकते हैं, वहां हवाई व रेल मार्ग ले जाएं। अब ऋषिकेश-कर्णप्रयाग रेल मार्ग को ही लीजिए। 1840 से यह रेल मार्ग लाने की तैयारी थी। मैं भी बचपन से ही यह सुनता आ रहा था। बेशक रेल सेवा देर से मिली, लेकिन पहाड़ को नुकसान नहीं है। यूरोप के आल्प्स के पहाड़ों को ही ले लीजिए।
इन पहाड़ों की प्रकृति हमारे हिमालय रेंज से मेल खाती है। पिछले साल ही यूरोप के भू-विज्ञानियों का एक दल यहां ग्लेशियरों का अध्ययन करने आया था, ताकि उस हिसाब से उनके वहां विकास कार्यों को अंजाम दे सके। आल्प्स के पहाड़ों के शिखर तक रेल लाइनें पहुंचा दी गईं हैं, तो हिमालय के शीर्ष तक भी रेल लाइन पहुंच सकती है। बस योजनाबद्ध तरीके से काम करने की जरूरत है।
मेरे पिताजी राजेंद्र सिंह बिष्ट पैरा मिलिट्री फोर्स में कंपनी कमांडर थे। मुझे याद है श्रीनगर में उन्होंने 1978 में अलकनंदा नदी के बाएं छोर पर एक पिलर में लाल निशान लगाया था। वह अधिकतम बाढ़ क्षेत्र (एचएफएल) है। इससे यह पता चलता है कि नदी में इस स्तर तक बाढ़ आ सकती है। आने वाली पीढ़ी के लिए यह एक उदाहरण है। अब तो सेटेलाइट के जरिए विभिन्न नदियों में यह मार्किंग करना बहुत आसान है। यदि बसाहट को पुनर्भाषित करना है, तो एक साल के भीतर इन्हें चिह्नित किया जा सकता है। फिर निशान के भीतर आने वाले निर्माणों को हटाया जा सकता है। इससे पहाड़ी राज्यों में बसाहट सुरक्षित व व्यवस्थित हो जाएगी। यदि सभी विभागों में समन्वय हो, तो एक साल के भीतर इसे पूरा किया जा सकता है।
डॉ. एमपीएस बिष्ट
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