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    शब्दांजलि: भाषा के जादूगर, संवेदनशील मनुष्य और लीक से हटकर सृजन करने वाले लेखक थे विनोद कुमार शुक्ल जी

    Updated: Tue, 23 Dec 2025 11:13 PM (IST)

    ज्ञानपीठ से सम्मानित साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल का निधन हो गया। गिरीश पंकज, संजीब बख्शी जैसे लेखकों ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की। वक्ताओं ने उन्ह ...और पढ़ें

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    ज्ञानपीठ सम्मानित साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल (फाइल फोटो)

    डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। हिंदी साहित्य के विशिष्ट रचनाकार और ज्ञानपीठ सम्मानित साहित्यकार विनोद कुमार शुक्ल के निधन पर साहित्य जगत में शोक की लहर है। वरिष्ठ साहित्यकार गिरीश पंकज, संजीब बख्शी, इतिहासविद रामेंद्रनाथ मिश्र और वरिष्ठ संपादक सुनील कुमार सहित अनेक लेखकों-बुद्धिजीवियों ने उन्हें शब्दांजलि अर्पित की।

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    श्रद्धांजलि वक्तव्यों में शुक्ल को भाषा का जादूगर, संवेदनशील मनुष्य और लीक से हटकर सृजन करने वाला लेखक बताया गया। वक्ताओं ने कहा कि उनकी कविता और गद्य मानवीय करुणा, मौन और साथ चलने की भावना का अद्वितीय दस्तावेज हैं, जिसकी कमी लंबे समय तक महसूस की जाएगी।

    'वे साथ चलने को जानते थे'

    गिरीश पंकज, वरिष्ठ साहित्यकार

    आखिर वही हुआ, जिसका डर था। जीवन-मृत्यु के बीच संघर्ष करते हुए अंततः हिंदी के इस समय के सबसे बड़े चर्चित रचनाकार भाषा के जादूगर विनोदकुमार शुक्ल हम सब को छोड़कर ब्रह्मलीन हो गए। और इसके साथ ही खत्म हो गया, कुछ 'बौद्धिक गिद्धों' का नकली प्रलाप कि सरकार विनोद कुमार जी के लिए कुछ नहीं कर रही है, जबकि सरकार अपने स्तर पर यथासंभव कार्य कर रही थी।

    आज जब विनोद जी हमारे बीच नहीं हैं, तो निजी तौर पर मैं अतीत के गलियारों में विचरण करते हुए विनोदजी को अपने सामने देखता हूँ। तब वे कृषि महाविद्यालय, रायपुर में अध्यापन कार्य करते थे। बाद में वहीं जनसंपर्क अधिकारी हो गए। तब मैं रायपुर के एक अखबार में सिटी चीफ हुआ करता था और साहित्य का विद्यार्थी होने के नाते विनोदजी जैसे अनेक महत्वपूर्ण रचनाकारों को समय-समय पर पढ़ता रहता था।

    विनोद जी जनसंपर्क अधिकारी के रूप में साल में एक बार मुझे और अन्य मीडिया कर्मियों को महाविद्यालय की ओर से नई डायरी भिजवाया करते थे। तब उनके पास एक बुलेट हुआ करती थी, जिस पर सवार होकर वे महाविद्यालय आना-जाना करते और शहर में यहाँ-वहाँ भ्रमण किया करते थे।कई बार उनसे मेरी भेंट चौक-चौराहे पर भी हो जाती थी।

    हालांकि सामाजिक जीवन में विनोद जी उतने लोकप्रिय नहीं थे, जितने लोकप्रिय वे साहित्यिक आलोचना के कारण हुए। जिस समय विनोद कुमार शुक्ल साहित्यिक दुनिया में प्रतिष्ठित थे, उन्हीं दिनों रायपुर में विनोदशंकर शुक्ल नामक राष्ट्रीय स्तर के चर्चित व्यंग्यकार भी हुआ करते थे।

    वह भी छत्तीसगढ़ महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे और अनेक महत्वपूर्ण पत्रिकाओं में उनके व्यंग्य प्रकाशित हुआ करते थे। शहर में भी उन्हें लोग विभिन्न कार्यक्रम में बुलाया करते थे। मजे की बात यह होती कि जब कभी विनोदकुमार शुक्ल को कोई सम्मान मिलता तो लोग विनोदशंकर शुक्ल को बधाई दे दिया करते थे। तब विनोद शंकर जी मुस्कुराकर कहते, "मुझे नहीं, विनोदकुमार शुक्ल को सम्मान मिला है।"

    एक बार किसी कार्यक्रम में विनोद कुमार जी प्रथम पंक्ति में बैठे हुए थे, तो राज्य के एक बड़े नेता ने दो चार नाम लेते हुए यह कह दिया कि "हमारे सामने विनोदशंकर शुक्ल भी विराजमान हैं। "

    इस बात का विनोद कुमार जी को बहुत बुरा लगा। कार्यक्रम के बाद उन्होंने मुझसे चर्चा करते हुए कहा कि "राजनेता जानबूझकर मेरा अपमान करते हैं"। यही कारण था कि बाद में विनोदकुमार जी ने सार्वजनिक कार्यक्रमों में जाना ही बंद कर दिया। वह चुनिंदा कार्यक्रम में ही शामिल हुआ करते थे। कभी प्रो नामवर सिंह आए या फिर अशोक बाजपेई का कोई व्याख्यान हुआ, तभी वह नजर आते थे।

    बाकी अवसरों पर आयोजकों को साफ-साफ मना कर देते थे। विनोद जी बोलने के मामले में बेहद संकोची थे। बहुत आग्रहवश किसी कार्यक्रम में जाते तो जरूर थे मगर अपना कोई वक्तव्य नहीं देते थे। हाँ, लोगों के अति आग्रह पर अपनी एक दो कविताएं जरूर सुना दिया करते थे। इसमें दो राय नहीं कि उनकी सैकड़ो कविताओं में कुछ कविताएँ बेहद पॉप्युलर थी। उनकी लोकप्रियता को वे खुद समझते थे इसलिए जब कभी अवसर आता वे उन्हें कविताओं को का पुनरपाठ किया करते थे।

    आज से ठीक तीस साल पहले जब मैंने भारतीय एवं विश्व साहित्य के अनुवाद की पत्रिका 'सद्भावना दर्पण' का प्रकाशन शुरू किया था, तब उसके कांसेप्ट को देखकर विनोद जी ने व्यक्तिगत रूप से मुझे सराहा था और शुभकामनाएँ दी थीं।

    लेकिन उनकी एक बड़ी चिंता इस बात को लेकर भी थी कि भारतीय भाषाओं की रचनाओं का तो हिंदी में अनुवाद हो रहा है लेकिन हिंदी की जो रचनाएँ हैं, उनका अनुवाद भी अन्य भारतीय भाषाओं में होना चाहिए। विनोद जी की चिंता जायज थी। बाद में ऐसी स्थिति भी आई कि विनोद जी की अनेक रचनाओं का दूसरी भाषा में भी अनुवाद हुआ। इस बात पर उन्होंने गहरा संतोष व्यक्त किया था।

    यह पारंपरिक बात हो सकती है कि उनका जाना हिंदी साहित्य की सबसे बड़ी क्षति है, जिसकी पूर्ति लंबे समय तक नहीं की जा सकती। लेकिन यह सत्य है विनोद जी ने हिंदी साहित्य को भाषा और शिल्प के स्तर पर जो प्रदेय दिया, वह लीक से हटकर था। उनकी कहानियों में पद्यात्मक आस्वादन मिलता था और पद्य में गद्य का आनंद। जैसे उनकी एक कविता में भाषाई चमत्कार को समझने के लिए ये पंक्तियां देखें,

    मेरी बेटी की दो बेटियाँ हैं
    सबसे छोटी नातिन जाग गई
    जागते ही उसने सुबह को
    गुड़िया की तरह उठाया
    बड़ी नातिन जागेगी तो
    दिन को उठा लेगी।

    बेशक वे आम लोगों के रचनाकार नहीं थे। लेकिन उनकी कुछ कविताएँ ऐसी हैं,जो आम पाठकों को भी रुचिकर लगी जैसे उनकी यह कविता :-

    "हताशा से एक व्यक्ति बैठ गया था
    व्यक्ति को मैं नहीं जानता था
    हताशा को जानता था
    इसलिए मैं उस व्यक्ति के पास गया
    मैंने हाथ बढ़ाया
    मेरा हाथ पकड़कर वह खड़ा हुआ
    मुझे वह नहीं जानता था
    मेरे हाथ बढ़ाने को जानता था
    हम दोनों साथ चले
    दोनों एक दूसरे को नहीं जानते थे
    साथ चलने को जानते थे।"

    अनेक पाठक उनके गद्य (उपन्यास और कहानियाँ) को पढ़कर नकारात्मक टिप्पणियाँ करते थे, शायद इसलिए कि वह उनके शिल्प को पकड़ नहीं पाते थे। लेकिन एक बड़ा वर्ग ऐसा भी था, जो उनके उपन्यासों को बहुत चाव से पढ़ता था। और उनके जादुई यथार्थवाद से प्रभावित होता था। क्योंकि उनके उपन्यासों की भाषा में एक अलग किस्म का खिलंदड़ापन था।

    वे कहानी से ज्यादा कलात्मक विन्यास पर जोर देते थे। वह पारंपरिक कथाकारों की तरह सपाट कहानी नहीं कहते थे, वरन उन के हर एक पैरा में भाषिक कला-कौशल दिखाई देता था। कहानी में अगर कोई व्यक्ति जा रहा है तो विनोदजी एक व्यक्ति जा रहा था कह कर बात खत्म नहीं करते, उस व्यक्ति की शारीरिक संरचना, उसकी बॉडी लैंग्वेज, उसके हाव-भाव इन सब का विस्तार के साथ वर्णन करते।

    यह कलात्मक विस्तार ही उनका कथा-कौशल था, जिसे बुद्धिवादी लोग पसंद करते थे। उन्होंने कहानी या उपन्यास के पारंपरिक भाषिक विधान को तोड़कर एक नये कलात्मक शिल्प के साथ उसे प्रस्तुत करने का जो नवाचार किया, उसके कारण हिंदी के चर्चित आलोचकों की नजर में विनोद कुमार शुक्ल का लेखन विशिष्ट होता चला गया। इसका सकारात्मक परिणाम यह हुआ कि वह साहित्य अकादमी सम्मान से होते हुए अंततः देश के सर्वश्रेष्ठ प्रतिष्ठित साहित्यिक सम्मान 'ज्ञानपीठ' तक पहुँचे।

    लेकिन जो लोग कहानी को कहानी की तरह पढ़ना चाहते हैं, उन्हें विनोद जी की कहानी पसंद नहीं आती थी। विनोद जी अपने वक्तव्य में स्पष्ट कहते रहे हैं कि वह आम पाठकों के लिए रचना नहीं करते, वरन अपने मन के लिए सृजन करते हैं, और उसी में उनको परम् संतोष मिलता है। विनोद जी हम सबके बीच अब नहीं हैं,लेकिन लंबे समय तक वे साहित्य की दुनिया में अपने द्वारा किए गए अभिनव प्रयोगों के कारण याद किए जाएँगे।

    'आधे घंटे में लिखवाई कविता की याद'

    सुनील कुमार, वरिष्ठ संपादक

    विनोद कुमार शुक्ल का जाना हिंदी साहित्य के लिए यह नुकसान है कि उनकी तरह का लिखा जाना अब नहीं होगा। उनका जो लिखा हुआ है, वही बचेगा। दूसरा नुकसान यह कि उतना सरल और सज्जन इंसान अब मुझे अपनी जिंदगी में शायद ही मिला। मेरे लिए उनका जाना एक खालीपन छोड़ गया है। उनसे मेरी बहुत ही कम मुलाकातें होती थीं, लेकिन वे बहुत यादों से भरी होती थीं।

    वे उम्र में मुझसे काफी बड़े थे, शायद एक पीढ़ी। लेकिन उनके साथ बैठते हुए उम्र का फर्क कभी महसूस नहीं होता था। उस समय मैंने उनका लिखा हुआ ज्यादा पढ़ा भी नहीं था, फिर भी उनसे हर विषय पर कुतर्कों भरी बहस कर लेता था, अपनी पूरी नासमझी के साथ। उनकी सादगी और सज्जनता यही थी कि उन्होंने कभी मुझे यह जताने की कोशिश नहीं की कि मैं कितना कम जानता हूं, और मुंहजोरी कर रहा हूं।

    'देशबंधु' अखबार में काम करते हुए होली अंक की तैयारी के दौरान की एक घटना मुझे सबसे ज्यादा याद आती है। उसी दिन विनोद जी हमारे संपादक ललित सुरजन से मिलने आए थे। दोनों के बीच गहरी मित्रता थी। मैं उस समय बहुत छोटा होते हुए भी उन्हें एक अलग कमरे में ले गया और आग्रह किया कि होली के लिए एक कविता लिख दें। वे चौंक गए।

    बोले कि वे इस तरह की समय-सीमा में कविता नहीं लिखते, कविता खबर की तरह नहीं होती। मैंने फिर जिद कि- कहा कि अखबार छपने जा रहा है, आधे घंटे में कविता चाहिए। जब वे नहीं माने तो मैंने हद पार कर दी, कह दिया कि दरवाजा बाहर से बंद कर रहा हूं और कविता पूरी होने पर घंटी बजा दीजिएगा। उन्होंने कहा कि ऐसे दबाव में उनकी तबीयत बिगड़ जाएगी। लेकिन मुझमें नौजवान की जिद थी और शायद उन्हें बरसों से जानने का अहंकार भी। मैंने सचमुच दरवाजे को बाहर से ताला लगा दिया।

    जब ललितजी को पता चला तो वे बहुत नाराज हुए। बोले, तुम जानते नहीं कि विनोदजी कितने बड़े साहित्यकार हैं। उन्होंने कहा कि देश की सबसे बड़ी साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक विनोद जी की कविताओं के लिए बरसों तक कतार में इंतजार करते हैं। लेकिन आधे घंटे तक विनोद कुमार शुक्ल बंद रहे। मैं चाबी जेब में लिए दफ़्तर में ही घूमता रहा। आधे घंटे बाद दरवाजा खोला। वे पसीना-पसीना थे, परेशान भी। लेकिन उन्होंने एक लंबी कविता लिख दी थी। वह कविता उसी दिन घंटे-आधे घंटे में होली अंक के पहले पन्ने पर छपी। बाद में मैंने उसकी प्लेट फ़्रेम कर ललितजी के कमरे में टंगवा दी थी। मुझे पक्का अंदाज़ है कि ललितजी को भी उस दिन उनके दोस्त के साथ मेरी कामयाबी से बड़ी जलन हुई होगी।

    आज न ललितजी हैं, न विनोदजी। लेकिन कई लोगों के सामने, खुद विनोदजी के सामने भी, मैंने यह क़िस्सा हंसते हुए वहां मौजूद और लोगों को सुनाया था। लोग यकीन नहीं कर पाते हैं कि कोई इस तरह आधे घंटे में, बलपूर्वक विनोद जी से फ़रमाइशी कविता लिखवा सकता है। मेरे लिए विनोदजी की यही सबसे अनोखी याद है। मैं विनोद कुमार जी के दीवाने अपने दोस्तों के लिए, उनकी हस्तलिपि में उनकी कविताएं लाकर भेज देता था तो ऐसे दोस्त बावले ही हो जाते थे। अब नहीं भेज पाऊंगा, क्योंकि वह आदमी नया गरम कोट पहनकर चला गया विचार की तरह।

    'विनोद जी जैसा कोई नहीं....'

    संजीव बख्शी, लेखक

    विनोद जी जैसा कोई नहीं। वे जिस जिजीविषा के साथ और तल्लीनता के साथ बच्चों के लिए और किशोरों के लिए उपन्यास, कहानी, कविताएं लिख रहे हैं वह अपने आप में अद्भुत है। विनोद जी बीती बातों को स्मरण करते हुए बताते हैं कि उनके बड़े चचेरे भाई थे भगवती प्रसाद शुक्ल। वे बहुत अच्छी कविता लिखते थे। उन्होंने विनोद जी को एक कापी लाकर दी और कहा कि इधर-उधर कागजों में मत लिखा करो इस पर लिखो। भाई ने पत्नी के गहने बेच कर एक कविता संग्रह छपवाया। उसका नाम रखा संग्रह। दुखद यह रहा कि उनका कैंसर से देहावसान हो गया।

    काव्य संग्रह बंडल का बंडल घर में पड़ा रहा। विनोद जी को बचपन में घर में साहित्यिक वातावरण मिला। घर में माधुरी और अन्य साहित्यिक पत्रिकाएं आती थी। एक बार विनोद जी के पास जमा किए हुए पैसे दो रुपये हो गए तो उन्होंने मां से पूछा कि इसका क्या करें? मां ने कहा कि कौनो किताब खरीद लौ। मां बैसवाणी थी। विनोद जी ने फिर पूछा कि कौन सी किताब खरीदूं? मां ने कहा कि शरतचंद्र की कोनो किताब खरीद लो। वे बताते हैं कि उन्हें याद है कि उस समय विजया किताब खरीदी थी। मां विनोद जी से कहती बेटा जब भी लिखना दुनिया की सबसे अच्छी किताब पढ़कर लिखना। विनोद जी ने मां का कहा याद रखा और खोजा नसीरुद्दीन पढ़ा।

    विनोद जी के अनुसार वे कभी हिंदी के विद्यार्थी नहीं रहे। उनका चित्त कभी एकाग्र नहीं होता था। चित्त में एक तरह की चंचलता रहती थी। साइंस कालेज में उन्हें भर्ती किया गया तो वे हिंदी निबंध और केमेस्ट्री में फेल हो गए। बाद में वे एग्रीकल्चर कालेज गए वहां भी मन नहीं लग रहा था पर वे अच्छे नंबरों से पास हो गए। फर्स्ट डिविजन में पास हुए तो उन्होंने मुक्तिबोध जी को टेलीग्राम किया कि पास्ड फर्स्ट। बाद में मुक्तिबोध उनसे कहते हैं कि मैं समझा था यूनिवर्सिटी में फर्स्ट आए हो। विनोद जी यूनिवर्सिटी में दसवें नंबर पर थे।

    विनोद जी जबलपुर में रहे उसके बारे में बताते हैं कि वे जब भी परसाई जी के पास जाते तो वे लिखते बैठे होते थे। उनके जाते ही वे लिखना बंद कर देते। पास में बिठाते और बातें करते। पहली बार वे मुक्तिबोध जी की चिट्ठी लेकर परसाई जी से मिले थे। जबलपुर में विनोद जी कृषि महाविद्यालय में थे, नरेश सक्सेना इंजीनियरिंग कालेज में और सोमदत्त वेटनरी कालेज में थे। तीनों परसाई जी के घर में एक दूसरे से मिले थे। तब से गहरी दोस्ती हो गई।

    'छत्तीसगढ़ की माटी को किया साहित्य-साधना और तपस्या के रूप में गौरवान्वित'

    आचार्य रमेंद्रनाथ मिश्र, इतिहासविद

    शिवनाथ और महानदी की धारा व छत्तीसगढ़ की माटी को साहित्य-साधना और तपस्या के रूप में गौरवान्वित करने वाले प्रख्यात साहित्यकार विनोद शुक्ल जी का असामयिक निधन राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। राष्ट्रीय स्तर पर उन्हें प्राप्त अनेक सम्मान युवा पीढ़ी के लिए सदैव प्रेरणास्पद रहे।

    विभिन्न अवसरों पर उनसे हुई भेंट, चर्चा और उनका मार्गदर्शन अविस्मरणीय है। प्रचार-प्रसार से दूर रहकर वे एक तपस्वी की भांति साहित्य-सृजन में संलग्न रहे और ऋतु के समान सहज रूप से साहित्यिक सम्मानों को स्वीकार किया।

    उनका ज्ञानपीठ सम्मान छत्तीसगढ़ के लिए गौरवपूर्ण, प्रख्यात और प्रेरणादायक उपलब्धि रहा। वे छत्तीसगढ़ के साहित्य जगत के मार्गदर्शक पुरोधा थे। साहित्य अकादमी, शोधपीठ और हिंदी ग्रंथ अकादमी को उनके विचारों और लेखन से निरंतर प्रेरणा मिलती रही।

    राजनांदगांव व रायपुर उनकी कर्मभूमि रही है, जहां उनका लेखन और चिंतन आने वाली पीढ़ियों को निरंतर प्रेरित करता रहेगा। उनका निधन भारतीय हिंदी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है।