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    आज है युगांतकारी व समन्वयवादी संत जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य की जयंती, जानिए उनके जीवन के बारे में

    By Shashank PandeyEdited By:
    Updated: Thu, 04 Feb 2021 11:13 AM (IST)

    स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने अपने स्वप्रवर्तित रामानंद संप्रदाय में रामभक्ति के भवन का द्वार प्रत्येक जाति के व्यक्ति के लिए खोल दिया जबकि रामानुज संप्रदाय में केवल ब्राह्मण क्षत्रिय और वैश्य को ही भगवद्भक्ति का अधिकार प्राप्त था।

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    जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य जी की जयंती। (फोटो: दैनिक जागरण)

    गोपाल चतुर्वेदी। उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन के प्रणेता एवं श्री रामानंद संप्रदाय के प्रवर्तक जगद्गुरु स्वामी रामानंदाचार्य परम तपस्वी, युगांतकारी दार्शनिक एवं समन्वयवादी संत थे।  उनका जन्म 14वीं शताब्दी में माघ कृष्ण सप्तमी को प्रयागराज के धर्मनिष्ठ कान्यकुब्ज ब्राह्मण परिवार में हुआ था। प्रारंभ में उनका नाम रामदत्त था। वह बाल्यावस्था से ही अत्यंत विलक्षण प्रतिभा संपन्न थे। उन्हें 5 वर्ष की आयु में ही 'वाल्मीकि रामायण एवं 'श्रीमद्भगवदगीता' आदि ग्रंथ कंठस्थ हो गए थे।

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    उनकी प्रारंभिक शिक्षा प्रयागराज में हुई। बाद में वह वैराग्य भावना के चलते काशी चले गये। वे वहां पंचगंगा घाट पर बनी एक गुफा में रहकर साधना एवं अध्ययन आदि में जुट गए। वह अत्यंत अल्प समय में विभिन्न शास्त्रों व पुराणों के ज्ञान में पारंगत हो गए। वह केवल प्रात: ब्रह्म मुहूर्त में गंगा स्नान के लिए निकलते थे।

    स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने सवर्णों के अलावा अंत्यजों को भी दीक्षा प्रदान की। संत कबीर को काशी में कोई संत-महात्मा नाम दीक्षा देने के लिए तैयार नहीं था। अत: वह ब्रह्ममुहूर्त में पंचगंगा घाट की सीढिय़ों पर आकर लेट गए। रामानंदाचार्य जब तड़के गंगा स्नान हेतु जा रहे थे तो उनके पैर अंधेरे में संत कबीर पर पड़ गए। उन्होंने कबीर को उठाकर अपने गले से लगा लिया। संत कबीर ने रामानंदाचार्य महाराज से दीक्षा प्राप्त करने के बाद जाति-पांति, ऊंच-नीच, पाखंड और अंधविश्वासों का आजीवन पुरजोर विरोध किया।

    उन्होंने इस बात को भी स्वीकार किया कि उन्हें यह शक्ति अपने गुरुदेव से ही प्राप्त हुई है। वह कहा करते थे कि 'कासी में हम प्रगट भये, रामानंद चेताये। उन्होंने अपनी साखियों में प्रभु से अधिक अपने गुरु की महत्ता का गायन किया। स्वामी रामानंदाचार्य के अंतज शिष्यों में संत कबीर एवं सवर्ण शिष्यों में स्वामी अनंताचार्य प्रमुख थे। इसके अलावा उनके शिष्यों में रैदास, पीपा, सुखानंद, सुरसुरानंद, पद्मावती, नरहरि, भगवानंद, धन्नाभगत, योगानंद, अनंतसेन एवं सुरसरि आदि भी थे।

    स्वामी रामानंदाचार्य ने संस्कृत भाषा में 'वैष्णव मताब्ज भास्करÓ व 'रामार्चन पद्धतिÓ नामक ग्रंथों की रचना की। पहले ग्रंथ में उन्होंने अपने शिष्य सुरसुरानंद द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दिए हैं और दूसरे ग्रंथ में भगवान श्रीराम की पूजा-अर्चना की परंपरागत विधि बताई है। स्वामी जी ने हिंदी भाषा में लिखे गए अपने ग्रंथ 'ज्ञान तिलकÓ में ज्ञान की चर्चा की है और 'राम रक्षाÓ में योग व निर्गुण भक्ति का वर्णन किया है। स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने भारतीय वैष्णव भक्ति धारा को पुनर्गठित किया। उन्होंने भक्ति के जिस विशिष्टाद्वैत सिद्धांत का प्रवर्तन किया, उसके बारे में कहा जाता है कि उसकी प्रेरणास्रोत मां जानकी हैं। 

    स्वामी रामानंदाचार्य महाराज ने विभिन्न मत-मतांतरों एवं पंथ-संप्रदायों में फैली वैमनस्यता को दूर करने के लिए समस्त हिंदू समाज को एक सूत्र में पिरोया। साथ ही मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम को अपना आदर्श मानकर सरल राम भक्ति के मार्ग को प्रशस्त किया। उनकी शिष्य मंडली में जहां जाति-पांति, छुआ-छूत, वैदिक कर्मकांड, मूर्ति पूजा आदि के कट्टर विरोधी निर्गुण संत थे तो वहीं दूसरी ओर अवतारवाद के पूर्ण समर्थक सगुण उपासक भी थे। वह अपने 'तारक मंत्रÓ की दीक्षा पेड़ पर चढ़कर दिया करते थे, ताकि वह सभी जाति-संप्रदायों व मत-मतांतरों के लोगों के कानों में पड़ सके। स्वामी जी का कहना था कि 'जाति-पांति पूछे नहि कोई, हरि को भजे सो हरि का होई।

    स्वामी जी ने आजीवन भक्ति और सेवा का संदेश दिया। यदि हम सभी उनके जीवन दर्शन को आत्मसात कर लें तो हमारे देश व समाज की अनेक बुराइयों का खात्मा हो सकता है।

    (लेखक आध्यात्मिक विषयों के अध्येता हैं)

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