'अंतरिक्ष में 'युद्ध' न छिड़े, यही है स्पेस डिप्लोमेसी', खास बातचीत में बोले खगोल विज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र कपूर
भारतीय अंतरिक्ष यात्री ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला 14 दिन अंतरिक्ष में बिताने के बाद 10 जुलाई के आसपास धरती पर लौटेंगे। वह इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में अपनी टीम के साथ प्रयोग कर रहे हैं जिस पर दुनियाभर के वैज्ञानिकों की नजर है। भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान के पूर्व प्रोफेसर डॉ. रमेश चंद्र कपूर ने भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के विकास और भविष्य पर प्रकाश डाला।

रुमनी घोष, नई दिल्ली। यदि सब कुछ तय और समयानुसार हुआ तो अंतरिक्ष में 14 दिन बिताने के बाद भारतीय अंतरिक्ष यात्री ग्रुप कैप्टन शुभांशु शुक्ला 10 जुलाई के आसपास धरती पर लौट आएंगे। वह अपनी चार सदस्यीय टीम के साथ इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन पर जो प्रयोग कर रहे हैं और अनुभव जुटा रहे हैं, उस पर दुनिया भर के विज्ञानियों की नजर है।
उन्हीं में से एक हैं भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिजिक्स) के पूर्व प्रोफेसर व खगोल विज्ञानी डॉ. रमेश चंद्र कपूर। बतौर विज्ञानी उनकी सबसे ज्यादा नजर भारहीनता की स्थिति में काम करने का अनुभव व वनस्पतियों पर उनके असर पर होगी हालांकि निजी तौर पर उनकी सबसे ज्यादा रुचि उस खोज को जानने में है, जिसका परिणाम 14 दिन के भीतर सामने आ गया।
पश्चिम की तुलना में भारतीय अंतरिक्ष अभियान की धीमी शुरुआत, पहले और दूसरे अंतरिक्ष यात्री को भेजने के बीच 41 साल का अंतर, स्पेस डिप्लोमेसी को लेकर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। वह मानते हैं कि कोपरनिकस द्वारा प्रतिपादित विश्व स्वरुप से शुरू हुए और विकसित होते विज्ञान से हमारा परिचय पश्चिम की तुलना में 400 साल बाद हुआ, बावजूद इसके हमने सारी तकनीकी बेड़ियों से मुक्ति पा ली है। वर्ष 2028 से 2035 के बीच भारतीय अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन अपना विकसित रूप पा लेगा।
ख्यात विज्ञानी जयंत नार्लिकर के साथ काम कर चुके डॉ. कपूर ने वर्ष 1971 में आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान (एरीज) नैनीताल में खगोल विज्ञानी के रूप में अपना करियर शुरू किया। मार्च 1974 से 2010 तक वह भारतीय खगोल भौतिकी संस्थान (आइआइए) बेंगलुरु में रहे, जहां उन्होंने खगोल भौतिकी, ब्लैक होल, व्हाइट होल, क्वासर और पल्सर आदि विभिन्न विषयों पर काम किया।
वह आइआइए के कई सूर्य ग्रहण अभियानों में पर्यवेक्षक और आयोजक के रूप में भागीदार रहे हैं। वर्तमान में बेंगलुरु में प्राचीन भारतीय साहित्य में खगोल विज्ञान की अवधारणा और इसके ऐतिहासिक पक्ष पर काम कर रहे हैं। सेवानिवृत्ति के बावज़ूद वह लगातार भारत में खगोल विज्ञान के इतिहास पर शोध कर रहे हैं। प्रस्तुत हैं बातचीत के प्रमुख अंशः
अंतरिक्ष में पहुंचने का सपना हमने सबसे पहले कब और कैसे देखना शुरू किया था? बतौर विज्ञानी कोई वाकया आपको याद है?
देखिए आपने सपने के बारे में पूछा है तो वहीं से शुरू करता हूं। आप सूरदास की उस कविता को याद कीजिए जिसमें बाल कृष्ण कहते हैं, 'मैया मैं तो चंद-खिलौना लैहौं' । यह चाहे हमारी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति थी, लेकिन चांद पर पहुंचने की कल्पना तो हमेशा से थी। अब मैं आता हूं एक ऐसी घटना के बारे में जिसके बारे में कभी बात नहीं हुई।
वर्ष 1959 में एक फिल्म आई थी 'चांद की दुनिया'। इस फिल्म में कम जाने-पहचाने कलाकार थे और फिल्म संभवत: ज्यादा चली भी नहीं होगी। फिल्म में राजकुमार पदम (सोहन कपिला) चांद पर जाने के लिए दुनिया भर के विज्ञानियों को राकेट बनाने के लिए आमंत्रित करता है। यह फिल्म चांद पर पानी की मौज़ूदगी, आक्सीजन, भारहीनता, पृथ्वी के भ्रमण और चंद्रमा के दूसरे हिस्से की बात करती है । फिल्म में एक जगह हीरो कहता है कि 'मैं तो क्या इस वक्त दुनिया का हर मुल्क इस कोशिश में है कि वह चांद पर पहुंचे और मैं चाहता हूं कि इस कामयाबी का सेहरा भारत के सिर बंधे'।
वह एक विशाल राकेट बनता है और चांद पर भी जा पहुंचता है |अब कुछ तारीखों पर गौर कीजिए...वर्ष 1957 में सोवियत रूस ने सैटेलाइट स्पूतनिक को पृथ्वी की कक्षा (आर्बिट) में भेजा। उसके बाद स्पूतनिक-2 में लाइका (अंतरिक्ष में जाने वाला पहला पशु एक श्वान) को भेजा गया। इसके बाद से ही दुनिया भर के विज्ञानियों में अंतरिक्ष में जाने की उम्मीद जगाने लगी थी।
1961 में पहला इंसान, सोवियत रूस के यूरी गागरिन, अंतरिक्ष में पहुंचे। इसके बाद वर्ष 1969 में अमेरिका के अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चंद्रमा पर पहला कदम रखा था। यानी हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं, जब दुनिया इस बारे में सोच रही थी, हम भी आगे की सोच रहे थे । यह फिल्म मुझे राजकुमार पदम के रूप में डा विक्रम साराभाई की याद दिलाती है।
बतौर अंतरिक्ष विज्ञानी भारत की 'अंतरिक्ष यात्रा' को कैसे देखते हैं? हम कहां पिछड़े हैं और कहां आगे हैं?
इसका जवाब मैं दो हिस्सों में देना चाहता हूं। पहला, आजादी के पहले और दूसरा आजादी के बाद का दौर। आधुनिक विज्ञान की लिहाज से देखें तो हमें निष्पक्ष रूप से यह मानना होगा कि पश्चिम में बीते 400 साल से खगोल और अंतरिक्ष विज्ञान पर चर्चा हो रही है।
वहां कोपरनिकस की परिकल्पना, जिसमें पृथ्वी सहित सभी ग्रह सूर्य के चक्कर लगा रहे हैं, बहुत पहले स्थापित हो चुकी थी। यहां इससे हमारा परिचय 19वीं शताब्दी के आरंभ में ही हुआ। वर्ष 1817 में बंगाल में हिंदू कालेज की स्थापना हुई।
भारत में आधुनिक विज्ञान की शिक्षा का शुभारंभ हुआ | ईस्ट इंडिया कंपनी को अपने मतलब के लिए अंग्रेजी और व्यावहारिक ज्ञान से शिक्षित भारतीयों की जरूरत थी | 1857 में कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई थी। इस तरह शिक्षा का प्रसार निर्बाध बढ़ता गया। इसके बाद तो आधुनिक शिक्षा के क्षेत्र में आशातीत वृद्धि हुई है।
अब आजादी के बाद का हिस्सा...। सोवियत रूस की अंतरिक्ष में पहल के मद्देनजर अमेरिका में 1958 में नासा की औपचारिक स्थापना हुई | पाकिस्तान उस वक्त इस क्षेत्र में भारत से पहल कर गया। पाकिस्तान के एक मात्र नोबेल पुरस्कार विजेता व अंतरिक्ष विज्ञानी अब्दुस सलाम ने 1961 में पाकिस्तान की स्पेस एजेंसी सुपार्को की स्थापना कर दी ।
उसके लगभग एक साल बाद वर्ष 1962 में भारतीय राष्ट्रीय अंतरिक्ष अनुसंधान समिति (इंकोस्पार) की स्थापना हुई थी। पाकिस्तान इस दिशा में हमसे पिछड़ता गया। आज वह हमसे 50 साल पीछे है और चीन के साथ मिल कर ही कुछ-कुछ करता है। यह वह दौर था, जब भारत खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं था। मुझे याद है हम लोग राशन की लाइन में खड़े होकर गेहूं, चावल और जरूरी सामान लिया करते थे। उस दौरान अंतरिक्ष एजेंसी की स्थापना करना बड़ी बात थी।
वर्ष 1969 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इंकोस्पार का पुनर्गठन भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के रूप में कर दिया। 1975 में हमने पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट भेजा. जिसे सही मायनों में हमारी अंतरिक्ष यात्रा की शुरुआत कहा जा सकता है। सोवियत रूस की मदद से वर्ष 1984 में राकेश शर्मा अंतरिक्ष में गए।
उनकी यात्रा प्रेरणा स्रोत बनी, इससे प्राप्त अनुभव मूल्यवान साबित हुआ | जहां तक अंतरिक्ष यात्रा में देरी की बात है, तो इसे शुरुआती दौर की उपलब्धि के तौर ही देखा जा सकता है। कालांतर में इसरो ने देश में अंतरिक्ष पर शोध के लिए देश में इंफ्रास्ट्रक्चर विकसित किया। 1994 में पोलर सैटेलाइट लांच व्हीकल (पीएसएलवी) की सफल लांच के बाद हम तकनीकी बेड़ियों से मुक्त होते गए और फिर हमने पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक राकेट से 104 उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजकर इतिहास रचने वाला भारत पहला देश है।
पहले अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा को भेजने के 41 साल बाद शुभांशु गए। क्या इसे आप देरी नहीं मानते हैं?
मैं मानता हूं कि देरी हुई किंतु यहां हम ह्यूमन स्पेस मिशन की बात कर रहे हैं। इसमें अंतरिक्ष में किसी उपग्रह या प्रयोगशाला की स्थापना से भी ज्यादा जरूरी यह है कि अंतरिक्ष यात्री सुरक्षित धरती पर लौट सके। भारत ने वर्ष 2006 में ह्यूमन स्पेस मिशन एक्ट पर हस्ताक्षर किया। उसके बाद से हमने इस दिशा में काम शुरू किया।
14 दिनों की यात्रा में दुनिया भर के खगोलशास्त्रियों की नजर किस चीज पर सबसे ज्यादा है?
अंतरिक्ष स्टेशन पर रहते हुए शुभांशु शुक्ला को जो व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त होंगे, वह भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम के लिहाज से बहुत ही महत्वपूर्ण होंगे। यह गगनयान सहित आने वाले सभी अंतरिक्ष अभियानों में काम आएंगे। खास तौर पर भारहीनता की स्थिति में काम कर पाना सबसे बड़ी चुनौती होती है।
इस पर सभी विज्ञानियों की नजर है। इन सारे प्रयोगों के परिणाम आने में समय लग सकता है, लेकिन मैं निजी तौर पर उनसे अंतरिक्ष के नजारे के बारे में जानना चाहता हूं। एक तरफ दिन में 15-16 बार उगता और अस्त होता सूर्य और दूसरी ओर काला, शून्य आकाश। यह देखकर कैसा महसूस होता होगा?
भारहीनता की स्थिति का अनुभव तो राकेश शर्मा को भी हुआ होगा?
निश्चित रूप से । वह सोयुज टी-11 अंतरिक्षयान के जरिए अंतरिक्ष स्टेशन साल्युत-11 पर गए थे। वहां वह सात दिन 21 घंटे 40 मिनट तक रहे थे, लेकिन तब से अब तक बहुत कुछ बदला है। खुद राकेश शर्मा जी ने कहीं कहा है कि वह शुभांशु शुक्ला जी से पूछना चाहते हैं कि वहां क्या-क्या बदला है।
14 दिन में 90 प्रयोग किये जाने हैं । भारत ने मूंग, मेथी के साथ-साथ साइनो-बैक्टीरिया, टारडिग्रेड़स और माइक्रो-एल्गी भी भेजा है। खगोलशास्त्री इन चीजों से क्या परिणाम देखना चाहते हैं?
अंतरिक्ष में जो प्रयोग किए जा रहे हैं, उन्हें तीन प्रमुख क्षेत्रों में बांटा जा सकता है। कृषि, माइक्रोबायोलाजी, मानव शरीरक्रिया विज्ञान और मनोविज्ञान। इसके अलावा धरती से 400 किमी की ऊंचाई पर उच्च ऊर्जा वाले रेडिएशन से भी सामना होता है । इसको ऐसे समझ सकते हैं कि धरती पर साल भर में जितना रेडिएशन (1 मिलीसीवर्ट) का एक्सपोजर होता है वह अंतरिक्ष में एक दिन में मिल जाता है।
मानव शरीर के लिए अधिकतम डोज 1 सीवर्ट है और पृथ्वी पर इस लिहाज से हम सुरक्षित हैं | इस रेडिएशन का असर अंतरिक्ष यात्रियों के साथ-साथ वहां मौजूद सभी जीवों पर पड़ता है। इसके अलावा भारहीनता की स्थिति में पैदा हुई चीजों पर होने वाले असर को भी देखना बहुत अहम है, क्योंकि धरती पर आप कोई भी चीज उगाते हैं तो जड़ें नीचे की ओर जाती हैं और तना ऊपर की ओर बढ़ता है। अंतरिक्ष में गुरुत्वाकर्षण नहीं होता है।
14 दिन में जो कुछ भी अंकुरित होगा, धरती पर आने के बाद उन पर परीक्षण किया जाएगा कि क्या कुछ पीढ़ियों बाद उनमें कोई जेनेटिक बदलाव हुआ है। माइक्रो एल्गी -लंबी अंतरिक्ष यात्राओं में अपना खाद्य पदार्थ स्वयं ही उगाएं, जैसे कार्यक्रम का हिस्सा हैं | इसका प्रभाव देखने के लिए लंबा इंतजार करना होगा।
बताया जा रहा है कि ऐक्सियम मिशन, गगनयान के लिहाज से बहुत उपयोगी रहेगा। गगनयान मिशन की काफी तैयारी हो चुकी है?
अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा और शुभांशु शुक्ला के अंतरिक्ष यात्रा के बीच लंबा अंतराल है। बेशक गगनयान मिशन को एक साल आगे बढ़ा दिया गया है और अब इसे वर्ष 2027 में लांच करने की योजना है। बावजूद इसके, महज दो-ढाई साल का ही अंतर है। ऐसे में, शुभांशु के अनुभव निश्चित रूप से उन सभी यात्रियों के लिए बेहद उपयोग के होंगे, जिन्हें गगनयान मिशन में भेजा जाना है।
देखा जा रहा है कि तारीख तय होने के बाद मिशन कई बार टल जाता है? इस मिशन के साथ भी ऐसा ही हुआ | बरसों की तैयारियों के बाद भी ये व्यवधान क्यों आते हैं?
इसमें लाखों चीजों को एक साथ ठीक से काम करना होता है तब जाकर आपकी उड़ान सुरक्षित होती है। यह वाकई में 'राकेट साइंस' है। लांच डायरेक्टर 45 मिनट पहले मिशन को गो-ऐहेड देते हैं। उसके बाद माइनस -37वें मिनट में प्रोपेलेंट भरना शुरू करते हैं।
माइनस -27वें मिनट में लिक्विड आक्सीजन भरा जाता है। फिर काउंट डाउन में माइनस-45 सेंकड पर लांच डाएरेक्टर गो का सिग्नल देते हैं । यदि इस माइनस-45 सेकंड से पहले किसी भी तरह की दुविधा महसूस हो, तो मिशन अबार्ट कर दिया जाता है। आमतौर पर मौसम, तूफान, तड़ित झंझाओं और गैस लीकेज की वजह मिशन को टालना या अबार्ट करना पड़ता है...और यह जरूरी है।
धरती पर कई देश एक दूसरे लड़ रहे हैं, अंतरिक्ष में मिलजुल कर प्रयोग कर रहे हैं। क्या यह सद्भाव और अनुशासन बना रहेगा? या फिर वहां भी युद्ध छिड़ने की आशंका बनी रहती है?
वर्ष 1967 में एक 'आउटर स्पेस ट्रीटी' हुई, जिसमें यह तय हुआ कि अंतरिक्ष का उपयोग किसी तरह के युद्ध के लिए नहीं बल्कि धरती की शांति व समृद्धि के लिए होगा। वैसे भी जब यह बात सामने आई कि एक लघुग्रह धरती से टकरा सकता है, तो उस वक्त सुझाव आए थे कि उसे परमाणु बम से नष्ट कर दिया जाए |
लेकिन उससे अंतरिक्ष में इतना मलबा फैल सकता है कि वह सैटेलाइट और अंतरिक्ष यानों के लिए खतरा बन सकता है। इस सब बातों के मद्देनजर मुझे अंतरिक्ष में युद्ध की संभावना नहीं लगती।
इन दिनों एक शब्द की बहुत चर्चा है... स्पेस डिप्लोमेसी। क्या कहना है आपका?
आपको एक किस्सा सुनाता हूं, जो आज के समय में बहुत प्रासंगिक है। मैं वर्ष 2017 में एक वैज्ञानिक सम्मलेन में भाग लेने के लिए आर्मेनिया की यात्रा पर था। हमारे होटल में एक समय में, एक ही टेबल पर चार विज्ञानी ईरानी, इजरायली, आर्मेनिया और भारत से मैं, साथ बैठे बातें कर रहे थे। उनमें से एक विज्ञानी की पत्नी ने ध्यान दिलाया कि कोने में बैठे विज्ञानी ईरानी हैं और उनके पास इजरायली विज्ञानी बैठे हैं।
इसी प्रकार अमेरिका और रूस भी एक दूसरे के विरोधी रहे हैं लेकिन अंतरिक्ष में एक ही स्पेस स्टेशन मिल कर संचालित कर रहे हैं। यही है स्पेस डिप्लोमेसी । यह सही है कि देश की सीमाएं, उसकी सुरक्षा, राष्ट्रभक्ति अपनी जगह बहुत अहम है, लेकिन मेरा मानना है कि कहीं न कहीं विज्ञान हमें इन सबसे ऊपर ले जाता है।
राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय में चंद्रमा से लाए गए पत्थर का एक टुकड़ा रखा है। चंद्रमा पर पहली बार कदम रखने वाले नील आर्मस्ट्रांग द्वारा चंद्रमा से लाए गए चट्टान के टुकड़ों को दुनिया के देशों में वितरित किया गया था। चंद्रमा से लाया गया चट्टान का एक टुकड़ा 1969 में अमेरिका के राजदूत केनेथ बी. कीटिंग ने राष्ट्रपति वी. वी. गिरि को भेंट किया था। ऐसी चीजें क्या भारत को और पाने की उम्मीद है जो हम दुनिया को दे सकें ?
एक बहुत ख्यात विज्ञानी हुए थे हेराल्ड यूरे। उन्होंने कहा था कि चंद्रमा से लाए गए चट्टान में से सिर्फ एक ग्राम मुझे दे दो, मैं आपको पूरे सौर मंडल का इतिहास बता दूंगा । नील आर्मस्ट्रांग लगभग कुछ किलो का पदार्थ लाए थे, यह पृथ्वी वासियों की धरोहर थी |
उसमें से एक हिस्सा अहमदाबाद स्थित भौतिक अनुसंधान प्रयोगशाला को भी मिला था। इससे आप समझ सकते हैं कि चंद्रमा हो या कोई ग्रह, वहां से लाए गए मलबे के एक टुकड़े का कितना महत्व है। अंतरिक्ष में तो सब ओर शून्य है, इसलिए शुभांशु शुक्ला की इस यात्रा में ऐसा कुछ तो नहीं मिलेगा।
हां, 2040 में भारतीय अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा में कदम रखेगा। जब वहां जाने वाले अंतरिक्ष यात्री लौटेंगे तो वह चंद्रमा की धरती से अपने साथ इसी तरह की कुछ चीजें लेकर आ सकते हैं।
क्या भारत की भी चन्द्रमा पर स्पेस स्टेशन बनाने की कोई योजना है?
बिलकुल है। वर्ष 2028 से 2035 के बीच आर्बिट में भारत का अंतरिक्ष स्टेशन बनेगा। इसके अलावा जापान के साथ मिलकर भारत वर्ष 2060 तक चंद्रमा पर स्पेस स्टेशन बनाने की तैयारी कर रहा है।
अंतरिक्ष विज्ञान के प्रति युवा पीढ़ी की रुचि है लेकिन क्या इसके लिए विकल्प कम नहीं हैं?
यह सही है कि हमें नए शोध के लिए जितने स्नातक व स्नातकोत्तर व पीएचडी के विद्यार्थी चाहिए, उस अनुपात में नहीं हैं। हालांकि यह समस्या ऐसी नहीं है कि जिसका हल नहीं ढूंढा जा सके।
आपके अनुसार क्या हल है? कैसे ग्रामीण अंचल के बच्चों को इस क्षेत्र में लाया जाए?
हमारे यहां संसाधनों की कमी नहीं है, लेकिन उसका ठीक ढंग से उपयोग नहीं हो रहा है। प्राथमिक स्कूलों को मजबूत कीजिए। वहां एक छोटी सी लाइब्रेरी हो। शिक्षकों की उपस्थिति बायोमेट्रिक व्यवस्था से दुरुस्त कर दीजिए।
खगोल विज्ञान के क्षेत्र में जाने की इच्छा रखने वाले बच्चों को उनके अभिभावक कैसे गाइड करें?
सिर्फ खगोल विज्ञान ही नहीं, बल्कि हर विषय में बच्चों के भीतर समझ विकसित करने के लिए तीन चीजों को बढ़ावा देना चाहिए। जिज्ञासा, मेंटल मैथ्स और व्याकरण। छोटे बच्चों के साथ पजल्स खेलिए। ख्यात विज्ञानी जयंत नार्लिकर के साथ मुझे कुछ समय काम करने का सौभाग्य मिला था। उनके पिता ख्यात गणितज्ञ थे और बीएचयू में पदस्थ थे। उन्होंने बताया था कि उनके घर में एक ब्लैकबोर्ड था। उनके पिताजी यूनिवर्सिटी जाने से पहले दोनों भाइयों के लिए गणित के सवाल देकर जाते थे। दिनभर में दोनों को इसे हल करना होता था ।
अंतरिक्ष अभियानों के लिए खर्च होने वाली राशि को लेकर हमेशा सवाल उठते रहते हैं। शुभांशु शुक्ला की इस यात्रा पर लगभग 548 करोड़ रुपए लगे हैं। इस पर भी सवाल उठाया गया। आपका क्या कहना है?
548 करोड़ रुपए तो क्या 1000 करोड़ रुपये भी लगते, तो भी हमें यह खर्च उठाना चाहिए। इससे जो अनुभव भारत को प्राप्त होगा, उसकी तुलना किसी भी राशि से नहीं हो सकती है। एक किस्सा सुनाता हूं...वर्ष 1979 में तारों की संरचना व विकास पर महत्वपूर्ण खोज करने वाले विज्ञानी सुब्रह्मण्यन चंद्रशेखर हमारे संस्थान आइआइए में आए थे।
भारत में एशिया के सबसे बड़े टेलीस्कोप की स्थापना की जानी थी। इसकी लागत लगभग छह करोड़ रुपये आनी थी। तब उनसे यह पूछा गया था कि क्या भारत को ऐसे महंगे वैज्ञानिक उपकरण को लगाने में इतनी बड़ी राशि खर्च करना चाहिए, जो संभवतः सीधे तौर पर आम लोगों के जीवन को बेहतर बनाने में उपयोगी न हो।
तब उन्होंने कहा था कि माना शरीर में अभी प्रोटीन की कमी है, लेकिन कम से कम वे विटामिन तो दिए जाए, जिसकी उसे जरूरत है। शुभांशु शुक्ला का यह अंतरिक्ष अभियान भी हमारे लिए विटामिन की तरह ही है।
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