जब झूठे सुबूतों के आधार पर दोषी करार दिए गए बेगुनाह, जेल में बिताने पड़े जीवन के अहम साल
यदि किसी भी व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाकर दोषी सिद्ध कर जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया जाता है तो इससे बड़ा अन्याय कुछ और हो ही नहीं सकता है। ये हर तरह से एक अपराध भी है।

सीबीपी श्रीवास्तव। 19 साल, तीन महीने और तीन दिन। ललितपुर के थाना महरौनी के गांव सिलावन निवासी विष्णु तिवारी का यह वक्त बेबसी, बदनामी और बदहाली वाला रहा, क्योंकि बिना कोई गुनाह किए ही उसे इतने दिनों तक जेल में रहना पड़ा। पिछले दिनों हाई कोर्ट के आदेश पर उसने खुली हवा में सांस ली है। अब उसे अपने भविष्य की चिंता सता रही है। दरअसल विष्णु तिवारी को 2000 में एक झूठे मामले में जेल भेजा गया था। दुष्कर्म और एससीएसटी एक्ट में आजीवन कारावास की सजा पाने के बाद 2003 में केंद्रीय कारागार आगरा में स्थानांतरित किया गया था। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होने के चलते स्वजन हाई कोर्ट में अपील नहीं कर सके। विधिक सेवा समिति ने हाईकोर्ट में उसके मामले की पैरवी की। अंतत: हाई कोर्ट ने उसे निर्दोष करार दिया।
बिना गुनाह किए इतने दिनों जेल में बंद रहने से मिली प्रताड़ना की उसे क्षतिपूर्ति मिलेगी अथवा नहीं, इसको लेकर बहस हो रही है। कई कानूनविद् एकमत हैं कि वह क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है। अगर किसी व्यक्ति को गलत तरीके से फंसाकर अपराधी बनाया जाता है और कोर्ट में वह बेगुनाह साबित होता है तब वो क्षतिपूर्ति मांगने का हकदार है। वह सिविल कोर्ट में ला आफ पोर्ट्स के तहत याचिका दाखिल करके क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है। हालांकि सरकार भी चाहे तो उसकी रोजगार या फिर आर्थिक मदद कर सकती है।देखा जाए तो भारत में इस तरह की व्यवस्था की जरूरत भी है।
जैसा कि हम जानते हैं कि विधि का शासन किसी लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था का मौलिक कार्यात्मक सिद्धांत है, जिसका उद्देश्य न्याय देना, विशेषकर नैसर्गिक (प्राकृतिक) न्याय उपलब्ध कराना है। लोकप्रिय न्यायविद् विलियम ब्लैकस्टोन ने कहा है किसी एक निर्दोष के पीडि़त होने से कहीं बेहतर दस दोषियों का बच जाना है। यह दृष्टिकोण निश्चित रूप से नैसर्गिक न्याय के संरक्षण का दृष्टिकोण है। भारत के उच्चतम न्यायालय ने भी यह कहा है कि किसी समय नैतिक दुविधा होने की स्थिति में विधिक न्याय पर नैसर्गिक न्याय को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। न्याय के इस स्वरूप के दो अनिवार्य तत्व होते हैं।
पहला, पक्षपात के विरोध का नियम तथा दूसरा, निष्पक्ष सुनवाई का नियम। इस कारण भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रशासनिक विधि से ऐसा न्याय अवश्य उपलब्ध कराया जाना चाहिए। यह भी विदित है कि संवैधानिक विधि और प्रशासनिक विधि में 'वंश-प्रजाति' संबंध है। अर्थात संविधान ही प्रशासनिक विधियों का स्त्रोत है। भारत के संविधान पर गौर करने से यह स्पष्ट है कि इसमें न्याय की बुनियाद निष्पक्षता है। ध्यातव्य हो कि जॉन रॉल्स ने भी निष्पक्षता को ही अपने न्याय के सिद्धांत में बुनियादी मूल्य की संज्ञा दी है। निष्पक्षता का यही सिद्धांत भारत में प्रशासनिक विधि के तहत न्याय का आधार है। इसी कारण भारत में प्रशासनिक विधियों की मंशा यह है कि नैसर्गिक न्याय की अवहेलना नहीं हो। यदि ऐसा होता है तो निश्चित तौर पर इसे न्याय की विफलता माना जाएगा और यह भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों की प्रणाली पर गंभीर प्रश्न चिन्ह लगाएगा।
यहीं किसी व्यक्ति को दंड दिलाने के उद्देश्य से झूठे साक्ष्य प्रस्तुत करने या अनुचित रूप से उसे दोष सिद्ध करने की संकल्पना महत्वपूर्ण हो जाती है। आपराधिक न्याय तंत्र का एक बुनियादी सिद्धांत यह है कि पीडि़त के अधिकार तथा अभियुक्त के अधिकार संतुलित होने चाहिए। लेकिन जब किसी व्यक्ति को अनुचित रूप से दोष सिद्ध किया जाए या उसके विरुद्ध झूठे साक्ष्य प्रस्तुत किए जाएं तो उसके अधिकारों का व्यापक उल्लंघन होगा। साथ ही ऐसे व्यक्तियों, जिन्हें बिना किसी अपराध के ही दंडित किया गया हो, को मुआवजा देने वाली विधि प्रणाली के अभाव में न्याय प्राप्त नहीं होगा और न्याय की विफलता होगी।
ऐसे व्यक्ति वास्तविक रूप में दो तरीके से प्रभावित होते हैं। पहला, उन्हें दंड के रूप में कारावास में वह अवधि बितानी होती है जो भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 में उन्हें प्राप्त मौलिक स्वतंत्रताओं का उल्लंघन है। दूसरा, जब वे सजा पूरी कर समाज में वापस जाते हैं तो उनमें उनके प्रति घृणा का भाव विद्यमान होता है। इससे उनकी गरिमा प्रभावित होती है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार का एक अभिन्न अवयव है। अत: यह उनके जीवन के अधिकार का भी उल्लंघन है। सबसे गंभीर बात यह है कि उन्हें तथा उनके परिवार को इस सामाजिक घृणा के साथ पूरा जीवन व्यतीत करना होता है। ऐसी स्थिति में वे दोबारा समाज में समायोजित नहीं हो पाते। साथ ही उनके मनोवैज्ञानिक तथा भावनात्मक विघटन की भी आशंका बनी होती है।
उच्चतम न्यायालय ने अयोध्या दुबे बनाम राम सुमर सिंह मामले में यह कहा है कि जब अभियोजन पक्ष या न्यायालय द्वारा पूर्ण विचार नहीं किया जाता या महत्वपूर्ण साक्ष्यों पर उचित ध्यान नहीं दिया जाता है तब न्याय की विफलता की स्थिति बनती है। कारण यह कि इससे न्याय में विकृति की स्थिति उत्पन्न होती है। न्यायालय का यह विचार यह इंगित करता है कि अभियोजन में सही और न्यायप्रिय न्यायिक दृष्टिकोण के अभाव से ऐसी स्थिति बनती है। उच्चतम न्यायालय ने एक अन्य मामले मध्य प्रदेश राज्य बनाम दल सिंह (2013) में कहा है कि जब कोई न्यायालय किसी विवाद के समाधान के दौरान साक्ष्यों को अवैध आधारों पर और नकारात्मक दृष्टिकोण से विचार करता है तब इसे उसका गलत और विकृत दृष्टिकोण कहा जाएगा, क्योंकि इसका परिणाम न्याय की विफलता होगा।
न्याय की विफलता की इन स्थितियों पर गंभीरता से विचार करने से जो बात सामने आती है वह यह है कि हाल के वर्षो में अनुचित दोष सिद्धि या झूठे साक्ष्यों के आधार पर किसी व्यक्ति को दंडित करने के मामलों में वृद्धि हुई है। भारतीय कारा सांख्यिकी के अनुसार 2019 में भारत के जेलों में कैदियों की कुल संख्या में 60.9 प्रतिशत विचाराधीन कैदी (अंडर ट्रायल) थे। वर्ष 2015-19 में इनकी संख्या में लगभग 1.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। भारत के विधि आयोग ने अपनी 277वीं रिपोर्ट अनुचित अभियोजन (न्याय की विफलता) विधिक उपचार 2018 में कहा है कि भारत में आपराधिक न्याय तंत्र में प्रणालीगत कमियों को दूर करने की आवश्यकता है जहां व्यक्तियों को किसी मामले में दंड मिलने के पहले ही कई वर्षो तक जेल में रहने के लिए विवश होना पड़ता है।
आयोग ने यह भी सुझाव दिया है कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता 1973 में संशोधन कर मुआवजा दिए जाने का प्रविधान शामिल किया जाना चाहिए। मुआवजे का एक विधिक अधिकार एक ओर ऐसे व्यक्तियों को विधिक उपचार देगा और दूसरी ओर राज्य के प्राधिकारियों, विशेषकर पुलिस को संस्थागत रूप से जवाबदेह भी बनाएगा।
एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि भारत अंतरराष्ट्रीय नियमों और समझौतों का सुदृढ़ समर्थक है। अत: उसे इस संदर्भ में अंतरराष्ट्रीय मानकों का पालन करना होगा। अंतरराष्ट्रीय मानव अधिकार प्रणाली के अनुसार अनुचित दोष सिद्धि मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा पत्र 1948 के तहत ऐसे अधिकार का उल्लंघन है। संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार समिति ने भी सदस्य राष्ट्रों को यह निर्देश दिया है कि उन्हें अनुचित दोष सिद्धि के पीडि़तों को एक नियत समय सीमा में मुआवजा देने के लिए उपयुक्त विधियों का निर्माण करना चाहिए। इसी प्रकार अंतरराष्ट्रीय नागरिक एवं राजनीतिक अधिकार प्रतिज्ञा पत्र 1966 में भी अनुचित दोष सिद्धि से उत्पन्न न्याय की विफलता के मामलों पर नियंत्रण करने की बाध्यता डाली गई है। इसी आधार पर कई देशों जैसे ब्रिटेन तथा अमेरिका में ऐसे कानूनों का निर्माण किया गया है, लेकिन ऐसे विधिक प्रविधान भारत में अब तक नहीं बनाए गए हैं।
भारतीय दंड संहिता 1860 की धाराओं 192-196 में किसी व्यक्ति को दंडित कराने के उद्देश्य से झूठे साक्ष्य प्रस्तुत करने पर दंड का प्रविधान है, लेकिन इस विषय पर कोई विशिष्ट विधि (जैसा कि ब्रिटेन में आपराधिक न्याय कानून 1988) नहीं बनाई गई है। भारत का उच्चतम न्यायालय अनुचित दोष सिद्धि के पीडि़तों को मुआवजा देने के लिए कई अवसरों पर हस्तक्षेप करता रहा है। रुदल साह बनाम बिहार राज्य मामले में पहली बार ऐसे मुआवजे का विषय न्यायालय के सामने लाया गया था। उच्चतम न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत बंदी प्रत्यक्षीकरण रिट याचिका पर सुनवाई करते हुए कहा कि यदि न्यायालय ने ऐसे मामले में अभियुक्त को मुआवजा दिए बिना रिहा भी कर दिया तब भी अनुच्छेद 21 (जीवन का अधिकार) उल्लंघित होगा। इसी कारण न्यायालय ने 30000 रुपये के मुआवजे का आदेश देते हुए यह भी कहा कि यदि मूल अधिकारों का व्यापक उल्लंघन हुआ हो तो मुआवजा देने की शक्ति तक अनुच्छेद 32 का विस्तार होगा। उल्लेखनीय है कि संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में पर्याप्त उपचार प्रदान करने और मुआवजा देने के लिए अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 में क्रमश: उच्चतम और उच्च न्यायालय को शक्ति प्राप्त है।
इस संबंध में बबलू चौहान उर्फ डब्लू बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य का मामला अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा, 'हमारे देश में वर्तमान में कोई भी कानूनी प्रविधान नहीं है जिसके तहत अनुचित रूप से दंडित व्यक्ति को मुआवजा दिया जाए। उच्चतम या उच्च न्यायालय द्वारा ऐसे व्यक्तियों, जो लंबी अवधि तक अनुचित दोष सिद्धि के कारण जेल में रहे हों, को दोष मुक्त करने के कई उदाहरण हैं। उनके जीवन के स्वर्णिम वर्ष जेल की चारदीवारी में कैद रहे और समाज में उनके पुनर्वास के लिए उन्हें भाग्य भरोसे छोड़ दिया गया। ऐसी स्थिति में यह अत्यावश्यक है कि एक कानूनी ढांचे का निर्माण किया जाए ताकि झूठे साक्ष्यों से दंडित या अनुचित दोष सिद्धि से प्रताडि़त व्यक्तियों को राहत देते हुए उनके पुनर्वास की व्यवस्था की जा सके।' हालांकि कई अवसरों पर न्यायालयों ने ऐसे व्यक्तियों को दोष मुक्त कर उपचार देने का प्रयास किया है, लेकिन दुर्भाग्यवश मुआवजा रहित दोष मुक्ति किसी भी स्थिति में न्याय नहीं माना जा सकता।
यह स्थिति हमारे आपराधिक न्याय तंत्र पर एक काले धब्बे के समान प्रतीत होती है। ध्यातव्य हो कि वर्ष 2002 में अक्षरधाम आतंकी घटना के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 2014 में अपने निर्णय में सभी छह अभियुक्तों को दोष मुक्त कर दिया था जिनमें वे भी शामिल थे जिन्हें मृत्यु दंड दिया गया था। न्यायालय ने कहा था कि उन पर गलत आरोप लगाए गए थे और वे निर्दोष थे। न्यायालय ने गुजरात पुलिस की इस आधार पर आलोचना भी की थी कि मामले की कंच में पुलिस की अक्षमता स्पष्ट थी।कई अन्य अवसरों पर यह देखा गया है कि पुलिस निर्दोष व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लेती है और पूछे जाने पर यह आरोप लगाती है कि उस पर राजनीतिक दबाव था।
वास्तविकता कुछ भी हो, ऐसी गिरफ्तारी निश्चित रूप से उस व्यक्ति को स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित करती है और साथ ही, यह कानूनी तथा न्यायिक प्रविधानों या निर्णयों के विरुद्ध भी होती है। दूसरी ओर, 2017 में हैदराबाद आत्मघाती हमले के मामले में न्यायालय ने एक गंभीर प्रश्न की ओर ध्यान आकíषत कराया था कि पुलिस तथा अन्य प्राधिकारियों की लापरवाही के कारण अभियुक्तों पर षड्यंत्र करने का आरोप सिद्ध नहीं हुआ और उनके जीवन के दस वर्ष जेल में झूठे आरोपों के कारण बीत गए।ऐसे सभी उदाहरणों से यह बात उभर कर आती है कि अनुचित दोष सिद्धि या अभियोजन से कानूनी, न्यायिक, सामाजिक और नैतिक प्रभाव पड़ते हैं।
कानूनी दृष्टि से यह अधिकारों के विधिशास्त्र और उसके मानकों का उल्लंघन है, जबकि न्यायिक रूप से यह व्यक्ति को वास्तविक न्याय देने में अक्षम है। न्यायालय ने कई बार यह कहा है कि किसी आरोप से दोष मुक्ति व्यक्ति को स्वत: मुआवजा प्राप्त करने का अधिकार नहीं देती। दूसरी ओर, ऐसा दंड या अभियोजन व्यक्ति तथा उसके परिवार पर गंभीर सामाजिक प्रभाव उत्पन्न करता है। अधिकांश ऐसे मामलों में व्यक्ति और उसके परिवार को सामाजिक घृणा झेलनी तो पड़ती ही है, उसकी आर्थिक तथा वित्तीय स्थिति के खराब हो जाने कि भी आशंका होती है। ऐसे अभियोजन से नैतिक मानकों को भी गंभीर क्षति होती है।
नैतिक दृष्टि से न्याय निष्पक्षता के सिद्धांत पर आधारित है। हालांकि हम यह दावा करते हैं कि ऐसे किसी व्यक्ति को दोष मुक्त कर उसे न्याय दे दिया गया, लेकिन जितनी अवधि तक उसे कारावास में रहने के लिए विवश होना पड़ा उसे लौटाया नहीं जा सकता। न्याय के नैतिक सिद्धांत की अवहेलना संपूर्ण नैतिक ढांचे पर आघात करती है। साथ ही उस व्यक्ति को गरिमा विहीन जीवन जीने के लिए भी विवश होना पड़ता है, जो न्याय की विफलता के अतिरिक्त भारत के संविधान के 'स्वíणम त्रिभुज' का भी उल्लंघन है। उच्चतम न्यायालय ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ मामले में कहा कि अनुच्छेद 21, 19 और 14 के प्रविधानों से यह स्वर्णिम त्रिभुज निíमत है।
अंत में यह कहना उपयुक्त होगा कि विधायी, कार्यपालक तथा न्यायिक, सभी प्राधिकारियों को ऐसे अभियोजनों और दोष सिद्धि के प्रति न केवल संवेदनशील होने की आवश्यकता है, बल्कि ऐसे अभियुक्तों के प्रति उनमें समानुभूति की भावना भी होनी चाहिए। अत: ऐसे व्यक्तियों को मुआवजा देने वाले कानूनों का निर्माण यथाशीघ्र किया जाना चाहिए नहीं तो भारत में विधि के शासन, जिस पर देश का संपूर्ण लोकतांत्रिक ढांचा टिका है, की सफलता और कार्यकुशलता पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा रहेगा और बड़ी संख्या में लोग न्याय से वंचित रहेंगे।
(अध्यक्ष, सेंटर फॉर अप्लायड रिसर्च इन गवर्नेस, दिल्ली)
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