कुंदन आभूषणों का संरक्षण और इनकी प्रसिद्धि व्यापक तौर पर मुगलों और राजपूतों की देन
Kundan Jewellery उदाहरण के लिए हम जानते हैं कि कुंदन का उपयोग संगमरमर जेड धातु और तामचीनी को सजाने के लिए किया जाता है। अक्सर कुंदन के आभूषणों के पृष्ठ हिस्से को खूबसूरत मीनाकारी पैटर्न से सजाया जाता है।

श्रेय मौर्या। मानव सभ्यता में आभूषणों और रत्नों की परंपरा सदा से रही है। वक्त के साथ आभूषण निर्माण की नई-नई शैलियां जुड़ती गईं। आभूषणों की भव्यता और सुंदरता को बढ़ाने की ऐसी ही एक प्रचलित शैली है कुंदन कला। सोलहवीं शताब्दी से प्रचलित रत्नों को सेट करने की कुंदन तकनीक सिर्फ भारतीय आभूषण परंपरा में पाई जाती है और समय के साथ आज भी लोकप्रिय है। कुंदन आभूषण गहने-जवाहरात के शौकीन और संरक्षकों के बीच प्रमुख स्थान पर हैं।
कुंदन आभूषणों का संरक्षण और इनकी प्रसिद्धि व्यापक तौर पर मुगलों और राजपूतों की देन थी, जिसे बाद में हैदराबाद के निजामों ने आगे बढ़ाया। हालांकि आभूषण बनाने की यह परंपरा मुगलों से पहले की मानी जाती है। इतिहासकारों ने अबुल फजल की किताब ‘आइन-ए-अकबरी’ में कुंदन के कार्यों का उल्लेख पाया है। कीमती आभूषणों की बढ़ जाए रंगत इस तकनीक का नाम बारीक पीटी गई शुद्ध सोने की पन्नी से लिया गया है, जिसे कुंदन के नाम से जाना जाता है। यह उन चुनिंदा आभूषण बनाने की तकनीकों में से एक है जिसमें शुद्ध 24 कैरेट सोने का उपयोग किया जाता है।
यह सोना बिना गर्म किए ही लचीला रहता है, पर यह इतना नरम नहीं होता है कि इसका उपयोग संपूर्ण आभूषण बनाने के लिए किया जा सके। वर्षों से कुंदन तकनीक का उपयोग विभिन्न प्रकार के कीमती आभूषणों के साथ-साथ रोजमर्रा की कई वस्तुओं को सजाने के लिए किया जाता रहा है, जिसमें चम्मच और कटोरे, तीरंदाजों की अंगूठियां, कटारों की मूठ, पचीसी के टुकड़े, पानदान, शीशे और इत्र की बोतलें शामिल हैं।
बेहद नरमी से होती है मरम्मत कुंदन तकनीक में आभूषण की आधारभूत संरचना पहले सोने में बनाई जाती है, जिसमें प्रत्येक रत्न के लिए रिक्त स्थान होते हैं। रिक्त स्थानों को चपड़े (लाख) और सुरमे के मिश्रण से भरा जाता है, जिसे जलते हुए कोयले की मदद से गर्म करके पिघलाया जाता है। फिर जौहरी रत्न के प्रत्येक टुकड़े को चपड़े (लाख) पर बिठाता है और उसे एक बार फिर गर्म कोयले की ताप में रखकर नरमी से दबाता है। ताप चपड़े (लाख) को फिर से पिघला देता है, जिससे उसे आसानी से फैलाया जा सके और रत्न को उसकी जगह में रखकर समायोजित किया जा सके।
तत्पश्चात रत्नों के आस-पास जमे अतिरिक्त सुरमे को बारीक छेनी का उपयोग करके सावधानीपूर्वक हटाया जाता है, जिससे रत्न और सेटिंग के किनारों के बीच महीन अंतर तैयार होता है। इस चरण पर कुंदन के टुकड़ों को किनारों पर जोड़ा जाता है और छेनी का उपयोग करके उन्हें मोड़ा जाता है, जिससे एक पतली जगह बनती है, जो रत्न को धारण करती है। इसमें कुंदन की परतें तब तक जोड़ी जाती हैं जब तक कि रत्न और सेटिंग के बीच का अंतर सोने से न भर जाए।
मुगलकाल से पसंदीदा शैली इस परिष्कृत तकनीक के माध्यम से एक कुशल लैपिडारिस्ट (कीमती पत्थर तराशने वाला शिल्पकार) किसी भी वांछित पैटर्न में तामचीनी, जेड और राक क्रिस्टल जैसे नाजुक बेसों पर किसी भी संख्या में रत्नों को जड़ सकता है। इससे तैयार वस्तु की सतह चमकती है, क्योंकि रत्नों के नरम किनारों को सोने की चमकीली पीली आभा उभरती है। आभूषण में सोने का प्रयोग से रत्नों को मजबूती भी प्रदान करता है। इस तकनीक ने जौहरी के लिए कई प्रकार की सामग्री, विशेष रूप से ठोस पत्थरों में रत्नों को जोड़ने की सुविधा उपलब्ध कराई है।
उदाहरण के लिए, हम जानते हैं कि कुंदन का उपयोग संगमरमर, जेड, धातु और तामचीनी को सजाने के लिए किया जाता है। अक्सर, कुंदन के आभूषणों के पृष्ठ हिस्से को खूबसूरत मीनाकारी पैटर्न से सजाया जाता है। यह एक ऐसी शैली है, जो मुगलकालीन गहनों में भी बेहद लोकप्रिय थी। कठिन श्रम का खूबसूरत परिणाम कुंदन आभूषणों की बनावट में बहुत समय और श्रम लगता है और कारीगर को हर चीज पर बहुत बारीकी से काम करना पड़ता है, इन गहनों को विशिष्टता देने के लिए हर टुकड़े को हाथ से पालिश किया जाता है। आज भी कुंदन आभूषण लोकप्रिय हैं, खासकर भारत और पाकिस्तान में महिलाओं की शादी के वस्त्राभूषणों को सजाने के लिए इनका उपयोग किया जाता है।
(सौजन्य https://map-academy.io)
[ एमएपी एकेडमी]
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