'राज्यपाल संविधान से चलते हैं, पार्टियों की मर्जी से नहीं', बिल रोके जाने पर SC ने सुुनाया ऐतिहासिक फैसला
जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए फैसले में कहा कि 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोके रखने की राज्यपाल की कार्रवाई गैरकानूनी और मनमानी है। इतना ही नहीं कोर्ट ने आदेश दिया कि ये 10 विधेयक उसी तिथि से मंजूर माने जाएंगे जिस तिथि को ये दोबारा मंजूरी के लिए राज्यपाल के समक्ष पेश किए गए थे।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकारों पर ऐतिहासिक एवं अहम फैसला दिया है। कोर्ट ने विधेयकों को मंजूरी देने के बारे में राज्यपाल की शक्तियां तय कर दी हैं। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया है कि राज्यपाल बिलों को अनिश्चितकाल तक दबाकर नहीं बैठ सकते। उन्हें विधानसभा से पास होकर आए विधेयकों पर तय समय में निर्णय लेना होगा या कार्रवाई करनी होगी।
कोर्ट ने स्वीकृति के लिए आए विधेयकों पर राज्यपाल द्वारा निर्णय लेने के लिए एक महीने और तीन महीने की समय सीमा तय की है। इतना ही नहीं, कोर्ट ने फैसले में राज्यपालों को नसीहत देते हुए कहा है कि उन्हें राजनीतिक विचारों से निर्देशित नहीं होना चाहिए। उन्हें राज्य मशीनरी के कामकाज को सुचारू बनाना चाहिए और उसे ठप नहीं करना चाहिए। उन्हें उत्प्रेरक होना चाहिए, अवरोधक नही।
इसके साथ ही शीर्ष कोर्ट ने तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि द्वारा 10 विधेयकों को लंबे समय तक दबाए रखने और बाद में जब विधेयक विधानसभा से दोबारा पारित होकर आए तो उन्हें विचार के लिए राष्ट्रपति को भेजने को गलत करार दिया।
जस्टिस जेबी पार्डीवाला और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने तमिलनाडु सरकार की याचिका पर दिए फैसले में कहा कि 10 विधेयकों को राष्ट्रपति के विचारार्थ रोके रखने की राज्यपाल की कार्रवाई गैरकानूनी और मनमानी है। इतना ही नहीं, कोर्ट ने आदेश दिया कि ये 10 विधेयक उसी तिथि से मंजूर माने जाएंगे जिस तिथि को ये दोबारा मंजूरी के लिए राज्यपाल के समक्ष पेश किए गए थे।
यह भी कहा कि अगर उन विधेयकों पर राष्ट्रपति ने कोई निर्णय लिया होगा तो वह भी शून्य माना जाएगा। यह पहली बार है जब सुप्रीम कोर्ट ने सीधे अपने आदेश में विधेयकों को मंजूर मानने का आदेश दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने विधेयकों की मंजूरी का यह फैसला संविधान के अनुच्छेद-142 में प्राप्त विशेष शक्तियों का इस्तेमाल करते हुए सुनाया है। फैसले में कोर्ट ने कहा कि विधानमंडल द्वारा पुनर्विचार के बाद दोबारा भेजे गए विधेयक को राज्यपाल को मंजूरी देनी होगी। राज्यपाल उसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित नहीं रख सकते।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला ऐतिहासिक है क्योंकि अभी तक यही समझा जाता था कि राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने के लिए संविधान में कोई समय सीमा तय नहीं है और इसलिए राज्यपाल को तय समय में निर्णय लेने के लिए नहीं कहा जा सकता। लेकिन इस फैसले ने बता दिया है कि राज्यपाल को किसी भी बिल पर एक महीने और तीन महीने में निर्णय लेना होगा या कार्रवाई करनी होगी। यानी तर्कसंगता का सिद्धांत लागू होगा।
संविधान में तय नहीं है समय सीमा
सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में राज्यपाल के लिए विधेयकों पर निर्णय की समय सीमा तय करते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद-200 में राज्यपालों के लिए विधेयकों को मंजूरी देने या विधानसभा से पारित होकर आए विधेयकों पर कार्रवाई के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है। इसके बावजूद अनुच्छेद-200 को इस तरह नहीं पढ़ा जा सकता जिससे राज्यपाल को मंजूरी के लिए पेश किए गए विधेयकों पर कार्रवाई नहीं करने की इजाजत मिल जाए। इस तरह देरी होती है और राज्य में कानून बनाने की मशीनरी में बाधा उत्पन्न होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि किसी विधेयक पर स्वीकृति रोककर उसे मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने के मामले में अधिकतम अवधि एक महीने की होगी। यदि राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के बगैर स्वीकृति नहीं देने का निर्णय लेते हैं तो ऐसे मामले में विधेयकों को तीन महीने में विधानसभा को वापस करना होगा।
पीठ ने कहा कि राज्य विधानसभा द्वारा विधेयक पुनर्विचार के बाद दोबारा मंजूरी के लिए पेश किए जाने की स्थिति में राज्यपाल को एक महीने के भीतर विधेयक को मंजूरी देनी चाहिए। कोर्ट ने फैसले में चेताया कि इस समय सीमा का पालन करने में विफलता या निष्कि्रयता की कोर्ट द्वारा न्यायिक समीक्षा की जा सकती है।-
विधायक लोगों की भलाई में ज्यादा सक्षम
शीर्ष अदालत ने राज्यपालों द्वारा विधेयकों को दबाकर बैठ जाने की आलोचना करते हुए कहा कि राज्यपाल को लोगों की इच्छा को विफल करने के लिए राज्य विधानमंडल में अवरोध उत्पन्न नहीं करने या उस पर नियंत्रण नहीं करने के प्रति सचेत रहना चाहिए। राज्य विधानमंडल के सदस्य लोगों द्वारा चुने गए हैं, इसलिए वे लोगों की भलाई सुनिश्चित करने के लिए ज्यादा सक्षम हैं।
राज्यपाल के पास पूर्ण या पाकेट वीटो का अधिकार नहीं
पीठ ने कहा कि राज्यपाल पूर्ण वीटो या पाकेट वीटो की अवधारणा को अपनाकर विधेयकों को दबाकर नहीं बैठ सकते। कोर्ट ने कहा कि पाकेट वीटो एक ऐसी अवधारणा है जिसमें राज्यपाल विधेयक पर बिना हस्ताक्षर किए उसे दबाकर बैठ जाते हैं जो वस्तुत: उसे अप्रभावी बना देता है। कोर्ट ने फैसले में स्पष्ट किया कि विधानसभा द्वारा दोबारा मंजूरी के लिए भेजे गए विधेयक को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने का राज्यपाल को अधिकार नहीं है।
दूसरी बार मंजूरी के लिए भेजे गए विधेयक को राज्यपाल को स्वीकृति देनी होगी। हालांकि इसमें एक अपवाद हो सकता है कि दोबारा भेजा गया विधेयक पहले वाले विधेयक से भिन्न हो। कोर्ट ने राज्यपालों को नसीहत देते हुए फैसले में कहा कि राज्यपाल को मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में अपनी भूमिका निष्पक्षता से निभानी चाहिए। राजनीतिक विचारों से निर्देशित नहीं होना चाहिए।
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