Move to Jagran APP

आतंकवाद के मुद्दे पर चोर-चोर मौसेरे भाई’ हैं खाड़ी देश

कतर और सऊदी अरब में तेल और प्राकृतिक गैस के भंडार, मजबूत अर्थव्यवस्थाएं, जीसीसी की सदस्यता, सुन्नी राष्ट्र और राजशाही जैसी समानताएं भी दोनों में हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 12 Jun 2017 10:52 AM (IST)Updated: Mon, 12 Jun 2017 11:18 AM (IST)
आतंकवाद के मुद्दे पर चोर-चोर मौसेरे भाई’ हैं खाड़ी देश
आतंकवाद के मुद्दे पर चोर-चोर मौसेरे भाई’ हैं खाड़ी देश

मोहम्मद शहजाद

loksabha election banner

आतंकवाद के वित्त पोषण मामले में तो कतर और सऊदी अरब के मध्य ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ वाला रिश्ता है। तेल और प्राकृतिक गैस के अकूत भंडार, मजबूत अर्थव्यवस्थाएं, जीसीसी की सदस्यता, सुन्नी राष्ट्र और राजशाही जैसी समानताएं भी दोनों में हैं। ऐसे में तो दोनों को एक दूसरे का करीबी और चहेता होना चाहिए था। फिर आखिर क्या कारण है कि सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के नेतृत्व में खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के अन्य सदस्य बहरीन समेत मिस्र, लीबिया, यमन, मालदीव, उर्दन और सेनेगल जैसे कई इस्लामिक राष्ट्रों ने कतर के साथ अपने राजनयिक संबंध तोड़कर उसे अलग-थलग कर दिया।

इस सियासी घटनाक्रम से खाड़ी क्षेत्र में एक ऐसा गंभीर राजनीतिक संकट गहरा गया है जिसकी कोई दूसरी हालिया नजीर अभी तक इतिहास में देखने को नहीं मिलती है। इस मूर्खतापूर्ण निर्णय से नि:संदेह खाड़ी देशों की एकता प्रभावित होगी। अगर यह संकट अत्याधिक गहराता है तो इसके परिणाम भी दीर्घकालिक होंगे। जल्दबाजी में उठाए गए इस कदम के पीछे असल वजहें क्या हैं और इसका मकसद क्या है? इसका जवाब तलाशने के प्रयास में तमाम विश्लेषक अभी तक व्यस्त हैं। ये सवालात इस लिए भी गूढ़ हो जाते हैं कि विदेश नीति को लेकर तमामतर विरोधाभासों के बावजूद इस मामले पर रियाद और अबू-धाबी ने गजब की एकजुटता दिखाई है। इन दोनों देशों के बीच ही यह तमाम ताना-बाना रचा गया है।

देखा जाए तो पूरे मामले की जड़ में दोनों देशों का समान दुश्मन ‘ईरान’ है। जैसे किसी एक के दो दुश्मनों के बीच मित्रता बढ़ने लगती है, वैसे ही सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के मध्य कई मुद्दों पर तकरार के सबब हालियां दिनों में पैदा हुई दूरियां भी अब नजदीकियों में बदल गईं। इसमें सबसे बड़ी भूमिका अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की हालिया सऊदी यात्र का है। अपने पहले विदेशी दौरे में सबसे पहले सऊदी अरब को चुन कर, उसे बेजा तरजीह देकर और फिर उसकी सरजमीन से ईरान को ललकार कर ट्रंप ने सऊदी और संयुक्त अरब अमीरात के शेखों को यह अहसास दिला दिया कि व्हाइट हाउस में अब उनके हितों की रक्षा करने वाले शख्स का बसेरा है।

दोनों मुल्कों को अभास हो गया कि ईरान और सऊदी अरब को लेकर ट्रंप की नीतियां अपने पूर्ववर्ती राष्ट्रपति बराक ओबामा के उलट हैं,जो अमेरिका की पारंपरिक सऊदी हितैषी नीतियों से हटकर थीं। ओबामा दोनों देशों को अलग-अलग नजरिए से देखते थे और ईरान पर वर्षो से चले आ रहे प्रतिबंधों को हटाकर उन्होंने अमेरिका-ईरान संबंधों में नई सुबह का आगाज किया था। ट्रंप के द्वारा फिर से सऊदी अरब और संयुक्त अरम अमीरात जैसे देशों का ‘कस्टोडियन’ साबित करने से इन दोनों देशों को बल मिला और इन्होंने कतर को अलग-थलग कर क्षेत्र में ईरान के साथ चल रही वर्चस्व की लड़ाई में एक पांसा फेंका है।

ये पांसा कारगर साबित होगा, इसकी उम्मीदें कम हैं। असल में, कभी सऊदी अरब की आंखों का तारा रहा कतर पिछले कुछ समय से उसे खटकने लगा है। विशेषकर 2010 में ट्यूनीशिया में भड़के विद्रोह के बाद से शुरू हुए ‘अरब बसंत’ को समर्थन देने और इन देशों में लोकतंत्र की स्थापना के प्रति कतर की वचनबद्धता से सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को भी अपनी बादशाहत डांवाडोल होती नजर आने लगी। दोनों देशों ने इसे अपने शाही शासन के लिए सीधा खतरा माना। फिर 2013 में कतर में हुए नेतृत्व परिवर्तन ने तो रही-सही कसर भी पूरी कर दी। कतरी अमीर शेख तमीम बिन हम्माद अस-सानी तो अरब क्रांतिकारियों के और बड़े समर्थक निकले।

कतर ने मिस्न में मुस्लिम ब्रदरहुड यानी इखवानुल-मुस्लिमीन समेत दीगर नरम इस्लामिक समूहों की हिमायत की और लोकतांत्रिक तौर पर चुने गए वहां के पहले राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी के साथ ये समर्थन और तेज हो गया। मुर्सी के चयन ने सऊदी अरब और कतर को और बेचैन कर दिया और उसे इखवानुल-मुस्लिमीन पूरे क्षेत्र के लिए एक चुनौती लगने लगी। इसीलिए इन दोनों ने 2013 में मुर्सी को अपदस्थ करने में सेना की मदद की। यही नहीं कतर ने यमन में सऊदी अरब के नेतृत्व में लड़ रही फौजों के खिलाफ हौसी विद्रोहियों की मदद की, फलस्तीन में हमास का साथ दिया और सीरिया में भी उसने राष्ट्रपति बशर अल असद को अपदस्थ करने के मामले में सऊदी अरब से अलग लाइन चुनी।

कतर की दूसरे देशों के साथ इस कतारबंदी से साफ हो गया कि दोहा की सरकार खाड़ी देशों विशेषकर सऊदी अरब से अलग अपनी विदेश नीति पर अमलपैरा है। खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के दो अन्य सदस्य कुवैत और ओमान ने पहले से ही एक अलग परिपाटी अपना रखी है और उनका रवैया ज्यादा मुखर न होकर हमेशा निष्पक्ष, बीच-बचाव और संतुलन बनाए रखने वाला रहा है। कतर के जरिए भी खुद को इससे मुक्त करने के प्रयासों से जीसीसी में भी सऊदी अरब और यूएई को अपना प्रभुत्व कम होता प्रतीत होने लगा।

फिर कतर का ईरान की तरफ बढ़ता झुकाव और तुर्की से प्रागाढ़ होते उसके रिश्तों से सऊदी अरब और यूएई गुस्से से तमतमा गए और उन्होंने आखिरकार डोनाल्ड ट्रंप की शह पाकर कतर को अलग-थलग कर उसके साथ-साथ कुवैत और ओमान को भी सख्त संदेश देने की कोशिश की है। सवाल यह उठता है कि क्या कतर को सबक सिखाने का यह सही तरीका है कि न सिर्फ उससे राजनयिक ताल्लुक तोड़ लिए जाएं बल्कि जमीनी, हवाई और समुद्री सीमाएं भी बंद कर दी जाएं? अगर इससे कतर पर किसी तरह का दबाव बन जाता है और अरब देशों की एकतरफा मांगों के आगे घुटने टेक देता है तो फिर सऊदी और यूएई की ये ईरान पर बड़ी रणनीतिक सफलता होगी। हालांकि ऐसा होता प्रतीत नहीं होता क्योंकि कतरी अमीर अपनी जनता को फिर क्या मुंह दिखाएंगे?

अलबत्ता स्थितियां इसके उलट हुईं तो इस क्षेत्र में संकट ज्यादा विकराल रूप ले लेगा क्योंकि इस मुश्किल घड़ी में ईरान और तुर्की कतर को रिझाने के लिए हर संभव मदद को तत्पर दिखाई दे रहे हैं। जीसीसी के दो अन्य सदस्य कुवैत और ओमान भी इस गठजोड़ का हिस्सा बन गए तो फिर सऊदी अरब और यूएई की इस क्षेत्र में चौधराहट कायम करने की कोशिशों का क्या होगा? नि:संदेह ये ईरान की बड़ी जीत होगी। 1भलाई इसी में है कि वर्चस्व की लड़ाई को छोड़कर सभी खाड़ी देश एकजुटता की राह तलाश करें और आतंकवाद, कट्टरपंथ एवं आर्थिक चुनौतियों जैसे समान खतरों से मिलकर लड़ें। इस तरह वह स्वयं के साथ-साथ विश्व को भी बड़ी राहत देंगे।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.