कुछ शब्दों में नहीं बांधी जा सकती है तीर्थराज प्रयाग की पौराणिकता, यही है इसकी खासियत
प्रयाग में ही ऋषि भारद्वाज का आश्रम है, अत्रि मुनि और अनुसुइया का निवासस्थल है तथा अक्षय वट वृक्ष है। यहीं आदिशंकराचार्य से शास्त्रार्थ के बाद कुमारिल भट्ट ने प्रायश्चित किया।
नई दिल्ली (जागरण्ा स्पेशल)। इन दिनों तीर्थराज प्रयाग खूब चर्चा में है। इसकी वजह पहली तो अगले वर्ष होने वाले कुंभ मेले के कारण, दूसरी इलाहाबाद का नाम बदलकर प्रयागराज करने की चर्चा के कारण है। प्रयाग क्षेत्र को त्रिवेणी नाम से भी जाना जाता है, यह नाम बताता है कि यहां तीन नदियों का संगम है। यहीं भारद्वाज ऋषि का आश्रम है, अत्रि मुनि और अनुसुइया का निवासस्थल है तथा अक्षय वट वृक्ष है। यहीं आदिशंकराचार्य से शास्त्रार्थ के बाद कुमारिल भट्ट ने प्रायश्चित किया। यहीं नागवासुकी और तक्षक नागों के मंदिर हैं। अब से करीब दो हजार साल पहले यही गुप्तकाल की सत्ताशक्ति का केंद्र रहा, करीब सवा चार सौ साल पहले बना अकबर का किला है और यहीं से अंग्रेजों ने उत्तर भारत पर शासन किया। यह भू-भाग हिंदुस्तान की दो पवित्र नदियों गंगा-यमुना और अदृश्य नदी सरस्वती के मिलन स्थल के पश्चिमी हिस्से के दोआब में बसा है। इसके दक्षिण में अरैल यानी यमुनापार विंध्य पर्वत श्रंखला में बुंदेलखंड की ऊंची-नीची पथरीली भूमि है। पूर्व-उत्तर में यानी गंगापार मैदानी भूमि पर प्रतिष्ठानपुर स्थित है, जिसे आजकल झूंसी के नाम से जाना जाता है। पश्चिम में गंगा-यमुना के बीच की भूमि में वत्स प्रदेश की राजधानी कड़ा और बुद्ध-जैन की तपोस्थली कौशांबी है।
आठवां प्रयाग है तीर्थराज
भारत में कुल चौदह प्रयाग बसे हैं, इनमें से भागीरथी और अलकनंदा नदी से जुड़े सात प्रयाग उत्तराखंड में हैं। गंगोत्री से उपजी भागीरथी और बदरीनाथ के पास अलकापुरी से निकली अलकनंदा नदियों के मिलन स्थल पर बसा देवप्रयाग हिमालय-शिवालिक क्षेत्र का अंतिम प्रयाग है। देवप्रयाग से ही विश्व प्रसिद्ध नदी गंगा का नाम शुरू होता है। इसके बाद रामगंगा, यमुना, गोमती, घाघरा, राप्ती, गंडक, कोशी, टोंस, सोन नदियों के मिलने के बाद भी समुद्र में मिलने तक गंगा ही बना रहता है। आठवां गंगा-यमुना और अदृश्य सरस्वती के मिलनस्थल पर स्थित है। ऋषिकेश और हरिद्वार के बाद मैदानी क्षेत्र में सबसे बड़ा प्रयाग है। विद्वान गिरिजा शंकर शास्त्री कहते हैं- प्रयाग का क्षेत्र पंचकोषी था, इसका वर्णन शास्त्रों में तो है ही 'अलबेरुनी की भारत पुस्तक में भी प्रयाग का महत्व बताया गया है।
प्रयाग का अर्थ
प्रयाग शब्द की उत्पत्ति के लिए कहा जाता है कि यह 'प्रकृष्ट याग यानी यहां यज्ञों की बहुतायत है। यहां ब्रह्मा जी ने अश्वमेध सहित कई यज्ञ किए और यज्ञ के लिए भगवान शिव को यहां प्रतिष्ठापित किया। जबकि अक्षय वट में यहां भगवान विष्णु पहले से ही मौजूद थे। त्रेता में भगवान राम ने यहां यज्ञ किया। मार्कण्डेय जी कहते हैं- वनवास काल में यहां राजा युधिष्ठिर ने भी यज्ञ किया था। 'यत्र यजति भूतात्मा जहां यज्ञों की प्रचुरता हो, वही प्रयाग है।
तीर्थों का राजा है
गंगा-यमुना और सरस्वती की त्रिवेणी वाले प्रयाग के महात्म्य के बारे में रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसी दास कहते हैं-
'को कहि सकइ प्रयाग प्रभाऊ।
कलुष पुंज कुंजर मृगराऊ।।
अस तीरथपति देख सुहावा।
सुख सागर रघुवर सुखु पावा।।
इसी तरह 'पद्म पुराण के स्वर्ग खंड में कहा गया है कि प्रयाग में बीस करोड़ दस हजार तीर्थ हैं।
प्रयाग एक वन क्षेत्र
प्रयाग के पूर्व में संगम से लेकर पश्चिम में कड़ा धाम और ऋंगवेरपुर तक अरण्य का ही जिक्र मिलता है। उत्खनन में भारद्वाज आश्रम और आनंद भवन के आसपास छोटी बस्ती के अवशेष मिले हैं। अन्य दो स्थानों पर हुई खुदाई में एक हजार साल पहले तक के ही अवशेष मिले हैं। पुरातत्वविद एके दुबे कहते हैं- गंगापार प्रतिष्ठानपुर में करीब ग्यारह हजार पूर्व के अवशेष मिले हैं। प्रयाग में गंगा नदी अपना मार्ग बदलती रही है, इसीलिए यहां काशी की तरह की कई हजार वर्ष पूर्व की बसाहट के अवशेष नहीं मिलते।
पुरातन है प्रयाग
कुल मिला कर देखा जाए तो प्रयाग क्षेत्र उतना ही पुरातन है जितना गंगा-यमुना और सरस्वती नदियां। इस भूमि पर पुण्य के कार्य हमेशा से होते आए। इस क्षेत्र ने त्याग और संयम का परिचय सदैव दिया, इसका उपयोग समाज के हित में होता रहा। अपना संग्रह कुछ नहीं किया, न अट्टलिकाएं बनाईं, न प्रदूषित नगर बसाया। संयमित रह कर प्रकृति के करीब बने रहना उचित समझा। यही आज समय की पुकार है, प्रकृति के करीब रहें, पर्यावरण बचाएं। यहां जो भी हुआ, वह मध्य और आधुनिक कला में विभिन्न संस्कृतियों के मिलन से हुआ। इसलिए प्रयाग के इस योगदान को सदैव याद किया जाना चाहिए।