तमिलनाडु के स्कूलों से लेकर राजनीति तक में किस तरह हावी है जातिवाद का विष, पढ़े पूरी रिपोर्ट
तमिलनाडु में जातिवाद की स्थिति बनती नजर आ रही है आइए समझे तमिलनाडु के स्कूलों से लेकर राजनीति तक में किस तरह जातिवाद हावी है इसकी पृष्ठभूमि क्या है और किस हद तक यह हिंसा को जन्म दे रहा है और इसका क्या असर होगा

नेशनल डेस्क, नई दिल्ली: शिक्षा जागृत करती है, व्यावहारिक चेतना जगाती है और सामाजिक दायित्वों की पूर्ति को प्रेरित करती है, लेकिन यदि शैक्षिक संस्थान जातिवाद का मैदान बन जाएं तो आप क्या कहेंगे। शिक्षा और संस्कृति के लिए ख्यात तमिलनाडु में बीते कुछ वर्ष से स्कूलों में बढ़ रहा जातिवाद एक बड़े खतरे की घंटी है। राजनीति में जातिवाद कोई नई बात नहीं है, लेकिन पढ़ने-लिखने वाले बच्चों के मन में जाति का जहर घोलना बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है।
दक्षिण की डायरी: बढ़ता जातीय वैमनस्य
- स्कूल अध्ययन-अध्यापन का पवित्र स्थल होते हैं, लेकिन तमिलनाडु में कुछ स्कूलों में जातीय विद्वेष और हिंसा बढ़ रही है। खासकर राज्य के दक्षिणी क्षेत्र से शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में सरकारी स्कूलों में यह अधिक देखा जा रहा है। इस माह के आरंभ में ही थिरुनेलवेली के एक स्कूल में जातीय ¨हसा को लेकर एक छात्र की हत्या कर दी गई। हत्यारोपित भी उसी स्कूल के छात्र हैं।
- ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। कुछ समय पहले कुडलोर जिले में कट्टूपलायम के सरकारी स्कूल में छात्र जाति के नाम पर ¨हसा में उलझ गए थे। 2019 के अक्टूबर माह में एक ही सप्ताह में जाति को लेकर तीन घटनाएं हुई थीं। तंजावुर के नरिक्कुरवा क्षेत्र के एक स्कूल में सूर्या नाम के युवक को मुथारैयर समुदाय के लोगों द्वारा इसलिए पीटा गया क्योंकि वह बाइक पर सवार था। इसी प्रकार थेनी जिले में एक युवक को इसलिए पीटा गया क्योंकि वह पैर पर पैर चढ़ाकर बैठा था।
- ऐसी अन्य घटनाएं भी हैं जिनसे पता चलता है कि जातिवाद का गहरे पैठ बना चुका जहर कितना खतरनाक हो चुका है। स्कूलों में बढ़ता जातिवाद इसे और हवा दे रहा है।
जाति दर्शाते रिस्ट बैंड
- दक्षिणी तमिलनाडु के कई जिलों में इस प्रकार के जातीय वैमनस्य के बीज स्कूलों में बोए गए थे जिनका परिणाम विद्यार्थियों के मन में उग चुके जाति के जहरीले पौधे हैं। हालात यह हैं कि इस क्षेत्र के बड़ी संख्या के स्कूलों में विद्यार्थी अपनी जाति दर्शाने के लिए अलग-अलग रंग के रिस्ट बैंड बांधते हैं। थिरुनेलवेली जिले में छात्र की हत्या के पीछे यही जातिवादी रिस्ट बैंड है। एक छात्र को ऐसा रिस्ट बैंड पहनने से टोकने पर ही यह हत्या की गई। मारा गया युवक पिछड़ी जाति का था और हत्या करने वाले छात्र दलित हैं। वह नाबालिग हैं, सो उन पर निर्णय जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड करेगा, लेकिन नाबालिगों के इस कृत्य से बहुत बड़ा सवाल सामने है।
- लाल, पीले, हरे और केसरिया रंग के यह रिस्ट बैंड स्कूलों में छात्रों के हाथों में दिख जाना आम बात है। इन्हें पहनकर छात्र यह जताते हैं कि वह ऊंची जाति के हैं या नीची जाति के। बीते कुछ वर्ष से तमिलनाडु के कुछ स्कूलों में यह चलन है। 2014 में भी कुछ घटनाएं सामने आई थीं। घटना के बाद सरकार ने कार्रवाई की और दो शिक्षकों को निलंबित किया गया, लेकिन इस प्रकार की घटनाएं रोकने के लिए यह नाकाफी है। घटना के बाद विवाद बढ़ा और मृत छात्र के स्वजन और समुदाय के लोगों ने प्रदर्शन किया।
- सवाल यहां केवल हत्या का नहीं है, हत्या के पीछे के जातिवादी कारण का है। जातिवाद, वह भी स्कूलों में, छात्रों के बीच। वाकई डराने वाली बात है।
- 2019 में कई स्कूलों में एक के बाद एक इस प्रकार के जातिवादी रिस्ट बैंड के कारण हुई घटनाओं के बाद तमिलनाडु स्कूली शिक्षा निदेशालय ने रिस्ट बैंड पहनने पर प्रतिबंध लगाया था, लेकिन यह खानापूरी जैसा ही था।
- इस प्रतिबंध के कुछ समय बाद ही तब के शिक्षा मंत्री ने इस प्रकार के चलन की बात को खारिज करते हुए यह भी कहा था कि यह परंपरा से जुड़ा मामला है और इसमें छेड़छाड़ नहीं की जानी चाहिए।
- अब मंत्री के इस बयान से समझा जा सकता है कि तमिलनाडु की राजनीति में जातिवाद किस कदर घुला हुआ है और कैसे स्कूलों को जातिवाद की पाठशाला बनाया जा रहा है।
जातियों में बंटी राजनीति
- केवल तमिलनाडु की नहीं देश के कई अन्य राज्यों में राजनीति के लिए जातिवाद एक अहम बिंदु बन चुका है। जातियों के आधार पर मतदान होता है। उम्मीदवार अपनी जीत का अनुमान इसी आधार पर तय करते हैं, लेकिन तमिलनाडु इन सबसे थोड़ा अलग है।
- अधिक पीछे नहीं जाते हैं और वर्ष 2021 में हुए विधानसभा चुनाव की बात करें तो जातीय मुद्दे काफी हावी रहे। धारणा यह रही कि जो दल जातीय समीकरणों से बेहतर सामंजस्य बैठा लगा, उसका रास्ता सत्ता तक आसान रहेगा।
1930 से 1950 की अवधि में दक्षिण भारत में दलितों के मंदिर में प्रवेश, छुआछूत और जातिगत भेदभाव को खत्म करने को लेकर आंदोलन चले। तमिलनाडु भी इससे अछूता नहीं रहा। यही वह समय था, जब पेरियार रामास्वामी एक प्रमुख शख्सियत के रूप में सामने आए। द्रविड़ कषगम की नींव मजबूत हुई। हालांकि, पेरियार आंदोलन के राजनीतिक रूप लेने से सहमत नहीं थे, लेकिन आखिरकार 1950 की तमिलनाडु की राजनीति में इस द्रविड़ आंदोलन से जुड़े लोगों का प्रवेश हुआ और यहीं से तमिलनाडु की राजनीति में जातिवाद की एंट्री हुई, जो आज स्कूलों में छात्रों के रिस्ट बैंड बांधने तक पहुंच गई है।
- 1967 में डीएमके बनाने वाले अन्नादुरई के शिष्य एम. करुणानिधि के नेतृत्व में डीएमके ने विधानसभा चुनाव जीत लिया। तबसे तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति हावी रही है।
- 1972 में डीएमके से टूटकर नया धड़ा दक्षिण के सुपरस्टार रहे एमजी रामचंद्रन के नेतृत्व में बना-एआइएडीएमके।
- जातिविहीन राजनीति की परचम लेकर घूमने वाली द्रविड़ राजनीति के बावजूद तमिलनाडु के कुछ क्षेत्रों, खासकर दक्षिणी क्षेत्र में जाति आधारित राजनीति करने वाले छोटे दल प्रभावशाली हैं। इन्हीं के कारण जातिवाद वहां के समाज में काफी हावी है।
भाजपा ने बनाई नई राह
- भाजपा ने वेल्लालर जाति की सात उपजातियों को अलग नाम देकर नई राह खोली है। देवेंद्रकुलथम, कुदुंबन, पन्नाडी, कालाडी, कादयान, पल्लन पिछड़े जातिवर्ग में शामिल होना चाहती हैं।
- इन जाति के लोगों का कहना है कि उन्हें जबर्दस्ती अनुसूचित जाति श्रेणी में रखा गया है। वे इससे बाहर आना चाहते हैं और इसके लिए काफी लंबे समय से संघर्ष कर रहे हैं।
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