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    महिला आदिवासियों की आंचलिक कलाकारी से रंग जमाने लगा सरगुजिहा कालीन, कई महानगरों से मांग शुरू

    हस्तशिल्प विकास बोर्ड के माध्यम से महानगरों में पहुंचा कालीन आनलाइन मार्केटिंग की भी व्यवस्था। स्थानीय स्तर पर उद्योग नहीं होने के कारण यह महिलाएं उत्तरप्रदेश के भदोही और मिर्जापुर में जाकर प्रतिदिन 250 से 300 रपये की मजदूरी पर कालीन बनाती थीं।

    By Nitin AroraEdited By: Updated: Wed, 07 Oct 2020 06:14 PM (IST)
    महिला आदिवासियों की आंचलिक कलाकारी से रंग जमाने लगा सरगुजिहा।

    अंबिकापुर, जेएनएन। सरगुजा के सुदूर वनांचल में रहने वाली आदिवासी महिलाओं के हाथों में गजब का हुनर है। यहां का कालीन दिल्ली और मुंबई सहित देश के महानगरों में पहुंचने लगा है। प्रख्यात सूफी गायक कैलाश खेर ने भी ट्विटर पर इसकी तारीफ की है। मैनपाट में रह रहे तिब्बतियों से आदिवासी महिलाओं ने कालीन बनाने का हुनर सीखा और उसमें अपनी संस्कृति का रंग डाल दिया है।

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    स्थानीय स्तर पर उद्योग नहीं होने के कारण यह महिलाएं उत्तरप्रदेश के भदोही और मिर्जापुर में जाकर प्रतिदिन 250 से 300 रपये की मजदूरी पर कालीन बनाती थीं। लाकडाउन के कारण घर वापसी के बाद ऐसी 100 से अधिक महिलाओं को रोजगार की नई दिशा मिल गई है। रघुनाथपुर में कालीन बुनाई का काम शुरू हो चुका है। यहां हर आकार और डिजाइन के कालीन का निर्माण किया जा रहा है।

    बतौली और सीतापुर विकासखंड में भी ऐसे ही केंद्र शुरू किए जा रहे हैं। राज्य शासन ने मार्केटिंग की जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ हस्त शिल्प विकास बोर्ड को दी है। तिब्बती पैटर्न का कालीन उद्योग पुनर्जीवित मैनपाट में तिब्बतियों ने वर्ष 1959 में कालीन उद्योग की शुरआत की थी। यहां बनने वाले तिब्बती पैटर्न के कालीन आकर्षक और प्राकृतिक धागों के कारण बहुत लोकप्रिय रहे।

    सरगुजा जिले के कालीन बुनकरों को नियमित रोजगार देने के लिए दो दशक से बंद पड़े इस उद्योग को पुनर्जीवित करने का काम शुरू किया गया है। बड़े शोरूम और अमेजन से मार्केटिंग की व्यवस्था सरगुजा के परंपरागत कालीन के मार्केटिंग की व्यवस्था भी हस्तशिल्प विकास बोर्ड के माध्यम से की गई है।

    नई दिल्ली, अहमदाबाद, रायपुर और अंबिकापुर में स्थित बोर्ड के शोरूम से मांग आनी शुरू हो चुकी है। अमेजन से अनुबंध तथा डिजिटल कैटलाग के माध्यम से बोर्ड को लगातार आर्डर मिल रहे हैं। इससे परंपरागत कालीन को नई पहचान मिल रही है। वर्जन आधुनिकता की दौड़ और प्रतिस्पर्धा के कारण कालीन में कृत्रिम सामान का उपयोग होने लगा है। जबकि सरगुजा में परंपरागत कालीन पर ही काम हो रहा है। भेड़ के ऊन और परंपरागत रंगों से निर्मित कालीन की काफी मांग है। सरगुजा में डाइंग यूनिट स्थापित करने की तैयारी है। इसके लिए पानीपत और बीकानेर की निर्माता कंपनियों के संपर्क में हैं। राजू राजवाड़े प्रबंधक, हस्तशिल्प विकास बोर्ड