'अपराधी का कानून के शिकंजे से बच निकलना न्याय प्रणाली पर धब्बा', HC के फैसले को रद करते हुए SC ने क्यों कहा ऐसा?
सुप्रीम कोर्ट ने न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग कर अपराधियों के बरी होने पर नाराजगी जताई है। अदालत ने कहा कि उचित संदेह से परे सिद्धांत के दुरुपयोग से वास्तविक अपराधी बच जाते हैं जो समाज के लिए खतरनाक है। अदालत ने नाबालिग लड़की से दुष्कर्म के मामले में दो आरोपियों को दोषी ठहराने वाले ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल किया है।

पीटीआई, नई दिल्ली। न्याय व्यवस्था का दुरुपयोग कर अपराधियों के बरी होने पर सुप्रीम कोर्ट ने नाराजगी जताई है। शीर्ष अदालत ने सोमवार को कहा कि 'उचित संदेह से परे' (बियांड रीजनबल डाउट) के सिद्धांत के दुरुपयोग के कारण वास्तविक अपराधी कानून के शिकंजे से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं। किसी अपराधी को बरी करने का प्रत्येक मामला समाज की सुरक्षा की भावना के विरुद्ध है तथा आपराधिक न्याय प्रणाली पर धब्बा है।
नाबालिग लड़की के दुष्कर्म के मामले में दो आरोपितों को दोषी ठहराने वाले ट्रायल कोर्ट के फैसले को बहाल करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी की। पीठ ने पटना हाई कोर्ट के सितंबर 2024 के फैसले को रद कर दिया, जिसने उन दो आरोपितों को बरी कर दिया था जिन्हें ट्रायल कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी। पीडि़ता के पिता ने हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ शीर्ष कोर्ट ने याचिका दायर की थी।
ट्रायल कोर्ट का आदेश बहाल
ट्रायल कोर्ट के आदेश को बहाल करते हुए, पीठ ने दोषियों को दो सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया। गौरतलब है कि 'उचित संदेह से परे' सिद्धांत आपराधिक न्यायशास्त्र का मौलिक सिद्धांत है। इस सिद्धांत के अनुसार जब तक आरोपित का अपराध बिना किसी संदेह के साबित नहीं हो जाता, तब तक उसे निर्दोष माना जाता है। इसका मतलब है कि छोटी से छोटी कोई वजह नहीं होना चाहिए जिससे आरापित के निर्दोष होने की संभावना हो।
किसी निर्दोष को ना मिले सजा: SC
जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि अदालतों को समाज की जमीनी हकीकतों के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए ताकि कानून की मंशा को दबाया न जा सके और विधायिका द्वारा बनाए गए सुरक्षा उपाय सही भावना में लक्षित व्यक्तियों तक पहुंच सकें। किसी निर्दोष को सजा नहीं मिलनी चाहिए, लेकिन किसी भी अपराधी को अनुचित संदेह और प्रक्रिया के गलत इस्तेमाल के आधार पर बरी नहीं किया जाना चाहिए।
पीठ ने कहा कि उल्लेखनीय रूप से, ''उचित संदेह से परे'' सिद्धांत को गलत समझा गया है। न्यायालय ने कहा कि अक्सर सुप्रीम कोर्ट के समक्ष ऐसे मामले आते हैं, जिनमें मामूली विसंगतियों, विरोधाभासों और कमियों के आधार पर आरोपितों को बरी कर दिया जाता है।
किसी सिद्धांत का नहीं किया जाना चाहिए गलत उपयोग
पीठ ने कहा कि बियांड रीजनबल डाउट के सिद्धांत का अंतर्निहित आधार यह है कि किसी भी निर्दोष को उस अपराध के लिए सजा नहीं मिलनी चाहिए जो उसने किया ही नहीं है। लेकिन इसका दूसरा पहलू यह है कि कई बार इस सिद्धांत के गलत इस्तेमाल के कारण वास्तविक अपराधी कानून के चंगुल से बच निकलने में कामयाब हो जाते हैं। इस सिद्धांत का गलत प्रयोग, जिसके परिणामस्वरूप अपराधी संदेह का लाभ उठाकर खुलेआम घूम रहे हैं, समाज के लिए खतरनाक है।
यह है मामला
अदालत ने गौर किया कि 2016 में होली के कुछ महीने बाद पीडि़ता को अस्वस्थता महसूस होने लगी। एक जुलाई 2016 को जांच के बाद पता चला कि वह तीन महीने की गर्भवती है। पीडि़ता ने बताया कि लगभग तीन-चार महीने पहले दोनों आरोपितों ने उसके साथ दुष्कर्म किया था। भोजपुर जिले में प्राथमिकी दर्ज की गई और अदालत में आरोप पत्र दायर किया गया।
ट्रायल कोर्ट ने दोषियों को सुनाई थी आजीवन कारावास की सजा
ट्रायल कोर्ट ने दोनों आरोपितों को दुष्कर्म के अपराध और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण अधिनियम के प्रविधानों के तहत दोषी ठहराया और उन्हें आजीवन कारावास की सजा सुनाई। बाद में, हाई कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के मामले में खामियां पाते हुए कहा कि अभियोजन पक्ष उनके खिलाफ मामला साबित करने में असमर्थ रहा।
पीड़िता की आयु से संबंधित मुद्दे पर शीर्ष अदालत ने कहा कि अदालतों को पीडि़तों की सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के प्रति सजग रहना चाहिए, विशेषकर उन पीडि़तों के प्रति जो देश के दूरदराज के क्षेत्रों में रहते हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में शैक्षिक और पहचान संबंधी दस्तावेज में विसंगतियों को लेकर न्यायालयों को समाज की जमीनी हकीकत के प्रति संवेदनशील होना चाहिए।
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