Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने पर आएगा फैसला, SC में होगी बड़ी सुनवाई

    By MALA DIXITEdited By: Prince Gourh
    Updated: Sun, 16 Nov 2025 09:18 PM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने की समय-सीमा पर फैसला सुनाएगी। राष्ट्रपति ने कोर्ट से इस मुद्दे पर राय मांगी है, क्योंकि संविधान में कोई समय-सीमा तय नहीं है। कोर्ट का फैसला संवैधानिक पदों की शक्तियों को स्पष्ट करेगा। केंद्र सरकार ने समय-सीमा तय करने का विरोध किया है, जबकि गैर-भाजपा शासित राज्यों ने इसका समर्थन किया है।

    Hero Image

    राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने पर आएगा फैसला (फाइल फोटो)

    माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यीय संविधान पीठ राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए विधेयकों पर मंजूरी की समयसीमा तय करने पर इसी सप्ताह फैसला सुना सकती है। मामले पर सुनवाई करने वाली पीठ की अगुवाई करने वाले प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई 23 नवंबर को सेवानिवृत हो रहे हैं। ऐसे में जस्टिस गवई के सेवानिवृत होने से पहले फैसला आएगा।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को प्रेसीडेंशियल रिफरेंस भेजकर 14 कानूनी सवालों पर कोर्ट से राय मांगी है। इन सवालों में मुख्य रूप से यही पूछा गया है कि जब संविधान में विधेयकों पर मंजूरी को लेकर राष्ट्रपति और राज्यपाल के लिए कोई समयसीमा तय नहीं है तो क्या कोर्ट उनके लिए समय सीमा तय कर सकता है।

    क्या आएग कोर्ट का फैसला?

    इस मामले में कोर्ट का जो भी फैसला आएगा उसका पूरे देश और सभी राज्यों पर व्यापक प्रभाव होगा। क्योंकि फैसला संवैधानिक पदों पर बैठे राज्यपाल और राष्ट्रपति की शक्तियों को स्पष्ट करने वाला होगा। इस प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा, और अतुल एस चंदुरकर की पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने दस दिनों तक लंबी सुनवाई करके 11 सितंबर को अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

    पीठ की अगुवाई करने वाले प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई 23 नवंबर को सेवानिवृत हो रहे हैं ऐसे में उससे पहले फैसला आने की उम्मीद है। क्योंकि अगर किसी कारणवश फैसला नहीं सुनाया जाता है और पीठ के कोई भी न्यायाधीश सेवानिवृत हो जाते हैं तो नियम के मुताबिक पूरे मामले पर नये सिरे से नयी पीठ सुनवाई करती है।

    ऐसे में हमेशा यही होता है कि अगर किसी मामले में सुनवाई करके फैसला सुरक्षित रखा गया है तो पीठ के न्यायाधीश की सेवानिवृत से पहले फैसला आता है। राज्यपाल और राष्ट्रपति के विधेयकों पर मंजूरी की समयसीमा को लेकर मुद्दा तब उठा जब सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय पीठ ने गत अप्रैल में तमिलनाडु के मामले में फैसला दिया था जिसमें राज्य विधानसभा से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय कर दी थी।

    इतना ही नहीं कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा रोके रखे गए तमिलनाडु के दस विधेयकों को मंजूर भी घोषित कर दिया था। यह पहला मौका था जबकि सीधे कोर्ट के आदेश से विधेयकों को मंजूरी मिली थी। इस फैसले के बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने रिफरेंस भेजकर 14 कानूनी सवालों पर कोर्ट की राय मांगी है। राष्ट्रपति ने पूछा है कि जब संविधान में विधेयकों पर निर्णय लेने के संबंध में राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा तय नहीं है तो क्या सुप्रीम कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है।

    हालांकि रिफरेंस में सीधे तौर पर तमिलनाडु के फैसले को चुनौती नहीं दी गई है लेकिन जो सवाल पूछे गए हैं वो सभी सवाल उस फैसले के इर्द गिर्द ही घूमते हैं। रिफरेंस में पूछे गए सवाल अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्य विधानसभा से पास विधेयकों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति के निर्णय लेने की शक्तियों से संबंधित हैं।

    केंद्र सरकार ने रखा अपना पक्ष

    केंद्र सरकार और भाजपा शासित राज्यों ने रिफरेंस के पक्ष में बहस की यानी राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोर्ट द्वारा समय सीमा तय किये जाने का विरोध किया जबकि गैर भाजपा शासित राज्यों तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और हिमाचल प्रदेश ने रिफरेंस का विरोध किया और कहा कि राज्यपाल अनिश्चितकाल तक विधेयक नहीं रोक सकते। केंद्र सरकार की ओर से सालिसिटर जनरल तुषार मेहता और अटार्नी जनरल आर. वेंकटरमणी ने पक्ष रखा था।

    सुनवाई के दौरान जब मेहता ने कोर्ट के राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय करने का विरोध किया और संविधान में दिये गए शक्तियों के प्रथक्कीकरण का हवाला दिया था तो उसी समय चीफ जस्टिस बीआर गवई ने टिप्पणी की थी कि वह शक्तियों के प्रथक्कीरण के सिद्धांत में दृढ़ विश्वास रखते हैं। यह भी मानते हैं कि न्यायिक सक्रियता होनी चाहिए लेकिन ये न्यायिक दुस्साहस नहीं बनना चाहिए लेकिन इसके साथ ही अगर लोकतंत्र का एक पक्ष अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में विफल रहता है तो क्या कोर्ट जो संविधान का संरक्षक है शक्तिहीन होकर निष्क्रिय बैठा रहेगा।

    जेफरी एपस्टीन ने इस देश में पुलिस राज्य स्थापित करने में इजरायल की कैसे मदद की? लीक ईमेल्स से बड़ा खुलासा