'अगर मध्यस्थता से मामले का हुआ निपटारा, तो कोर्ट फीस नहीं होगी वापस', सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा ऐसा?
SC on Court Fees refund सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कोर्ट ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 89 के तहत मध्यस्थता द्वारा सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाए गए विवाद को लोक अदालत के माध्यम से विवाद के निपटारे से भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि ऐसा इसलिए क्योंकि केवल लोक अदालत में निपटारे पर ही कोर्ट फीस 100 फीसद वापस होती है।

ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने कोर्ट फीस को लेकर एक अहम फैसला सुनाया है। कोर्ट ने कहा कि सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 89 के तहत मध्यस्थता द्वारा सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाए गए विवाद को लोक अदालत के माध्यम से विवाद के निपटारे से भ्रमित नहीं किया जाना चाहिए।
कोर्ट ने कहा कि ऐसा इसलिए क्योंकि केवल लोक अदालत में निपटारे पर ही कोर्ट फीस 100 फीसद वापस होती है।
सुप्रीम कोर्ट ने क्यों कहा ऐसा?
- दरअसल, एक मामला मध्यस्थता के माध्यम से सुलझाया गया था और अपीलकर्ता को महाराष्ट्र न्यायालय शुल्क अधिनियम 1959 के अनुसार कोर्ट फीस का 50 फीसद वापस किया गया था।
- हालांकि, इसे चुनौती देते हुए कहा गया कि ये केंद्रीय न्यायालय शुल्क अधिनियम 1870 के विरुद्ध है।
- इस अधिनियम के तहत लोक अदालत को भेजे गए और निपटाए गए मामलों को 100 फीसद कोर्ट फीस वापस की जाती है।
- इस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपीलकर्ता ने गलत तरीके से मध्यस्थता कार्यवाही की तुलना की, जो न्यायालय के आदेश के माध्यम से निपटाई गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चूंकि यह समवर्ती सूची का विषय है, इसलिए महाराष्ट्र कानून के बीच विवाद की स्थिति में जिसमें केवल आधी राशि की वापसी का प्रावधान है।
- जस्टिस संजय करोल और सीटी रविकुमार की पीठ ने कहा कि कोर्ट फीस विशेष रूप से सूची II (राज्य सूची) की एंट्री 3 द्वारा दी जाती है। इसलिए, यह केंद्र और राज्य विधानों के बीच असंगति का मामला नहीं है।
क्या बोला सुप्रीम कोर्ट?
इसके अलावा, कोर्ट ने कहा कि सिर्फ इसलिए कि कोर्ट फीस का मामला वैकल्पिक विवाद तंत्र के अनुसार विवादों के निपटारे से जुड़ा है, यह प्रविष्टि 11ए, सूची III के दायरे में नहीं आएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि वैकल्पिक विवाद सिस्टम केवल लंबित मामलों को लेकर काम करता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस मामले में कोर्ट फीस की वापसी, चाहे आंशिक हो या पूरी एक लाभ ही है।
ये है मामला
दरअसल, अपीलकर्ता ने औरंगाबाद में स्थित एक संपत्ति को बेचने के लिए एक समझौता किया। जब उक्त समझौते का पालन नहीं किया जा सका, तो उसने समझौते को लेकर सिविल जज की अदालत के समक्ष एक सिविल मुकदमा दायर किया।
इसके बाद विवाद को सी.पी.सी. की धारा 89 के तहत मध्यस्थता के लिए भेजा गया और सौहार्दपूर्ण तरीके से सुलझाया गया। समझौते की शर्तें न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत की गईं और दीवानी मुकदमे का निपटारा किया गया।
न्यायालय शुल्क का 50 फीसद वापस करने का अनुरोध स्वीकार किया गया।
हालांकि, उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की गई जिसमें तर्क दिया गया कि चूंकि मामला लोक अदालत को भेजा गया था और समझौता हो गया था, इसलिए न्यायालय शुल्क अधिनियम 1870 की धारा 16 (शुल्क की वापसी) के अनुसार कोर्ट फीस वापस किया जाना चाहिए।
बॉम्बे हाईकोर्ट ने खारिज किया मामला
इसके बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने पाया कि 1870 का अधिनियम एक पूर्व-संवैधानिक अधिनियम है जो महाराष्ट्र पर लागू नहीं होता है। इसलिए, महाराष्ट्र न्यायालय शुल्क अधिनियम 1959 की धारा 43 के तहत कोर्ट फीस आधी वापस करने का प्रावधान ही लागू होगा। बाद में इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
Source: सुप्रीम कोर्ट में हुई मामले की पूरी सुनवाई और आदेश के आधार पर इस खबर को बनाया गया है। इस लिंक पर सुप्रीम कोर्ट का पूरा आदेश उपलब्ध है।
https://www.livelaw.in/pdf_upload/88120152024-12-19-577456.pdf
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