'दहेज विरोधी कानून अप्रभावी और दुरुपयोग से ग्रस्त हैं', सुप्रीम कोर्ट की सख्त टिप्पणी
सुप्रीम कोर्ट ने दहेज उन्मूलन को संवैधानिक और सामाजिक आवश्यकता बताया है। कोर्ट ने कहा कि मौजूदा कानून अप्रभावी और दुरुपयोग से ग्रस्त हैं। कोर्ट ने उच् ...और पढ़ें

दहेज विरोधी कानून कानून अप्रभावी और दुरुपयोग से ग्रस्त: सुप्रीम कोर्ट
डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को कहा कि दहेज उन्मूलन एक तत्काल संवैधानिक और सामाजिक आवश्यकता है। साथ ही, इसने कहा कि मौजूदा कानून ''अप्रभावी'' और 'दुरुपयोग' दोनों से ग्रस्त हैं और यह बुरी प्रथा बड़े पैमाने पर बनी हुई है।
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन. कोटिस्वर सिंह की पीठ ने इस बात पर जोर दिया कि इस मुद्दे से निपटने के लिए सभी के ''एकजुट प्रयास'' की आवश्यकता है। पीठ ने कई निर्देश पारित किए जिनमें उच्च न्यायालयों से आइपीसी की धारा 304-बी और 498-ए से संबंधित लंबित मामलों की संख्या का पता लगाने के लिए कहा गया ताकि इनका जल्द से जल्द निपटान किया जा सके।
दहेज उन्मूलन संवैधानिक और सामाजिक आवश्यकता: SC
उल्लेखनीय है कि पूर्ववर्ती भारतीय दंड संहिता की धारा 304-बी दहेज हत्या से संबंधित है, जबकि धारा 498-ए पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा एक विवाहित महिला के साथ हिंसा करने के अपराध से संबंधित है।
बहरहाल, पीठ दहेज हत्या के 24 साल पुराने मामले में अपना फैसला सुना रही थी। इसने केंद्र और राज्यों को निर्देश दिया कि वे सभी स्तरों पर शैक्षिक पाठ्यक्रम में आवश्यक बदलावों पर विचार करें, आने वाली पीढि़यों को दहेज की कुप्रथा और इसे त्यागने की आवश्यकता के बारे में सूचित और जागरूक किया जाए।
इस संवैधानिक स्थिति को मजबूत किया जाए कि विवाह के पक्षकार एक-दूसरे के बराबर हैं और एक दूसरे के अधीन नहीं हैं जैसा कि विवाह के समय पैसे या वस्तुओं को देने एवं लेने से स्थापित करने की कोशिश की जाती है ।
पीठ ने कहा कि यह मामला दर्शाता है कि दहेज केवल ¨हदुओं से ही संबंधित मुद्दा नहीं है, बल्कि यह प्रथा विभिन्न आस्थाओं और धर्मों को मानने वाले अन्य समुदायों में भी पाई जा सकती है।
इसने कहा, 'जहां एक ओर कानून अप्रभावी हैं और इसलिए दहेज की कुप्रथा बड़े पैमाने पर बनी हुई है, वहीं दूसरी ओर, इस अधिनियम (दहेज निषेध अधिनियम) के प्रविधानों का उपयोग आइपीसी की धारा 498-ए के साथ-साथ गुप्त उद्देश्यों को हवा देने के लिए भी किया गया है।' इसने यह भी कहा, ''कानून के अप्रभावी होने और इनके दुरुपयोग के परिणामस्वरूप एक न्यायिक तनाव उत्पन्न होता है जिसके तत्काल समाधान की आवश्यकता है।''
दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के कार्यान्वयन में आ रही है कठिनाई
सुप्रीम कोर्ट का आदेश उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर आया जिसने 2001 के दहेज हत्या मामले में एक महिला सहित दो लोगों को बरी कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपील स्वीकार कर ली और मामले में उनकी सजा बहाल कर दी।
हालांकि, इसने दोषी महिला को जेल में रखने से परहेज किया क्योंकि वह 94 वर्ष की थी। पीठ ने उस व्यक्ति को ट्रायल कोर्ट द्वारा दी गई आजीवन कारावास की सजा काटने के लिए चार सप्ताह के भीतर आत्मसमर्पण करने का निर्देश दिया।
इसने कहा, हालांकि इस मामले में आरोपितों को आखिरकार सजा मिल गई है, लेकिन ऐसे कई उदाहरण हैं जहां ऐसा नहीं हो पाता है। खुले तौर पर दहेज मांगने और देने वाले कई लोग छूट जाते हैं। विभिन्न न्यायिक फैसलों में बार-बार यह उल्लेख किया गया है कि दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के कार्यान्वयन में विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।'
केंद्र और राज्यों को पीठ के कुछ अन्य महत्वपूर्ण निर्देश
दहेज निषेध अधिकारियों को विधिवत प्रतिनियुक्त किया जाए और उन्हें सौंपे गए कर्तव्यों को पूरा करने के लिए आवश्यक साधन मिले ऐसे अधिकारियों के संपर्क विवरण को स्थानीय अधिकारियों द्वारा प्रसारित किया जाए जिससे नागरिकों के बीच जागरूकता सुनिश्चित हो सामाजिक और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को समझने हेतु पुलिस और न्यायिक अधिकारियों को समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए

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