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    आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला कितना अहम? पढ़ें कैसे बदलेगी राजनीति और समाज की दिशा

    Updated: Thu, 01 Aug 2024 11:40 PM (IST)

    Supreme Court सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण पर दिए ऐतिहासिक फैसले में एससी एसटी वर्ग को दिए जाने वाले आरक्षण में वर्गीकरण के साथ-साथ ओबीसी की तरह ही क्रीमी लेयर चिह्नित करने का फैसला दिया है। यह फैसला देश की राजनीति और समाज की दिशा बदलने का काम करेगा। जानिए कितना अहम है ये फैसला और राजनीतिक दलों की क्या हैं इसे लेकर मुश्किलें।

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    कोर्ट के फैसले पर फिलहाल राजनीतिक दलों ने चुप्पी साधी हुई है। (File Image)

    जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। आरक्षण और जाति जनगणना को लेकर चल रही राजनीतिक जंग और एक दूसरे पर बढ़त बनाने की कोशिश के बीच सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और जनजाति में वर्गीकरण के साथ साथ ओबीसी की तरह ही क्रीमी लेयर चिह्नित करने का जो फैसला दिया है, उस पर फिलहाल राजनीतिक दलों की चुप्पी है।

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    इंतजार कर रहे हैं कि पूरा एससी एसटी वर्ग कैसी प्रतिक्रिया देता है। जो भी हो, यह तय है कि यह फैसला उतना ही अहम साबित हो सकता है, जितना संविधान निर्माताओं की ओर से उस वक्त इन दो वर्गों को दिया गया आरक्षण।

    समय की जरूरत है कोर्ट का फैसला

    दरअसल, वर्षों बाद एक ऐसा फैसला आया है, जो समाज को सर्वस्पर्शी बनाएगा, क्योंकि पूर्व की धारणाओं से परे यह फैसला परोक्ष रूप से यह संदेश देता है कि आज के दिन पिछड़ापन वस्तुत: आर्थिक मुद्दों पर होता है। समय की जरूरत है कि एससी एसटी वर्ग में उन लोगों को ज्यादा लाभ मिले जो पीछे रह गए हैं।

    मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने बदली थी राजनीति

    वर्ष 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू करने के फैसले ने उत्तर भारत की राजनीति को बदल दिया था। पिछड़ों की राजनीति करने वालों का यह स्वर्णिम काल था। समाजवादी पार्टी और राजद जैसे दलों ने परिवर्तन की इसी जमीं पर जन्म लिया था और अब तक फलफूल रहे हैं। स्थितियां इनके लिए तब बदलने लगी थीं, जब ओबीसी में भी पिछड़ी जातियों में यह भावना जगी कि वह तो पीछे ही रह गए और उनके बीच साधन संपन्न कुछ जातियां आगे बढ़ती जा रही हैं।

    उनके भाग्योदय को पूरे एससी एसटी वर्ग का उत्थान मान लिया जाता है। भाजपा का उदय हुआ तो इस भावना को और बल दिया गया और ओबीसी वर्गीकरण के लिए आयोग बना दिया गया। हालांकि रिपोर्ट अब तक सार्वजनिक नहीं की जा रही है। इसका एक कारण शायद यह है कि एससी एसटी से परे ओबीसी की कई जातियां ऐसी हैं, जो कुछ राज्यों में सामान्य वर्ग में गिनी जाती है, लेकिन एससी और एसटी की सभी जातियां तो किसी न किसी रूप में पूरे देश में आरक्षित वर्ग में ही आती हैं।

    संवेदनशील मुद्दे पर राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी

    फिर भी इतनी राजनीतिक इच्छाशक्ति किसी में नहीं थी कि एससी और एसटी वर्ग की जातियों के वर्गीकरण और क्रीमी लेयर की कवायद कर सके। दरअसल देश की आबादी में संयुक्त रूप से लगभग 25 फीसदी आबादी वाले इन दो वर्गों का मुद्दा इतना संवेदनशील है कि कोई हाथ जलाना नहीं चाहता है। यह और बात है कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार ने इसके पक्ष में अपना मत दिया था, लेकिन राजनीतिक दल के तौर पर तो भाजपा भी चुप है।

    विपक्षी दलों की मुश्किलें बढ़ाने वाला फैसला?

    वैसे यह मुद्दा ज्यादा परेशान उन दलों को करेगा जो खुद को दलित राजनीति के पुरोधा मानते हैं। जाति जनगणना की बात करने वाली कांग्रेस और इंडी गठबंधन के अन्य दलों के लिए विशेष परेशानी है, क्योंकि यह गणना हुई तो मामला उल्टा भी पड़ सकता है। उसी गणना में यह सामने आ जाएगा कि जो अब क लाभ लेते रहे हैं उनकी पूरी संख्या कम तो नहीं।

    समाज की तरह ही इनका वोट भी एक मुश्त गिना जाता रहा है, उसमें तो दरारें आएंगी ही। बिहार में नीतीश कुमार सरकार ने पहले ही अति दलित जैसी एक कैटेगरी बनाकर राजद को झटका दिया था। वह तो खैर राजनीतिक फैसला था। सुप्रीम कोर्ट ने पूरी राह तैयार कर दी है। यह बदलाव की एक बड़ी घड़ी है।