Kargil War: जब किताब थामने वाले हाथों ने दुर्गम चोटियों पर पहुंचाया था गोला बारूद
Kargil Vijay Diwas Story सेना की वर्दी में हमारे वीर तो मर-मिटने को तैयार ही थे कारगिल विजय दिवस-26 जुलाई से ठीक पहले ऐसे गुमनाम नायकों की कहानी हम आपको बता रहे हैं पाकिस्तान की पराजय तय करने वाले कमांडिंग अफसरों की जुबानी।

मुकेश बालयोगी। कारगिल की लड़ाई में बटालिक के मोर्चे पर तोपखाना की कमान संभालने वाले(आर्टिलरी रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर) और वहां नेतृत्व कौशल के लिए राष्ट्रपति से युद्ध सेवा पदक प्राप्त सेवानिवृत्त मेजर जनरल संजय सरन कहते हैं कि बटालिक की लड़ाई सैन्य इतिहास के सबसे कठिन युद्धों में से एक थी। जहां शत्रु चंद कदम पर है या काफी दूर, इसका कोई पता नहीं था। अनुमान की अंधी सुंरग से होकर अग्रिम योजना बनाना भी मुश्किल है। तीव्र चढ़ाई वाले पहाड़ों पर आयुध और लाजिस्टिक को ले जाना तो अत्यंत कठिन था।
ऐसी स्थिति में स्थानीय गांव के विद्यालयों में बच्चों को राष्ट्रभक्ति का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षक ही रणबांकुरे बन कर सैनिकों के साथ आ जुटे। किताब थामने वाले हाथों ने युद्ध में विजय के लिए आवश्यक आयुधों को ऊंचाइयों तक पहुंचाया। भारवाहक बनकर सिर पर अनाज कें बोरे लादे और लंबे युद्धकाल में सैनिकों को रसद की कमी नहीं होने दी। शिक्षकों के पीछे-पीछे दूसरे सरकारी कर्मचारी भी मैदान में आ गए। हंसिया चलाने वाले किसानों ने भारी लाजिस्टिक को कंधों पर लादकर अग्रिम मोर्चे तक पहुंचाया। जवानों, किसानों और शिक्षकों की जंगी जुगलबंदी ने ही विजय को संभव बनाया।
तंबू चिथड़ा हुआ, विश्वास ही नहीं हुआ जिंदा हूं
अब लखनऊ में निवास कर रहे मेजर जनरल संजय सरन बताते हैं कि पहाड़ में कुछ ऊंचाइयों पर तोपखाना पहुंचाने के बाद हमने चट्टानों की आड़ में तंबू डालकर कंट्रोल रूम बनाए। एक दिन रात में सोते समय दुश्मन के गोले से निकले नुकीले हिस्से मेरे तंबू को चिथड़े-चिथड़े कर गए। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि मौत छूकर निकल गई और मैं जीवित हूं। दुश्मन के गोले से हमारे हथियारों और गोला-बारूद का भंडार नष्ट हो गया, लेकिन जीत के जुनून को हमने नहीं छोड़ा।
भागते घुसपैठियों को भी हमने नहीं छोड़़ा
जब गोले कुछ मीटर की दूरी पर हर सेकंड फट रहे हों, कटे पैर और हाथ को लेकर साथी जवान कराह रहे हों, उस समय का अनुभव कितना गहरा होता है, इसे शब्दों में बता पाना बहुत कठिन है। बटालिक में 15 फील्ड रेजिमेंट की कमान संभालने वाले रिटायर्ड मेजर जनरल संजय सरन कहते हैं कि हफ्तों तक नींद गायब रही। केवल यही चिंता सताती रही कि कैसे दुश्मनों को निकाल कर बाहर किया जाए। जैसे ही हमने घुसपैठियों के बंकरों पर कब्जा शुरू किया तो वे पीछे की ओर हटने लगे। पीठ दिखाते उन कायरों को भी हमने नहीं छोड़ा। कुछ मारे गए। कुछ गिरफ्तार हुए और कुछ को वास्तविक नियंत्रण रेखा के पार खदेड़कर ही दम लिया।
रेजिमेंट को मिले 17 वीरता पुरस्कार
बटालिक में तोपखाने का मोर्चा संभालने 15 फील्ड रेजिमेंट के कमांडिंग आफिसर के रूप में संजय सरन को नेतृत्व कौशल के लिए राष्ट्रपति से युद्ध सेवा पदक हासिल होने के साथ अन्य अफसरों और जवानों को 17 वीरता पुरस्कार मिले। ये पुरस्कार देश के दुश्मनों को खदेडऩे में मिली साहसिक सफलता के लिए थे। सरन कहते हैं कि हमारे जवानों ने मौत की चिंता छोड़ दी थी। आपसी बातचीत में भी यही बात आ रही थी कि घुसपैठियों को खदेडऩे की त्वरित रणनीति कैसे बनाई जा सकती है।
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