चुनावी फायदे के लिए खर्च हो रहे राज्य के संसाधन, देश में समावेशी विकास होगा बाधित
भारत की अर्थव्यवस्था मजबूत हो रही है, लेकिन राज्यों द्वारा चुनावी लाभ के लिए अंधाधुंध खर्च करने से विकास में असंतुलन आ रहा है। पंजाब और हिमाचल जैसे राज्य अपनी आय का बड़ा हिस्सा वेतन और कर्ज चुकाने में खर्च कर रहे हैं, जिससे पूंजीगत खर्च कम हो रहा है। वित्तीय प्रबंधन में सुधार न होने पर राज्यों का हाल लैटिन अमेरिकी देशों जैसा हो सकता है। कल्याणकारी योजनाओं को समयबद्ध और रोजगार से जोड़ना चाहिए।

राज्यों ने खुद को एक खतरनाक पैटर्न में फंसा लिया है (प्रतीकात्मक तस्वीर)
विकास सिंह। भारत की अर्थव्यवस्था मजबूती से आगे बढ़ रही है। आर्थिक वृद्धि दर सात प्रतिशत के आसपास बनी हुई है और विदेशी निवेशक इसे निवेश के लिए सबसे आकर्षक गंतव्य के तौर पर देख रहे हैं। हालांकि मजबूत आर्थिक संकेतकों के बीच विकास के मोर्चे पर एक गहरा असंतुलन छिपा हुआ है।
सबको बेहतर जीवन सुनिश्चित करने के लिए समावेशी विकास की धारा पूरे प्रवाह के साथ आगे नहीं बढ़ पा रही है। इसका कारण महत्वाकांक्षा का अभाव नहीं गलत प्राथमिकताएं हैं। भारत के राज्य विकास की वास्तविक प्रयोगशालाएं हैं, लेकिन इन्हीं राज्यों ने खुद को एक खतरनाक पैटर्न में फंसा लिया है। ये राज्य चुनावी फायदे के लिए संसाधनों को अनाप शनाप तरीके से खर्च कर रहे हैं। इससे पूंजीगत खर्च के लिए बहुत कम पैसा बचता है।
पूंजीगत खर्च ही पूंजी निर्माण की प्रक्रिया को तेज करता है और आर्थिक वृद्धि की रफ्तार को बढ़ाता है। ऐसे में ग्रोथ का इंजन एक ही पहिये पर घिसट रहा है। भारत में वित्तीय असंतुलन केंद्र से नहीं बल्कि राज्यों से शुरू होता है। लोकलुभावन कदम जैसे कर्ज माफी, मुफ्त बिजली और कैश ट्रांसफर आज कल चुनावी मौसम का अभिन्न हिस्सा हो गया है।
पंजाब ने 2024-25 में अपनी राजस्व प्राप्तियों का करीब 76 प्रतिशत वेतन, पेंशन और कर्ज का ब्याज चुकाने पर खर्च किया। ऐसे में विकास के लिए बहुत कम पैसा गया। हिमाचल ने 2025-26 के बजट का करीब 60-65 प्रतिशत इसी मद के लिए आवंटित किया है। यह एक खराब ट्रेंड है, जहां राज्य कल की क्षमता की कीमत पर आज खर्च कर रहे हैं।
पूंजीगत खर्च समावेशी विकास का आधार है। यह सड़कों, स्कूलों और कारखानों के लिए पैसा मुहैया कराता है जिससे रोजगार पैदा होता है। इसके बावजूद बहुत से राज्यों में पूंजीगत खर्च लोकलुभावनवाद का पहला शिकार बन गया है। 2024-25 में पंजाब का पूंजीगत खर्च 7,445 करोड़ रुपये रहा। जो प्रमुख राज्यों में सबसे कम है और वेतन व ब्याज पर होने वाले खर्च के दसवें हिस्से से भी कम है।
हिमाचल प्रदेश का पूंजीगत खर्च लगभग 6,270 करोड़ रुपये है। बिहार में, प्रति व्यक्ति आय मात्र 66,828 रुपये है, जो भारत की प्रति व्यक्ति आय 2,15,935 का बमुश्किल एक तिहाई है। हालांकि बिहार ने अपने निवेश अनुपात में सुधार किया है, पूंजीगत व्यय अभी भी कुल व्यय का लगभग 10-12 प्रतिशत ही है। कुल मिलाकर, भारत के सार्वजनिक व्यय में राज्यों की हिस्सेदारी लगभग 60 प्रतिशत है।
राज्यों में जैसे जैसे चुनाव नजदीक आते हैं, मुफ्त सौगातों की घोषणाएं बढ़ती जाती हैं। मुफ्त बिजली, पेंशन और “गारंटी” अब राजकोषीय परिदृश्य पर हावी हो गए हैं। यह और कुछ नहीं, उधार के पैसों से उदारता की होड़ है। पंजाब का कर्ज अब सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के लगभग 46 प्रतिशत के बराबर है, जो भारत में सबसे ज्यादा है।
हिमाचल प्रदेश का कर्ज वेतन संशोधन, बिजली सब्सिडी और पेंशन देनदारियों के कारण जीएसडीपी के 44 प्रतिशत से ऊपर पहुंच गया है। दोनों ही राज्यों में ब्याज भुगतान पूंजीगत खर्च से अधिक है।
विडंबना यह है कि जो राज्य समावेशन की सबसे ज्यादा दुहाई देते हैं, वही अपने भविष्य को सबसे ज्यादा लापरवाही से गिरवी रख रहे हैं। नेकनीयत से किया गया कल्याणकारी कार्यक्रम भी, अगर गलत तरीके से लक्षित किया जाए, तो प्रतिगामी हो सकता है। जब अमीर और मध्यम वर्ग सब्सिडी से समान रूप से लाभान्वित होते हैं, तो सामाजिक व्यय राजकोषीय रिसाव में बदल जाता है।
अगर वित्तीय प्रबंधन में सुधार नहीं किया गया तो भारत के राज्यों का हाल भी लैटिन अमेरिकी देशों जैसा हो सकता है। इन देशों में राज्यों ने लोगों को जनकल्याण के नाम पर मुफ्त की सुविधाओं पर खूब खर्च किया और अब संसाधनों के संकट का सामना कर रहे हैं ।
ब्राजील के राज्यों ने पूंजीगत खर्च में कटौती की, जिससे कर्ज सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के 40 प्रतिशत से अधिक हो गया और विकास दर लगभग शून्य हो गई। भारत के राज्य पंजाब, बंगाल और हिमाचल प्रदेश भी इसी राह पर हैं।
16वें वित्त आयोग को पूंजीगत खर्च के लक्ष्यों के साथ विकेंद्रीकरण को जोड़ना चाहिए। कनाडा प्रांतीय स्तर पर बुनियादी ढांचे के लिए अनुदानों के साथ ऐसा ही करता है। राज्यों को केरल के राजस्व-समर्थित केआईआईएफडी मॉडल को अपनाना चाहिए। इसका मतलब है बजट से बाहर उधार लें, लेकिन केवल भविष्य के करों के विरुद्ध।
कल्याणकारी योजनाएं समयबद्ध, डायरेक्ट बेनेफिट ट्रांसफर से जुड़ी और नौकरियों से प्रेरित होनी चाहिए। ऐसे सुरक्षा उपायों के बिना, भारत की 7 प्रतिशत की वृद्धि दर बढ़ते संघीय विभाजन को छिपा देगी। एक राज्य राजमार्ग बनाएगा और दूसरा राज्य अपने संसाधनों को सब्सिडी पर खर्च करेगा।
(लेखक समग्र विकास विशेषज्ञ हैं)

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