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सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एससी एसटी कानून पर होनी चाहिए बहस

अगर किसी कानून का लगातार बेजा इस्तेमाल होता हो तो इस तरह की व्यवस्था वाजिब है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से समाज का एक तबका खुशी जाहिर कर रहा है कि अब इस कानून का गलत इस्तेमाल कमजोर, वंचित तबके के लोग नहीं कर सकेंगे।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 26 Mar 2018 10:57 AM (IST)Updated: Mon, 26 Mar 2018 05:03 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एससी एसटी कानून पर होनी चाहिए बहस
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद एससी एसटी कानून पर होनी चाहिए बहस

नई दिल्ली [रवि शंकर]। सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति और जनजाति अधिनियम 1989 की धारा 18 के विरुद्ध जाते हुए अग्रिम जमानत को मंजूरी देकर और गिरफ्तारी से पहले उच्च अधिकारी या पुलिस प्रमुख की इजाजत को अनिवार्य करके राजनीतिक बहस की गुंजाइश पैदा की है। हालांकि न्यायालय ने स्पष्ट किया कि गिरफ्तारी से पहले आरोपों की प्रारंभिक जांच जरूरी है। इतना ही नहीं, गिरफ्तारी से पहले जमानत भी मंजूर की जा सकती है। जाहिर है, सुप्रीम कोर्ट ने सामाजिक संरक्षण के लिए बनाए गए कानूनों के दुरुपयोग की रोकथाम के मकसद से ये दिशा-निर्देश जारी किए हैं। अगर किसी कानून का लगातार बेजा इस्तेमाल होता हो तो इस तरह की व्यवस्था वाजिब है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले से समाज का एक तबका खुशी जाहिर कर रहा है कि अब इस कानून का गलत इस्तेमाल कमजोर, वंचित तबके के लोग नहीं कर सकेंगे। पर सवाल यह उठता है कि वंचित, दलित समुदाय की रक्षा के लिए ऐसा कठोर कानून बनाने की आवश्यकता ही क्यों पड़ी थी?

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भारत में जातिवाद की जड़ें सदियों पुरानी हैं। निचली जातियों के साथ जो अमानवीय व्यवहार होते रहे हैं, वह हमारे समाज की कड़वी सच्चाई है। तो अहम सवाल यह है कि क्या यह सच्चाई अब बदल गई है? क्या हमारे समाज में तमाम प्रावधानों के बावजूद दलित मजबूत स्थिति में आ गए हैं? बहरहाल अदालत ने यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता और संविधान की धर्मनिरपेक्ष और जातिविहीन समाज की भावना के अनुरूप किया है, लेकिन इस पर अनुसूचित जाति और जनजाति समाज प्रतिक्रिया जता सकता है। न्यायालय ने कहा है कि इस कानून का दुरुपयोग बढ़ गया है और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़े इसके प्रमाण हैं, लेकिन इन आंकड़ों का यह भी मतलब है कि कानून का सही ढंग से अमल नहीं होता और जांच एजेंसियां सही ढंग से अपना काम नहीं करतीं।

इन आंकड़ों को देखकर यह कहा जा सकता है कि दलितों और आदिवासियों के उत्पीड़न के खिलाफ कार्रवाई के मामले में सत्ता का तंत्र ढीला पड़ जाता है। ये आंकड़े शिकायतों के फर्जी होने से ज्यादा सत्ता की मशीनरी पर सवाल खड़े करते हैं। साथ ही यह आशंका भी पैदा होती है कि राजनीतिक दुश्मनी के चलते किसी बेगुनाह को परेशान या ब्लैकमेल करने के लिए मुकदमे लगाए गए हों। स्थिति इसके ठीक विपरीत भी हो सकती है। संभव है घटना होने के बावजूद दलित वर्ग को पुलिस, प्रशासन और समाज के प्रभुत्वशाली लोगों का समर्थन न मिलने के चलते मामले छूट जाते हों। भारत की विशिष्ट सामाजिक स्थितियों में ऐसा होना बिल्कुल संभव है, क्योंकि संस्थाओं में उच्च पदों पर दलितों और आदिवासियों का न के बराबर प्रतिनिधित्व है। ऐसे में न्याय पाना उनके लिए आसान नहीं है। इसीलिए एससी-एसटी एक्ट जैसे कानून की जरूरत पड़ी, लेकिन बावजूद इसके न तो छुआछूत का अंत हुआ और न ही दलितों पर अत्याचार रुके।

महत्वपूर्ण बात यह है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद 2015 में संशोधन लाकर इस कानून को सख्त बनाया था। इसके तहत विशेष कोर्ट बनाने और तय समय सीमा के अंदर सुनवाई पूरी करने जैसे प्रावधान जोड़े गए। 2016 में गणतंत्र दिवस के दिन से संशोधित एससी-एसटी कानून लागू हुआ, लेकिन अब न्यायपालिका ने उसमें प्रक्रियागत बदलाव कर दिए। खैर 1989 में जब यह कानून बनाया गया था तो इसके तहत किसी का सामाजिक और आर्थिक बहिष्कार करने के साथ जातिगत आधार पर अपमानित करने को गैर जमानती अपराध माना गया था। इस कानून की मूल भावना यह थी कि दलितों के खिलाफ हजारों साल से जो जातिगत अपमान, भेदभाव और अत्याचार किए जाते रहे हैं, उन पर रोक लगे। हालांकि इस बीच ब्लैकमेल की कुछ घटनाएं भी होती रहीं। ऐसे में इस कानून को लेकर अक्सर सवाल उठते थे, लेकिन अब इसका गलत इस्तेमाल अगड़ी जाति के लोग नहीं करेंगे, यह कैसे सुनिश्चित होगा?

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