गिद्ध: एक प्राकृतिक समाधान, यह हैं प्रकृति के सफाईकर्मी
रामायण में जटायु का महत्वपूर्ण स्थान है उसी प्रकार कई संस्कृतियों में गिद्धों का महत्व है। गिद्ध प्रकृति के सफाईकर्मी हैं जो मृत पशुओं का निपटान करते हैं और बीमारियों को रोकते हैं। भारत में गिद्धों की 9 प्रजातियाँ पाई जाती हैं लेकिन इनकी संख्या में भारी गिरावट आई है। डाइक्लोफेनाक नामक दवा इसके लिए जिम्मेदार थी जिस पर अब प्रतिबंध लगा दिया गया है।

डिजिटल डेस्क, नई दिल्ली। भारत में जब भी रामायण के सीता, राम और रावण की बात होती है तभी रामायण में वर्णित एक अहम पात्र जटायु (गिंद्ध) का नाम आना निश्चि है। रामायण में जटायु को एक शक्तिशाली चरित्न के रूप मे दर्शाया गया है, जिसका आकार अन्य पक्षियों के परिपेक्ष में बड़ा और सामाजिक चेतना का है।
ठीक ऐसे ही फारसी समुदाय के 'दख़मा' या 'टावर ऑफ साइलेंस' के रीति-रिवाज़ में गिद्धों की अहम भूमिका रहती है। मिश्र (इजिप्ट) के पौर मान्यताओं में 'नेख्बेत' को उत्तरी मिश्र की देवी के रूप में अग्रिम दर्जा दिया गया है, जो की गिद्ध का ही एक प्रतिरूप है। न सिर्फ पौराणिक कथाओं धार्मिक मान्यताओं में बल्कि, आधुनिक वैश्वीकरण में भी गिद्धों के नाम, चिन्ह और उनकी पैनी एवं दूरदर्शी नज़रों का प्रयोग वस्तुओं और शिल्प-व किया जाता रहा है।
विभिन्न भाषाओं, धार्मिक मान्यताओं और स्थानीय दंत कथाओं में जटायु/गिद्धों की चर्चा अनेक रूपों में होती आई है। प्रकृति में इन्हे मानविक चेतन आधार पर 'उत्तरीण सफाई कर्मी' का दर्जा दिया जाता रहा है। मृत पशुओं के सड़े-गले मांस का कुशलता से निपटान करना और उसके फलस्वरूप फैलने वाली बीमारियों की रोकथाम मे गिद्ध अग्रणीय हैं।
पूरे विश्व भर मे गिद्धों की कुल 23 प्रजातियाँ पाई जाती है, जिनमे से भारत में गिद्धों की कुल प्रजातियाँ देखने को मिलती है। गिद्धों की इन 9 प्रजातियों में से तीन प्रजातियाँ विदेशों से भारत में उत्तम भोजन, ठहराव और प्रजनन के लिए आते हैं, शेष 6 प्रजातियों ने भारत को अपने स्थायी ठीकने के रूप मे स्वीकार किया है।
बुजुर्गों के अनुसार गिद्ध सालों भर गाँव के बाहर कूड़े एवं फेंके गए मृत पशुओं के शवों के ऊपर मंडराते हुए दिख जाया करते थे, मगर आज बेहद कम संख्या में दिखते हैं। बीते काल से ही गिद्धों को अन्य पक्षियों के मुक़ाबले कम ही आदर मिलता आया है। गिद्धों के मुर्दाख़ोर होने की इनके लिए एक अलग दृस्टिकोन बना रहा। हमारे समाज में कुछ जातियाँ एवं समुदाय जो मृत पशुओं का खाल निकालने के काम किया करती हैं, सबसे पास उनहोंने ही देखा। इन समुदायों के बुजुर्गों से बातचीत में पता चलता है की अभी के समय में गिद्धों की संख्या के भरी गिरावट आई है।
1990 के दशक के मध्य में आकाष्मिक ही गिद्धों की संख्या में 99 फीसदी की गिरावट आ गई और कई वैज्ञानिक शोध से ये भी सामने आया है की गिद्धों की संख्या में गिरावट का मूल कारण उस वक्त इस्तेमाल होने वाले केमिकल/रसायन 'डाइक्लोफेनाक' का पशु उपचार में भागीदार होना था।
डाइक्लोफेनाक मूलभूत रूप से एक दर्दनाशक दवाई है जो पशुओं को पीड़ा से मुक्ति देने के लिए इस्तेमाल की जाती रही है। हालाँकि गिद्ध सड़े-गले माँस को पचाने में सामर्थ थे, परन्तु या रसायन उनके अंदरूनी संरचना और पाचन अंगों के लिए विषाक्त साबित हुए, और इसके फलस्वरूप, गिद्धों की संख्या मे भारी गिरावट आई।
डाइक्लोफेनाक का उपचार मवेशियों को दर्दनाशक के रूप में दिया जाता है, लेकिन जिन मवेशियों के उपचार के उपरांत भी मृत्यु हो जाती है, उनके मृत शरीर में या रसायन लगभग 2 से 3 दिनों तक रहता है। इन मृत मवेशियों के शवों को गिद्धों द्वारा खाये जाने पर यह रसायन गिद्धों के पाचन क्रिया तक पहुँचती है एवं उन्हे हानी पहुँचती है। लगभग 3 से 4 दिनों तक खाना न पचा पाने और भूखे होने की स्थिति में इनकी मृत्यु हो जाती है।
मौजूदा समय मे बढ़ती नयी बीमारियाँ, हर व्यक्ति के जीवन के एक गहरा प्रभाव छोड़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या और उससे पड़ने वाले दबाव से परिस्थितिकी तंत्र का हाल बेहाल होने अब स्पष्ट होने लगा है। भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी पशुपालन चलन में है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार भारत में लगभग 52 करोड़ मवेशी, बकरी, भेड़ का दोहन होता है। जंगलों में मिलने वाले भोजनों के अलावा गिद्ध आमतौर पर गाँव अथवा शहरों के बाहर फेंके जाने वाले मृत पशुओं पर निर्भर होते हैं।
मुरदखोरों के आभाव में मृत पशुओं के शव, विभिन्न प्रकार के रोगों एवं विकारों का घर बन जाता है। इन सड़ते शवों से 'जुनोटिक बीमारियों' का खतरा बना रहता है। जुनोटिक बीमारियाँ संक्रामक रोगों का प्रकार है जो खुले मे सड़े-गले मांस से फाइल सकती है, जिसका सीधा असर मानव स्वस्थ पर पड़ सकता है। गिद्धों की गैर मौजूदगी में कुत्ते और जंगली सूअर इन मृत शवों को खाते हैं, ऐसे में रेबीज़ जैसी बीमारियों मे भी बढ़ौतरी देखि जा सकती है, जो की एक सामाजिक चर्चा का विषय है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा की गिद्ध से हम और हम गिद्धों से प्रभावित होते हैं।
गिद्ध न सिर्फ अपने काम में कुशल अभियंता के रूप में काम करते हैं, बल्कि इस काम में गिद्धों के अलावा विकल्प ढूंढ पाना भी मुश्किल है। कुत्ते, कौए, बगुले, एवं सूअर, जैसे अन्य जीवों की तुलना में गिद्ध मानवीय गतिविधियों से दूरी बनाए रखते हैं, एवं अपने घोंसलों को भी एकांत जगहों पर बनाना पसंद करते हैं।
गिद्धों की संख्या में आई गिरावट ने भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य और पर्यावरण दोनों पर गहरा असर डाला है। लेकिन पिछले दो दशकों में किए गए कई प्रयासों ने उम्मीदें फिर से जगाई है। वैज्ञानिक शोधों और लोगों से प्राप्त ज्ञान के आधार पर भारत सरकार द्वारा 2006 में डाइक्लोफेनाक पर प्रतिबंध लगाया
गया और अब 'मेलोक्सिकैम' जैसी गिद्धों के लिए सुरक्षित दवाओं के प्रयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। यह कदम गिद्धों के संरक्षण की दिशा में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। हालाँकि आज भी देश के कई जगहों में गिद्धों के लिए हानिकारक दवाओं का गुप्त रूप से प्रयोग जारी है।
इसी तरह भारत सरकार ने 2020-2025 के लिए राष्ट्रीय गिद्ध संरक्षण और प्रजनन योजना (गिद्ध कार्य योजना-वल्चर एक्शन प्लान 2020-2025) लागू की है, जिसके अंतर्गत सुरक्षित केंद्र, 'विचर-सेफ ज़ोन' और प्रजनन केंद्र स्थापित किए गए हैं। कई गैर-सरकारी संगठन भी स्थानीय स्तर पर ग्रामीण समुदायों के साथ मिलकर गिद्धों के घोंसले और भोजन स्थलों की रक्षा सुनिश्चित कर रहे हैं।
हमें यह बात समझने की जरूरत है की गिद्धों को बचाना केवल सरकारी नीतियों की जिम्मेदारी नहीं है। गिद्ध सुरक्षित एवं साफ पर्यावास के लिए एक स्थानीय समाधान हैं, ऐसे में उन्हें बचाना भी हमारे स्थानीय प्रयासों को बढ़ावा देने से ही संभव है। ग्रामीण इलाकों में यदि मृत पशुओं को खुले में फेंकने की बजाय 'गिद्ध भोजन स्थल' (vulture restaurants) बनाकर एक सुरक्षित जगह पर रखा जाए, तो गिद्धों को स्वच्छ भोजन मिल सकेगा और गाँव-शहर दोनों जगहों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ कम होंगी।
समुदायों की जागरूकता भी इसमें महत्वपूर्ण है। जिस तरह लोग अब प्लास्टिक कचरे या जल संरक्षण के मुद्दे पर चर्चा करते हैं, ठीक उसी तरह गिद्धों के संरक्षण को भी एक सामाजिक संवाद का हिस्सा बनाना अनिवार्य है। इनकी अनुपस्थिति से होने वाला नुकसान सीधे हमारे स्वास्थ्य, अर्थव्यवस्था और जीवनशैली पर असर डाल सकता है और यह बात आम लोग जितनी जल्दी समझेंगे, उतनी ही जल्दी परिस्थिति को बेहतर किया जा सकता है।
गिद्ध केवल मृत पशुओं को साफ़ करने वाले पक्षी नहीं हैं वे हमारे सहचर, स्वास्थ्य सुरक्षा अभियंता और पर्यावरण के मौन रक्षक हैं। वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन, नई बीमारियाँ और पर्यावरणीय संकटों के बढ़ते घटनाक्रम में एक समाधान हमारे आसपास ही मौजूद है। गिद्ध हमारे लिए एक प्राकृतिक स्वास्थ्य बीमा की तरह हैं। उन्हें बचाना दरअसल अपनी आने वाली पीढ़ियों को सुरक्षित करने का सबसे सरल मार्ग है।
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