मैंने अपनी अपनी आंखें खोईं, दुनिया आगे बढ़ गई हम नहीं', पीड़ित संतोष को आज भी है न्याय का इंतजार
भोपाल गैस त्रासदी को लगभग 40 साल हो गए हैं लेकिन उससे पीड़ित लोगों को आज न्याय मिलने का इंतजार है। उनमें एक हैं 61 वर्षीय संतोष कुलकर्णी जो डोंबिवली में तिलक रोड के पास और भगत सिंह रोड पर गजानन महाराज मंदिर के बाहर चुपचाप अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं। संतोष 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के एक जीवित व्यक्ति हैं जिनको न्याय का इंतजार है।

श्रीकांत खुप्रकर, मुंबई। भोपाल गैस त्रासदी को लगभग 40 साल हो गए हैं, लेकिन उससे पीड़ित लोगों को आज न्याय मिलने का इंतजार है। उनमें एक हैं 61 वर्षीय संतोष कुलकर्णी जो डोंबिवली में तिलक रोड के पास और भगत सिंह रोड पर गजानन महाराज मंदिर के बाहर, चुपचाप अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं।
कुछ स्थानीय लोग उनको पहचानते हैं। कुछ पानी पिलाते हैं। कुछ सुनने के लिए रुकते हैं। ज्यादातर लोग वहां से गुजर जाते हैं। क्योंकि लोग उनके इतिहास से अनजान हैं। दर-दर भटकता यह काला चश्मा पहने यह मृदुभाषी संतोष 1984 की भोपाल गैस त्रासदी के एक जीवित व्यक्ति हैं जिनको न्याय का इंतजार है।
मूल रूप से पुणे के रहने वाले संतोष की उम्र महज 20 वर्ष थी, जब उन्हें नवंबर 1984 के अंत में कम समय के लिए इलेक्ट्रीशियन के अनुबंध पर भोपाल भेजा गया था। आपदा आने से कुछ ही दिन पहले।
उन्होंने बताया कि मेरा उस रात ने सब कुछ छीन लिया। मैं साँस नहीं ले पा रहा था, मुझे उल्टियां हो रही थीं, मेरी आंखें जल रही थीं। कुछ ही घंटों में, मेरी दृष्टि हमेशा के लिए चली गई। यूनियन कार्बाइड कारखाने से जानलेवा मिथाइल आइसोसाइनेट गैस के रिसाव के बाद, उनके ठेकेदार उन्हें तुरंत पुणे ले आए और एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराया। डॉक्टरों ने कहा था कि मैं ठीक हो जाऊंगा। लेकिन मैंने फिर कभी रोशनी नहीं देखी।
संतोष अब कसारा के पास खरदी में एक साधारण से कमरे में रहते हैं, जो एक व्यापारी ने नाम न बताने की शर्त पर दिया था। संतोष कहते हैं कि व्यापारी ने कहा कि मैं रह सकता हूं, लेकिन अपना नाम कभी नहीं बताना। उन्होंने मेरी जान बचाई। संतोष अब अपनी बहन सरिता और बहनोई रमेश निंबालकर के साथ रहते हैं, जो खुद भी बुजुर्ग हैं। आठ महीने पहले संतोष की मां के निधन के बाद यह दंपत्ति पुणे से यहां आकर बस गए थे।
संतोष कहते हैं, "मैं वहाँ भीख माँगने नहीं, बल्कि लोगों को दिखाने जाता हूँ। अगर मैं घर पर बैठूँ, तो मानो मैं मर ही गया।"
बैंक कर्मचारी संजय शेरलेकर, संतोष को सालों से देखते आ रहे हैं। वह कहते हैं, "वह हमेशा एक ही जगह पर रहता है। कभी मैं उसे खाना देता हूँ, कभी पैसे। वह कभी भीख नहीं माँगता। वह बस... वहीं रहता है। लोग जो भी देते हैं, उसे स्वीकार कर लेता है। लोग उसे कभी बासी खाना नहीं देते। वह हमेशा ताजा होता है"। वह आगे कहते हैं, "जो भी उसकी मदद करता है, वह उसका सम्मान करता है।"
भोपाल गैस त्रासदी ने आधिकारिक तौर पर हजारों लोगों की जान ले ली थी और कई लोगों को दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ा: अंधापन, फेफड़ों की क्षति, कैंसर और जन्मजात विकृतियाँ। संतोष जैसे बचे लोगों ने मुआवजे और उचित सहायता के लिए दशकों तक इंतजार किया है।
संतोष कहते हैं, "मुझे कई सालों तक कोई विशेष मुआवजा नहीं मिला, यहां तक कि विकलांगता प्रमाणपत्र भी नहीं मिला। सिर्फ नेकदिल लोगों ने ही मुझे जिंदा रहने में मदद की है।"
2010 में, आठ अभियुक्तों को सिर्फ दो साल की जेल की सजा सुनाई गई थी। सभी जमानत पर रिहा कर दिए गए। पीड़ितों के समूहों ने इसे "न्याय का मजाक" बताया।
अपने संघर्षों के बावजूद, संतोष नियमित और आस्थावान जीवन जीते हैं। एक धर्मनिष्ठ ब्राह्मण होने के नाते, वह आज भी सुबह साढ़े तीन बजे उठकर सुबह की ट्रेन पकड़ने से पहले प्रार्थना करते हैं।
संतोष ने कहा कि मैंने नौवीं कक्षा तक पढ़ाई की। मैंने इलेक्ट्रीशियन की ट्रेनिंग ली। मैं कड़ी मेहनत करना और सम्मान से जीना चाहता था। मैंने कभी नहीं सोचा था कि मेरी ज़िंदगी न्याय के इंतज़ार में एक इंतज़ार कक्ष बन जाएगी। संतोष दया की तलाश में नहीं है, बल्कि संभावना की तलाश में है।
वे कहते हैं, "अगर कोई संस्था मुझे खरदी में एक छोटा-सा व्यवसाय शुरू करने में मदद कर सकती है, तो इससे न सिर्फ मुझे, बल्कि मेरी बहन और बहनोई को भी मदद मिलेगी। हम बूढ़े हो गए हैं, लेकिन हम सम्मान के साथ जीना चाहते हैं।"
स्थानीय स्तर पर प्रयास सामने आ रहे हैं। संपर्क करने पर, कल्याण-डोंबिवली नगर निगम की सहायक आयुक्त हेमा मुंबरकर ने कहा, "मैं मदद करने की कोशिश करूंगी। मैं संतोष के लिए डोंबिवली रोटरी क्लब से भी बात करूंगी।"
रोटेरियन स्नेहल शिंदे ने कहा कि हम मूल्यांकन करेंगे कि वह किस तरह का काम कर सकते हैं, और इस पर अपने सदस्यों के साथ चर्चा करेंगे। हम ऐसे तरीके से मदद करना चाहते हैं जो टिकाऊ हो।
आखिर में संतोष का कहना है कि मुझे दान नहीं चाहिए, मैं बस इतना चाहता हूँ कि लोग याद रखें, कि हम अभी भी यहां हैं, इंतजार कर रहे हैं। खैरात के लिए नहीं, बल्कि सम्मान के लिए। न्याय के लिए।
40 साल बाद भी संतोष कुलकर्णी इंतजार कर रहे हैं - गुस्से में नहीं, बल्कि शांत आशा में कि कहीं न कहीं कोई तो होगा जो उनकी इतनी परवाह करेगा कि वे नजरें नहीं फेरेंगे।
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