वीर सपूत : क्रांतिकारी वारींद्र घोष ने स्वाधीनता के लिए समर्पित कर दिया अपना जीवन
कलकत्ता के मानिकतल्ला में वारींद्र घोष का क्रांतिकारी दल 17 वर्षीय उल्लासकर दत्त के निर्देशन में बम बना रहा था। एक मोटी पुस्तक में रखकर किंग्सफोर्ड के पास बम भेजा गया पर पुस्तक स्वयं न खोलने के कारण वह बच गया।

नई दिल्ली, फीचर डेस्क। वारींद्र घोष 12 वर्ष के थे, तभी उनके माता-पिता का देहांत हो गया। उसके बाद बड़ौदा में अपने बड़े भाई श्री अरविंद घोष के पास जाकर पढऩे लगे। श्री अरविंद महाराजा कालेज बड़ौदा में प्राध्यापक होने के साथ क्रांतिकारी नेता भी थे। उन्हीं की प्रेरणा से वारींद्र क्रांतिकारी बने।
1904 में वे कलकत्ता (अब कोलकाता) आ गए और 1905 के बंग-भंग से आक्रोशित नवयुवकों को संगठित करने लगे। उन्होंने अनुशीलन समिति की स्थापना कर 'युगांतर' नामक पत्र का प्रकाशन शुरू किया और क्रांति की शुरुआत कर दी। अनुशीलन समिति की गुप्त गतिविधियां ढाका और कलकत्ता से संचालित हो रही थीं। कलकत्ता में युगांतर ने क्रांति की मशाल जला दी, इसलिए अंग्रेज सरकार ने इसके संपादक भूपेंद्रनाथ दत्त को देशद्रोह के आरोप में जेल भेज दिया। 'संध्या' और 'वंदेमातरम' पत्रों के संपादकों को भी जेल में डाल दिया गया। कलकत्ता का चीफ रेजीडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड इन कारनामों और वंदेमातरम बोलने वालों को कोड़े मारने की सजा देने के लिए कुख्यात था।
1907 में किंग्सफोर्ड को ठिकाने लगाने की योजना बनी। 14-15 किशोर और नवयुवक इसके लिए तैयार थे। वारींद्र ने अस्त्र-शस्त्र जुटाना आरंभ कर दिया। मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड को कलकत्ता से मुजफ्फरपुर (बिहार) भेज दिया गया। उसे वहां जाकर मारने का जिम्मा खुदीराम बोस व प्रफुल्ल चाकी ने लिया, लेकिन इस प्रयत्न में भी किंग्सफोर्ड बच गया और पकड़े जाने पर दोनों नवयुवकों को शहादत देनी पड़ी थी। इसके बाद अंग्रेजी सरकार ने धरपकड़ शुरू कर दी। क्रांतिकारियों पर अत्याचार बढ़ गया।
2 मई, 1908 को कलकत्ता तथा देवघर में चार स्थानों पर छापा मारकर 41 क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। इसके पूर्व फरवरी 1908 में बम का परीक्षण करते समय प्रफुल्लचंद्र चक्रवर्ती दिवंगत हो गए थे। 30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर में बग्घी पर बम फेंका गया था और खुदीराम व प्रफुल्ल चाकी फरार हो गए थे, तब तलाशी व धरपकड़ तेज हो गई थी। यही अलीपुर बम केस कहलाता है, जिसमें श्री अरविंद और वारींद्र घोष सहित 38 लोगों पर मुकदमा चला। श्री अरविंद को तो चितरंजनदास की कुशल पैरवी बचा ले गई, लेकिन वारींद्र घोष और अन्य साथियों को सजा हो गई। वारींद्र ने अदालत में बयान देकर बम बनाने का उद्देश्य बताया कि जनता क्रूर शासन से मुक्ति चाहती है, इसलिए हमने यह किया। जन चेतना के लिए युगांतर निकालने वाले वारींद्र घोष और उनके साथी उल्हासकर दत्त को पहले फांसी की सजा हुई, पर हाईकोर्ट में अपील के बाद इसे आजीवन कालापानी में बदल दिया गया। वारींद्र, उल्हासकर और उपेंद्र 12 वर्ष की घोर यातना के बाद छूटकर आए। कलकत्ता आकर वारींद्र ने चितरंजन दास की मासिक पत्रिका 'नारायण' का कार्यभार संभाल लिया।
(प्रभात प्रकाशन की पुस्तक 'क्रांतिकारी किशोर' से साभार संपादित अंश)
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