रिजर्व बैंक को टैक्सपेयर के प्रति जवाबदेह बनाना होगा, बैंकों के कामकाज पर नजर रखनी होगी
माल्या को कर्ज देने के मामले में भी रिजर्व बैंक ने नियमों में ढील दी। इसके नतीजे सबसे सामने हैं।
नई दिल्ली [ साक्षात्कार ] । चाहे बैंकिंग सेक्टर में एनपीए का मसला हो या फिर पीएनबी बैंक जैसे घोटाले, सभी में बैंकिंग क्षेत्र के नियामक के तौर पर रिजर्व बैंक की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे हैं। इन मसलों पर विचार कर रही संसदीय समितियों में भी इसे लेकर चर्चा हो रही है। एनपीए की समस्या को पिछले कई वर्षो से उठाते रहे सांसद और वित्त की स्थायी समिति के सदस्य राजीव चंद्रशेखर मानते हैं कि अब रिजर्व बैंक के नियामक की भूमिका पर पुनर्विचार करने का वक्त आ गया है। दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख नितिन प्रधान से बातचीत में चंद्रशेखर ने कहा आरबीआइ को टैक्सपेयर के प्रति जवाबदेह बनाना होगा।
बैंकिंग क्षेत्र से एनपीए को लेकर लगता है अभी समस्या दूर नहीं हुई है?
-देखिए मैं तो इसे पूरी तरह से आपराधिक श्रेणी में रखता हूं। यह सीधे सीधे देश के करदाताओं के प्रति अपराध है। अगर आप एनपीए की राशि को देश के करदाताओं की संख्या में विभाजित करें तो प्रत्येक टैक्सपेयर पर एक लाख रुपये का बोझ आता है। आखिर बैंक अधिकारियों और नियामक के तौर पर रिजर्व बैंक की असफलता का बोझा करदाता अपने ऊपर क्यों ले।
...तो आपकी नजर में इसके लिए कौन जिम्मेदार है?
-देखिए कोई भी कंपनी अगर नाकाम होती है तो किसी की जिम्मेदारी होती है? यही नियम यहां भी लागू होता है। अगर बैंक अपना कामकाज सही तरीके से नहीं कर पा रहे तो इसका पहला दायित्व बैंक का स्वामित्व संभालने वाले पर होगा। इस मामले में यहां यह बात सरकार पर लागू होती है। दूसरी जिम्मेदारी बैंक के बोर्ड की है। तीसरे नंबर पर वह नियामक जवाबदेह है जो बैंकों के कामकाज की निगरानी और उनके लिए दिशानिर्देश तैयार करता है। यहां वह रिजर्व बैंक है। अगर बैंकों का प्रदर्शन खराब रहता है तो इन्हीं तीन संस्थाओं को इसके लिए दोषी माना जाना चाहिए। मैंने सबसे पहले 2009 में बैंकों के एनपीए का सवाल संसद में उठाया। उसके बाद से लगातार इस मामले को उठा रहा हूं। यहां तक कि 2013 में तत्कालीन वित्त मंत्री पी चिदंबरम को पत्र लिखकर भी आगाह किया कि बैंकों को वित्तीय मदद देकर टैक्सपेयर पर और बोझा न बढ़ाया जाए।
क्या आप मानते हैं कि कामकाज को लेकर बैंकों का भी परफॉरमेंस ऑडिट होना चाहिए?
-बिलकुल होना चाहिए। यही बात मैंने चिदंबरम को लिखे पत्र में भी उठायी थी। मेरा मानना है कि टैक्सपेयर और देश के सभी नागरिकों को यह जानने का अधिकार है कि बैंकों में रखे गए उनके पैसे का इस्तेमाल बैंक, सरकार या सरकारी एजेंसियां किस प्रकार कर रही हैं। परफॉरमेंस ऑडिट में यह बात पूरी तरह स्पष्ट हो जाएगी।
बैंकों के इस हाल में पहुंचने के लिए आप किसे सबसे ज्यादा दोषी मानते हैं?
-एनपीए की इस समस्या ने 2009 के बाद विकराल रूप लेना शुरु किया। उसके बाद साल दर साल इसमें वृद्धि होती रही। साल 2012 में आई क्रेडिट सुइस की एक रिपोर्ट के मुताबिक बैंकों की तरफ से दिये गये 550000 करोड़ रुपये के कर्जो में 98 फीसद हिस्सेदारी देश के 10 कंपनी समूहों की थी। 2009 से 2015 तक रिजर्व बैंक इस समस्या को बिगड़ते हुए केवल देखता रहा। रिजर्व बैंक से यह पूछा जाना चाहिए कि इस अवधि में स्थिति को बिगड़ने से रोकने के लिए आखिर उसने क्या कदम उठाये?
क्या नियामक के तौर पर आरबीआइ के स्वरूप में बदलाव की जरूरत है?
-मेरा मानना है कि रिजर्व बैंक को उसके कार्यो के हिसाब से विभाजित कर देना चाहिए। सबसे पहले तो आरबीआइ अधिनियम में संशोधन करके रिजर्व बैंक को टैक्सपेयर के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। दूसरे बैंकिंग रेगुलेटर के तौर पर उसकी भूमिका एकदम पृथक्क और अधिक स्पष्ट होनी चाहिए। बैंकों के कामकाज पर नियामक के तौर पर रिजर्व बैंक नजर रखे और जरूरत पड़ने पर हस्तक्षेप करे। बैंकों के लिए नीति निर्माता के तौर पर अगर रिजर्व बैंक कोई नीति बदलता है तो उसके प्रति भी उसे जवाबदेह होना होगा। माल्या को कर्ज देने के मामले में भी रिजर्व बैंक ने नियमों में ढील दी। इसके नतीजे सबसे सामने हैं।
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